महात्मा गाँधी
महात्मा गाँधी का जन्म 2 अक्टूबर, 1869 को गुजरात के पोरबंदर में हुआ। इनके पिता का नाम करमचंद गांधी और माता का नाम पुतलीबाई था। ब्रिटिश हुकूमत में इनके पिता पोरबंदर और राजकोट के दीवान थे। महात्मा गांधी का असली नाम मोहनदास करमचंद गांधी था और यह अपने तीन भाइयों में सबसे छोटे थे।
पोरबंदर से उन्होंने मिडिल और राजकोट से हाई स्कूल किया। मैट्रिक के बाद की परीक्षा उन्होंने भावनगर के शामलदास कॉलेज से कुछ समस्या के साथ उत्तीर्ण की। 4 सितम्बर, 1888 को गांधी ने ब्रिटेन के यूनिवर्सिटी कॉलेज लन्दन में कानून की शिक्षा हेतु नामांकन लिया।
सेठ अब्दुल्ला के निमंत्रण पर 1893 में महात्मा गांधी वकालत करने के लिए दक्षिण अफ्रीका चले गए। 7 जून 1893 को जब गांधी प्रिटोरिया से डरबन जा रहे थे तब एक अंग्रेज ने फर्स्ट क्लास बोगी में उनकी मौजूदगी पर ऐतराज जताया। दक्षिण अफ्रीका में पीटरमारित्जबर्ग रेलवे स्टेशन पर उन्हें प्रथम श्रेणी के डिब्बे से धक्के मारकर उतार दिया गया। 1893-94 में दक्षिण अफ्रीका के नस्लवादी अधिकारियों के खिलाफ संघर्ष किया। 1894 में नटाल इंडियन काँग्रेस की स्थापना की। 1894 में उन्होंने नटाल इंडियन काँग्रेस का गठन किया और दक्षिण अफ्रीका में भारतीय नागरिकों की दयनीय हालत की ओर दुनिया का ध्यान खींचा।
1906 में ट्रांसवाल सरकार ने भारतीयों के अधिकारों पर प्रतिबंध लगाने का फैसला किया। उस समय गांधीजी ने पहली बार सत्याग्रह या सामूहिक सविनय अवज्ञा आंदोलन छेड़ा। गांधी ने 1904 में डरबन के निकट फ़ीनिक्स सेटलमेंट में एक आश्रम बनाया था, जहाँ से वो "इंडियन ओपिनियन" नाम का एक अख़बार प्रकाशित करते थे।
दक्षिण अफ्रीका में नस्लवाद से लड़ते हुए गाँधी जी ने संघर्ष का एक नया रूप असहयोग और सत्य और अहिंसा पर आधारित एक नई तकनीक सत्याग्रह का विकास किया था। गाँधी जी 46 वर्ष की आयु में 9 जनवरी,1915 को भारत लौटे। पूरे एक वर्ष तक उन्होंने देश का भ्रमण किया और भारतीय जनता की दशा को समझा। गाँधी जी ने 25 मई, 1915 को अहमदाबाद के कोचरब नामक स्थान पर श्री जीवन लाल के मकान को किराए पर ले कर सत्याग्रह आश्रम की स्थापना की, जिसे 17 जून, 1917 को अहमदाबाद के पास साबरमती नदी के तट पर स्थानांतरित किया गया तथा इसका नाम साबरमती आश्रम कर दिया गया।
गांधी जी की दर्शनिक विचारधारा
गांधीजी ने कभी भी अपने विचारों के बारे में मौलिकता का दावा नहीं किया। वे स्वयं अपने विचारों को 'गांधीवाद' की संज्ञा देने के पक्ष में नहीं थे। हालांकि बाद में उनके विचारों पर आधारित पद्धति को 'गांधीवाद' का नाम दे दिया गया। गाँधी की आस्था अपने विचारों को संकलित करने में नहीं वरन जीवन भर उन विचारों पर अनुगमन करने में थी। गाँधी अपने विचारों के विरोधाभास को प्रायः वर्तमान संदर्भों में संशोधित कर लिया करते थे। गांधी के विचार उनके जीवन में सत्य के साथ किये गए प्रयोग हैं। जीवन में सत्य के साथ प्रयोग गांधी जी के विचार सार्वकालिक सत्य लगते हैं अर्थात् वे आज भी उतने ही प्रासंगिक लगते हैं, जितने तब थे, जब गांधीजी ने उनका प्रयोग किया था।
गांधी जी द्वारा कुछ प्रमुख मुद्दों पर व्यक्त किए गये विचार निम्नवत हैं:
1. सत्याग्रह और अहिंसा
गांधी के विचारों पर भारतीय दर्शन एवं बाइविल, रूसो, टॉलस्टॉय जैसे व्यक्तित्वों का स्पष्ट प्रभाव परिलक्षित होता है। अहिंसा के माध्यम से असत्य पर आधारित बुराई का विरोध करना ही सत्याग्रह है। इसका पहला प्रयोग गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका के भारतीयों द्वारा सरकार के विरुद्ध की जाने वाले अहिंसक कार्रवाई के दौरान किया था। लगभग दो दशक लम्बे इस संघर्ष के दौरान उन्होंने सत्य और अहिंसा पर आधारित सत्याग्रह नामक तकनीक का विकास किया। जिसके अनुसार-
वर्ष 1920 में अपने साप्ताहिक पत्र “यंग इंडिया" में वे लिखते हैं कि “अहिंसा हमारी प्रजाति का धर्म है जैसे हिंसा पशु का धर्म है। परन्तु अगर केवल कायरता और हिंसा में किसी एक को चुनना हो तो मैं हिंसा को चुनने की सलाह दूंगा कायरतापूर्वक असहाय होकर अपने सम्मान का अपहरण होते देखते रहने के बजाए, मै अपने सम्मान की रक्षा के लिए हथियार उठाते देखना पसंद करूँगा।” गाँधीजी के दृष्टिकोण में विचार और कर्म में कोई अन्तर नहीं है। उनका सत्य-अहिंसा दर्शन रोजमर्रा के जीवन के लिए था।साधारण जनता की संघर्ष की क्षमता पर गाँधीजी को अटूट भरोसा था। जब उसने 1942 में पूछा गया कि वे “साम्राज्य की शक्ति का सामना" कैसे कर सकेंगे तो उन्होंने उत्तर दिया -"लाखों-लाख मूक जनता की शक्ति के द्वारा।"
गाँधी का मानना है कि प्रत्येक व्यक्ति के भीतर सत्य का अंश है और उसे इस सत्य की अनुभूति करायी जा सकती है। असत्य को सत्य से और बुराई को भलाई से ही जीता जा सकता है। गांधीजी स्वयं इस सत्य को सफलतापूर्वक जीवन भर अमल में लाते रहे। उनके अनुसार हृदय परिवर्तन से ही असत्य के विरोध में सत्य का अनुपालन संभव हो सकता है। गाँधी इस सत्य के पाठ पर अनुगमन करने वाले को सत्याग्रही की संज्ञा देते हैं।
सत्याग्रही का यह कर्तव्य है कि वह प्रत्येक व्यक्ति के भीतर मौजूद सत्यानुभूति को उजागर करे। इसके लिए उसके पास पर्याप्त आत्मबल और निःस्वार्थ भावना का होना आवश्यक है। इसके साथ ही सत्याग्रही को सुख का परित्याग करके तथा अनेक दुःख या यातनायें सहकर बुराई का प्रतिरोध करना पड़ सकता है और तभी वह अपने विरोधी को इस बात का अहसास करा पायेगा कि उसकी आत्मशक्ति बुराई के समक्ष किसी भी सूरत में झुकने वाला नहीं है। सत्याग्रही को निरन्तर अहिंसक रहकर ही अपना विरोध जारी रखना चाहिए। निष्क्रिय विरोध से उसे सफलता नहीं मिल सकती। सत्याग्रही उपवास, धरना, हड़ताल, सविनय अवज्ञा, हिजरत, सामाजिक आर्थिक बहिष्कार इत्यादि से अपने उद्देश्य प्राप्ति के अनेक साधनों में प्रयोग कर सकता हैं।
सत्याग्रही के लिए व्यक्तिगत शुद्धिकरण का साधन उपवास है, जो उसके आत्मबल को बढता है। धरना जनजीवन को अस्त-व्यस्त करने के लिए रास्ता रोकना नहीं है बल्कि इसका मतलब, शासन का ध्यान जनता की ओर आकृष्ट कराना है। हिजरत का मतलब स्वेच्छा से स्थान त्याग देने से है। गांधीजी ने हरिजनों को अत्याचार वाले स्थान त्याग देने की सलाह दी थी, जिससे उन्हें स्वच्छ वातावरण मिल सके। असामाजिक या अभद्र व्यवहार करने वाले से सामाजिक बहिष्कार के तहत सम्पर्क तोड़ लेना चाहिए। आर्थिक बहिष्कार विदेशियों को लाभ पहुँचाने वाली वस्तुओं के बहिष्कार से है।
गांधीजी के सत्याग्रह एवं अहिंसा के सिद्धांत अन्योन्याश्रित है। कोई भी व्यक्ति बगैर अहिंसक हुए सत्याग्रही नहीं हो सकता। यहाँ अहिंसा केवल किसी जीव मात्र की हत्या करना नहीं, बल्कि यह प्राणी के एकत्व पर आधारित नैतिक दृष्टि है। फलत: नैतिक बल से युक्त सत्याग्रही को यदि किसी की रक्षा के लिए अपना बलिदान भी देना पड़े, तो वह पीछे नहीं हटता है। अहिंसा भारत के संदर्भ में प्राचीन अवधारणा है, क्योंकि हमारे प्राचीन धर्म ग्रंथों (पुराण, उपनिषद्) तथा बौद्ध और जैन धर्मों का यह मूल सिद्धांत रहा है। इस नैतिक सिद्धांत को गांधीजी ने सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन का आधार बना दिया। गांधीजी के मतानुसार विरोधी से भयभीत रहकर अहिंसक बने रहना अहिंसा नहीं, बल्कि कायरता कहा जायेगा। जबकि सच्ची या सकारात्मक अहिंसा का जन्म आत्मा से होता है, जिसमें भय का कोई स्थान नहीं। वही सच्चा अहिंसक वह है, जो हिंसा करने की स्थिति में होने के बावजूद हिंसा न करे। गांधी जी के पाप से लड़ना चाहते हैं न कि पापी से। बड़े से बड़ा पापी भी ईश्वर अंश वाला मनुष्य ही है। पापी के हृदय परिवर्तन की सफलता हीं, सच्चे अर्थ में अहिंसक होना है।
"अहिंसा परमो धर्म:" के प्राचीन भारतीय आदर्श ही गांधी के प्रेरणाश्रोत रहे है। सत्य की आस्था उनके अहिंसा के सिद्धांत का आधार रहा है। बगैर सत्य की अनुभूति के अहिंसा का सिद्धांत व्यावहारिक नहीं हो सकता। इसी प्रकार बगैर अहिंसा के मार्ग पर चले सत्य की खोज संभव नहीं है। इसीलिए गांधी जी ने अपने अनुयायियों के लिए सत्य और अहिंसा का मार्ग अपरिहार्य बना दिया था। उनके अनुसार केवल ईश्वर ही शुभ और सत्य है। ईश्वर, सत्, चित् तथा आनन्द का समन्वय (सच्चिदानंद) है। यदि कोई व्यक्ति सापेक्ष सत्य की उपासना करता है, तो वह निश्चित ही ईश्वर को प्राप्त कर लेगा।
धर्म और राजनीति
गांधीजी के लिए 'धर्म' पंथों और सम्प्रदायों की संकीर्णता नहीं है। उन्होंने धर्म को एक नैतिक आचरण के रूप में समझने और व्यवह्रत करने का प्रयास किया। गांधीजी की दृष्टि में हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई, जैन, बौद्ध इत्यादि धर्म नहीं है। उनके अनुसार धर्म तो मानव में अंतर्निहित सत्य की अभिव्यक्ति है। परम्परागत वैष्णव धर्मावलम्बी परिवार में पले-बढे होने के कारण उनकी कुछ धारणाओं पर वैष्णव परम्परा का प्रभाव दिखाई पड़ता है। लेकिन ऐसी बातें रूढ़िवादिता या कट्टरता की कोटि में नहीं रखी जा सकती हैं। गांधी अवतारवाद में विश्वास रखते थे। जब देश या लोगों पर कोई प्राकृतिक विपदा आती थी तो इसे वे लोगों को उनकी गलतियों का दंड मानते थे। लेकिन जब वे सामाजिक संदर्भों में धर्म की बात किया करते थे, तो उससे उनका अभिप्राय किसी धर्म या सम्प्रदाय विशेष से बिल्कुल नहीं होता था।
गांधी 'सर्वधर्म समभाव' के सिद्धांत के घोर पक्षपाती थे। लोगों को वे बार-बार स्मरण दिलाते थे कि किसी भी धर्म ग्रंथ में दूसरे धर्म की निंदा नहीं की गयी है। भारत जैसे देश के लिए गांधी जी की धर्म सम्बन्धी व्याख्या निःसंदेह एक क्रांतिकारी दृष्टि थी। जिस पर अमल करते हुए धार्मिक विद्वेष और साम्प्रदायिकता जैसी समस्या से बचा जा सकता है। देखा जाये तो 'धर्म निरपेक्षता' का सबसे बड़ा उदाहरण हमें गांधी में ही देखने को मिलता है।
गांधी जी ने धर्म और राजनीति' के बीच समन्वय स्थापित किया। धर्म विहीन राजनीति को वे बेईमानी मानते थे। उनके अनुसार धर्म या नैतिकता के अनुरूप किया गया राजनीतिक कृत्य ही वांछनीय है। यदि हम दुश्मन की कठिनाई का राजनीतिक लाभ उठा सकने की स्थिति में हों, तब भी हमें ऐसा करने से बचना चाहिए। द्वितीय विश्व युद्ध के समय ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध आन्दोलन न करना इसका प्रमुख उदाहरण है। उस समय उन्होंने कहा था कि इस समय हमारा धर्म यह है कि हम अंग्रेजों से नाजायज लाभ लेने का प्रयास न करें, बल्कि यदि आवश्यकता हो तो उनके विरुद्ध चलाया जा रहा सारा आंदोलन ही वापस ले लें।
रामराज्य और ग्राम स्वराज्य
भारत में रामराज्य धार्मिक आवरण में समाज के उचित संचालन हेतु राजनीति का एक मॉडल है। 'राम राज्य' की परिकल्पना संभवतः गांधी की सबसे महत्त्वपूर्ण परिकल्पना रही है। गांधी का राम राज्य 'यूटोपिया' नहीं है। गांधी ने एक ऐसे आदर्शवादी 'राम राज्य' की कल्पना की थी, जहाँ दण्ड की आवश्यकता ही न पड़े। ऐसे राम राज्य में राम किसी डिक्टेटर या अधिनायक के प्रतीक न होकर राज्य के प्रतीक थे। यहाँ राम केवल शासन करने वाले नहीं बल्कि शासित होने वाले भी हैं। उनका कहना था कि यदि 'सर्वोदय' के सिद्धांत का पालन किया जाये तो राम राज्य स्वतः स्थापित हो जायेगा। मनुष्य के नैतिक विकास के क्रम में जब राम राज्य की स्थिति आती है तो दंड विधान करने वाली राजनीतिक सत्ता की आवश्यकता स्वतः ही समाप्त हो जाती है।
गांधी जी मानना था कि समाज में अहिंसा पूरी तरह स्थापित नहीं हो सकती, इसीलिए 'राज्य' के विरुद्ध होते हुए भी उन्होंने 'स्वराज्य' की बात की थी। उनके अनुसार स्वराज्य इस प्रकार की विकेंद्रीकृत सत्ता है,जिसमें राज्य के हस्तक्षेप की जरूरत ही न पड़े। प्रत्येक गाँव शासन के मामले में आत्मनिर्भर हो। वह प्रेम एवं अहिंसा के आधार पर सहयोगिता का सिद्धांत निर्धारित करे। ऐसी स्थिति में ही राज्य विहीन समाज की स्थापना हो सकती है। गांधी इस बात को अच्छी तरह से जानते थे कि उनके द्वारा बतायी गयी व्यवस्था, एक ऐसी आदर्श व्यवस्था है, जिसे उसी रूप में प्राप्त नहीं किया जा सकता, जैसी कि उसके बारे में कल्पना की गयी है। लेकिन आदर्श समाज बनाया ही इसीलिए जाता है कि उसके नजदीक पहुँचने का प्रयत्न किया जाये। गांधी के इसी आदर्शवादी सिद्धांत के आधार पर जवाहर लाल नेहरू ने 'कल्याणकारी राज्य' बनाने का प्रयत्न किया।
अस्पृश्यता और अछूतोद्धार
गांधी जी अस्पृश्यता (Untouchability) को हिन्दू समाज के लिए अभिश्राप मानते थे फलत: जीवन भर इसके खिलाफ संघर्ष करते रहे। गांधी वर्णाश्रम के पक्ष में थे, लेकिन ऐसा मानने के बावजूद छुआ-छूत को वे समाज की प्रगति में बाधक मानते थे। उनके अनुसार समाज में सभी व्यक्तियों की स्थिति समान होनी चाहिए और उन्हें बराबर का अधिकार भी मिलना चाहिए। वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति जब वैदिक काल में हुई, तब इसका उद्देश्य काम का बंटवारा करना था, न कि किसी काम को छोटा या बड़ा समझना। वर्ण व्यवस्था में गांधी का विश्वास इसलिए था, क्योंकि इस पद्धति में व्यक्ति को अपनी रुचि और योग्यता के मुताबिक काम मिलता था। रुचि तथा योग्यता के अनुसार कार्य का बंटवारा ही गांधी का सिद्धांत था।
मैला ढोने वाले जमादार का लड़का भी मैला ही ढोये, यह कोई जरूरी नहीं है। यदि उसके अंदर डॉक्टर या इंजीनियर बनने की अदम्य लालसा और योग्यता है, तो उसे उसका पूरा हक मिलना चाहिए। यदि हम उसे भी मैला ढोने के लिए विवश कर दें तो न तो उसका उद्धार होगा और न ही हमारा समाज ही प्रगति की और अग्रसर हो पायेगा। कालान्तर में जब वर्ण व्यवस्था टूटने लगी थी, तो जातियाँ और उपजातियाँ बनने लगीं- ऐसा पूर्व मध्य काल में अधिक हुआ, जब बड़ी संख्या में विदेशी जातियाँ भारत में आयीं और यहाँ की सभ्यता और जनजीवन में समाहित हो गयीं। जाति व्यवस्था की उत्पत्ति के साथ ही समाज में विकृति भी आती गयी और अस्पृश्यता की भावना के चलते कुछ जातियाँ बिल्कुल निकृष्ट और अछूत मानी जाने लगीं, जिनकी परछाई को भी अपवित्र मानकर उससे बचा जाता था।
गांधी ने अछूतोद्धार के लिए अनेक क्रांतिकारी कदम उठाये। गांधी जी का विचार था कि भारतीय समाज की उन्नति तब तक नहीं हो सकती जब तक छुआ-छूत की भावना को जड़ से उखाड़ा नहीं जाए। इस संदर्भ में उन्हें महाराष्ट्र के निम्न जाति के सुधारक महात्मा ज्योतिबा फुले से भी प्रेरणा मिली। गांधी जो कुछ भी कहते थे, उसके अनुसार स्वयं भी आचरण करते थे। उनकी कथनी और करनी में कोई भेद नहीं था। इसीलिए उन्होंने अपने साबरमती और सेवाग्राम आश्रम में सबसे पहले अछूतोद्धार का काम किया और "हरिजन' पत्रिका का प्रकाशन आरंभ किया। दलितों को सम्मानजनक स्थिति देते हुए उन्होंने ही सर्वप्रथम उनके लिए 'हरिजन' शब्द का इस्तेमाल किया। भारत में सदियों से मैला उठाने और उसे अपने सिर पर ढोने की प्रथा सर्वाधिक निकृष्ट कार्य समझी जाती रही है, लेकिन गांधी जी ने हरिजन बस्तियों में जाकर बिना हिचक के स्वयं यह कार्य किया और अपने आश्रमवासियों तथा अनुयायियों को भी ऐसा ही करने का निर्देश दिया। इसका उद्देश्य यह था कि ऐसा करने से निम्न जाति के लोगों के अंदर बैठी हुई छोटेपन की भावना बाहर निकलेगी और उनमें स्वयं ही समाज के उच्च वर्ग के लोगों के बीच स्थापित करने का आत्मविश्वास पैदा होगा।
गांधी ने सवर्णों को चेतावनी देते हुए याद दिलाया कि जो भी अपने जैसे मनुष्यों के कामों को निकृष्ट समझकर उन्हें नीचा समझेगा, वह जघन्य अपराध तथा पाप का भागीदार होगा। उनके अनुसार एक मनुष्य के रूप में एक मेहतर की भी वही अहमियत है जो एक डॉक्टर या इंजीनियर की है। अछूतोद्धार के अपने प्रयासों के क्रम में गांधी जी ने अंग्रेजी सरकार से भी इस दिशा में कानून बनाने का आग्रह किया था।
इस कार्य में उन्हें डॉ० भीमराव अम्बेडकर जैसे नेताओं का सक्रिय सहयोग मिला। गांधी जी के प्रयासों के परिणामस्वरूप हरिजनों के मंदिरों में प्रवेश पर लगायी गयी रोक धीरे-धीरे हटने लगी थी और आज यह लगभग पूरी तरह समाप्त हो चुकी है। हालांकि तत्कालीन समय में ही कुछ अंधविश्वासी और कट्टरवादी तत्त्वों ने उनके प्रयासों का पुरजोर विरोध किया था, लेकिन वे गांधी को अपने पथ से जरा भी विचलित न कर सके। उन्होंने कहा था कि चूँकि अछूत माने जाने वाला वर्ग सर्वाधिक कमजोर है, इसलिए परम पिता ईश्वर की दृष्टि में भी वह सर्वाधिक प्रिय है। यही कारण है कि उन्होंने अछूतों को 'हरिजन' संज्ञा से विभूषित किया। उनके रामराज्य और सर्वोदय का सिद्धान्त 'सर्व धर्म समभाव' और 'सर्व जन हिताय' पर आधारित है, जिसमें समाज के सभी लोगों को बराबरी का अधिकार प्राप्त हो।
सामाजिक समता और साम्प्रदायिकता
महान् दार्शनिक रूसो ने कहा कि सभी व्यक्ति समाज में पैदा होने के कारण समान हैं। समानता ही गांधी के समस्त सामाजिक विचारों का आधार है। उनकी समानता की अवधारणा रूसो से कुछ भिन्न है। सभी व्यक्ति एक हीं ईश्वर की संतान होने के कारण सामान हैं। एक पिता जैसे अपने बच्चों में अंतर नहीं कर पाता है, उसी प्रकार एक ईश्वर के लिए भी मनुष्यों में अंतर कर पाना कठिन है। धरती पर जहाँ कहीं भी असमानता दिखाई देती है, वह मनुष्य द्वारा निर्मित होती है। कोई व्यक्ति यदि दूसरे को जाति, धर्म, व्यवसाय या किसी अन्य आधार पर निकृष्ट समझता है तो वह निःसंदेह ईश्वर द्वारा बनाये गये नियम का उल्लंघन करता है। यह कार्य सभी व्यक्ति, संस्था एवं राज्य द्वारा किया जा सकता है।
जब समाज से ऊँच-नीच का अप्राकृतिक और मनुष्य निर्मित भाव समाप्त कर दिया जाये तभी गांधी के मुताबिक आदर्श समाज की स्थापना संभव हो सकेगी। समाज की संरचना धर्म द्वारा अनुमोदित नैतिकता पर आधारित रहेगी तभी गैर बराबरी का भाव समाप्त हो पायेगा। केवल कानून बना देने से असमानता का भाव समाप्त नहीं हो सकता। जिस राज्य की राजनीति नैतिकता पर आधारित नहीं हो और बुनियाद केवल शक्ति के आतंक पर ही टिकी हो-वह निश्चित ही समानता का भाव नहीं पैदा कर सकती। इसी संदर्भ में धर्म की बात भी आती है। राजनीति, धर्म द्वारा ही नियंत्रित और मर्यादित होती है, इसलिए राजनीति और धर्म दो अलग-अलग धारणायें कतई नहीं हैं। धर्म के बिना राजनीति की कल्पना बेमानी है। लेकिन यहाँ धर्म का अर्थ प्रचलित अर्था में धर्म जैसा नहीं है। चूंकि सबका ईश्वर एक है, इसलिए वास्तविक अर्थ में सभी का धर्म भी एक ही होना चाहिए।
जब समाज में इस तरह की भावना आ जायेगी, तभी समानता की स्थिति आ सकती है। सोलहवीं शताब्दी में जिस प्रकार निर्गुण संत कबीर ने साम्प्रदायिकता पर अपने व्यंग्य बाण चलाकर कड़ा प्रहार किया था, लगभग उसी प्रकार गांधी ने भी अपनी पूरी शक्ति से साम्प्रदायिकता पर प्रहार करके उसे छिन्न-भिन्न करने की कोशिश की। वे हिन्दू मुसलमानों के बीच प्रेम और सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध देखना चाहते थे। गांधी धर्म के शाश्वत् मूल्यों के आधार पर एकता की बात करते हैं। गांधी की विचारधारा पूरी तरह समकालीन यथार्थ पर आधारित रही है। 1947 में भारत पाकिस्तान के बंटवारे और इस अवसर पर हुए साम्प्रदायिक दंगों से गांधी सर्वाधिक आहत हुए थे। संभवतः उनको पहली बार यह लगा कि सत्य की दिशा में किया गया उनका एक प्रयोग असफल हो गया।
स्त्री-पुरुष समता
गांधी जी के समानता के सिद्धांत का एक महत्वपूर्ण पहलू स्त्री-पुरुष के बीच पारस्परिक समानता की भावना भी है। गांधी जिस भारत में जन्मे थे, वहाँ नारी का स्थान, पुरुष से काफी निम्न था। उसे कभी-कभी तो शूद्र की श्रेणी में भी रखा गया। बाल विवाह, सती प्रथा, विधवा प्रथा, पर्दा प्रथा जैसी कुरीतियों के कारण महिलाओं की स्थिति काफी निम्न थी। गांधी जानते थे कि स्त्री-पुरुष के बीच इस भेद-भाव का प्रमाण दार्शनिक या धार्मिक ग्रंथों में कहीं भी नहीं मिलता है। पर्दा प्रथा और सती प्रथा जैसी कुरीतियां मध्ययुगीन सामंती परिवेश के कारण उदित हुई थीं, जिनसे भारतीय समाज लगातार अवनत किया था। स्त्रियाँ किसी देश की आधी जनता है। गांधी जी मानते थे कि यदि किसी देश की आधी जनता को निष्प्राण, निष्क्रिय कर दिया जाये तो वह देश उन्नति नहीं कर सकता है।
अठारहवीं शताब्दी में राजा राममोहन राय, ईश्वर चंद्र विद्यासागर, ज्योतिबा फुल आदि समाज सुधारक स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए अतुलनीय सफल प्रयास कर चुके थे। अपने पूर्ववर्तियों का समर्थन करते हुए गांधी ने अपने आश्रम में स्त्री पुरुषों को बरावरी का स्थान दिया। कस्तूरबा को उन्होंने इसकी देख-रेख का कार्य सौंप रखा था। गांधीजी पुरुषों को इस बात से अकसर आगाह करते थे कि उन्हें यह बात गांठ बांध लेनी चाहिए कि स्त्रियाँ अबला नहीं हैं। स्त्रियाँ वह सब कुछ कर सकती हैं जो पुरुष कर सकते हैं। उनका तो यहाँ तक कहना था कि जननी के रूप में नारी पुरुषों की अपेक्षा मानव मूल्यों को कहीं अच्छी तरह समझती है और उन्हें संजो कर रखती है। वह समाज में नैतिकता के प्रसार का महत्त्वपूर्ण कार्य करती है। इस कारण स्त्री को पुरुष से नीचा या अधम मानना न केवल प्रकृति के नियमों का उल्लंघन है, बल्कि ईश्वर की दृष्टि में भी पाप है।
गांधीजी विवाह को काम क्षुधा शांत करने का एक साधन न समझकर उसे एक पवित्र बंधन मानते थे। ईश्वर चंद्र विद्यासागर से प्रभावित होकर वे भी विधवा विवाह के घोर समर्थक थे। वे मानते थे कि स्वेच्छा से विधवा बने रहना गलत नहीं है, लेकिन किसी स्त्री को जबरन विधवा बने रहने के लिए बाध्य करना, गलत नहीं, बल्कि पाप है। गांधीजी ने बालिकाओं के अल्पायु में विवाह को भी अनुचित करार दिया था। उनके अनुसार स्त्री को भी वे सभी अधिकार होने चाहिए, जो पुरुष को मिले हैं। जिस प्रकार नारी सामाजिक समानता की अधिकारी हैं, उसी प्रकार उन्हें राजनीतिक समानता का भी अधिकार प्राप्त होना चाहिए। यद्यपि उन्हें राजनीति में आने का पूरा अधिकार है, लेकिन उनका यह भी कर्तव्य है कि वे एक सद्गृहिणी की तरह अपने घर की भी समुचित देखभाल करें। गाधी नारी की माता की भूमिका से सर्वाधिक प्रभावित थे। वे यह भी मानते थे कि भारतीय परिवारों में सच्ची सुख-शांति बगैर नारी की सक्रिय भूमिका के नहीं आ सकती है।
सर्वोदय
'सर्वोदय' शब्द 'सर्व' यानी 'सभी' और 'उदय' अर्थात् 'उत्थान' से बना है, अर्थात 'सभी का उत्थान'। भारत अपने सस्कृति के प्रारम्भ से ही 'सर्वे भवन्तु सुखिनः ( अर्थात् संसार में रहने वाले सभी लोग सुखी हो) के सिद्धांत पर अनुगमन करता रहा है। सर्वोदय सिद्धांत में समाज में रहने वाले सभी व्यक्तियों का महत्त्व बराबर का माना जाता है। 'सर्वोदय' गांधीजी की समस्त राजनीतिक धारणाओं के मूल में था। रस्किन की कृति 'अन टू दी लॉस्ट' गांधी की सर्वोदय सम्बन्धी अवधारणा का मूल बिन्दू है, ऐसा कई आलोचक मानते हैं। लेकिन यह सत्य का केवल एक पक्ष ही है। वस्तुतः इस सन्दर्भ में वे काफी पहले से चिंतन कर रहे थे। कुछ विद्वानों का मानना है कि गांधी ने बेन्थम तथा मिल जैसे राजनीतिक चिंतकों की उपयोगितावादी दृष्टि के विरोध में सर्वोदय का सिद्धांत स्थापित किया था।
उनका यह मानना था कि अधिकांश लोगों के सुखी और समृद्ध रहते हुए भी यदि किसी राज्य का एक भी व्यक्ति भूखा हो, तो वह राज्य आदर्श नहीं हो सकता। उनकी उपयोगितावादी सिद्धांत भौतिकवाद का ही पर्याय है। उनके अनुसार किसी भी समाज की प्रगति का मानदंड उसकी धन-संपदा नहीं हो सकती। उसकी प्रगति का आकलन उसके नैतिक चरित्र से हो किया जाना चाहिए। जिस तरह से ब्रिटेन में उपयोगितावादियों का विरोध रस्किन तथा कार्लाइल ने किया उसी तरह से गांधी ने उन लोगों के विचारों का खंडन किया, जो कार्ल मार्क्स के सिद्धांतों से प्रभावित होकर भारतीय समाज को औद्योगिक समाज में परिणत करना चाहते थे। जवाहरलाल नेहरू का इसी मुद्दे पर गांधी से मतभेद था। नेहरू औद्योगिक समाज के पक्षधर थे और स्वतंत्रता के बाद उन्होंने भारत में लोकतांत्रिक समाजवाद स्थापित करने का सफल प्रयत्न भी किया।
गांधी का सर्वोदय सम्बन्धी सिद्धांत व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर आधारित है, जिसमें समूची मानव जाति के कल्याण की भावना अंतर्निहित है। गांधी का सर्वोदय प्रजातांत्रिक पद्धति के लीक से हटकर है। उनके सर्वोदयी समाज की प्रकृति आध्यात्मिक है, जहाँ धर्म समाज का मार्गदर्शन करता है। यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि गांधी के अनुसार धर्म व्यक्ति का उचित कर्त्तव्य है। इस प्रकार सर्वोदयी समाज में सभी व्यक्ति नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों से संचालित होते हैं। 'अंत्योदय' सर्वोदय पर ही आधारित है, जिसमें समाज के सबसे निचले तबके के उत्थान की भावना निहित है।
आर्थिक दृष्टि
गांधी के अर्थव्यवस्था से सम्बन्धित विचार किसी आर्थिक सिद्धांत पर आधारित नहीं थे। गांधी के वे विचार उनके अनुभवजन्य सत्य थे। गांधी ने भारतीय अर्थव्यवस्था और जनजीवन को काफी निकट से जाना था, इसलिए इन मुद्दों पर व्यक्त किए गये उनके विचार आज भी उतने ही प्रासंगिक लगते हैं। गांधी रीढ़हीन भौतिकवाद के विरोधी थे। उनके यह विचार सत्य और अहिंसा के सिद्धांतों पर आधारित थे। वे धन को साध्य नहीं, बल्कि साधन मानते थे। उनके अनुसार मनुष्य धन के लिए नहीं है, बल्कि धन मनुष्य के लिए है। गांधी जी मानते थे कि धन का वितरण सभी व्यक्तियों में समान रूप से होना चाहिए, क्योंकि यदि धन का उपभोग कुछ ही व्यक्तियों तक सीमित हो जायेगा, तो इससे लोगों की नैतिकता भी खत्म होने का खतरा उत्पन्न हो जायेगा। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि नक्सलवादियों की तरह एक का धन जबरन छीन कर किसी और को दे दिया जाये। यह जोर-जबर्दस्ती की व्यवस्था जंगल राज है। वैयक्तिक दृष्टि से अमीर और गरीब में कोई अंतर नहीं होता है। गांधी के मुताबिक जिनके पास धन है, उनसे यह अपील की जा सकती है, वे अपनी अधिशेष सम्पत्ति में से उनको भी दें, जिनके पास इसका अभाव है। आज के आधुनिक और स्वार्थपरक समय में भी सोचना और करना संभव है। इसका सबसे अच्छा उदाहरण सर्वोदयी नेता 'संत विनोद भावे' का है, जिन्होंने अकेले साहस कर "भूदान" आंदोलन चलाया और राजाओं तथा जमींदारों से दान में भूमि लेकर उसे गरीबों में वितरित किया।
विकेंद्रीकरण के सिद्धांत पर गांधी के आर्थिक विचार आधारित है। उनका मानना था कि राजनैतिक सत्ता में गांव के लोगों को भी भागीदार बनाया जाना चाहिए। सत्ता के विकेंद्रीकरण का व्यावहारिक स्वरूप पंचायती राज प्रणाली है। गांधी जी गांवों को प्रमुख उत्पादक की भूमिका में देखना चाहते थे क्योंकि यदि गांव समृद्ध होंगे तभी स्वयं उससे देश भी समृद्ध हो जायेगा।
आलोचक यह कहते है कि गांधी जी आधुनिक मशीनों के विरुद्ध थे, क्योंकि इससे गांव के कुटीर उद्योगों और लोगों के रोजगार की हानि होती है। लेकिन ऐसा नहीं है, कि वे पूरी तरह मशीनों के विरुद्ध थे। जहां अनावश्यक मानव श्रम होता हो, वहाँ वे मशीनों के उपयोग करने के पक्षधर थे। उनके अनुसार लोगों का रोजगार छीन कर मशीनों का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। मशीनों को लेकर उनके इस दृष्टिकोण के पीछे ब्रिटेन में औद्योगीकरण के फलस्वरूप उत्पन्न बेरोजगारी और निर्धनता थी।
खादी और कुटीर उद्योग
भारत में व्याप्त गरीबी गांधी के लिए हृदयद्रावक था। उनका मानना था कि गरीबों के पास यदि काम नहीं होगा तो वे आलसी और अकर्मण्य हो जाएंगे। लम्बे समय तक यथास्थिति बने रहने के कारण आलस उनकी आदत बन जाएगी। जनता में फैली इस आलस रूपी बुराई को शीघ्र दूर करके गांधी जी उन्हें सक्रिय देखना चाहते थे। इस कारण हीं उन्होंने 'सूत कातने के चरखे' जैसे बेहद सस्ते उपाय को जनता में लोकप्रिय किया, जिससे उनका आलस्य भी दूर हो और उत्पादन भी हो। चरखे का सम्बन्ध खादी से है, जो हाथ से बुना कपड़ा होता है। यह भारत में आर्थिक स्वतंत्रता तथा राष्ट्र के सभी व्यक्तियों के बीच समानता का प्रतीक रहा है। खादी का उद्देश्य भारत के प्रत्येक गांव को वस्त्र के सम्बन्ध में पूर्णतया आत्मनिर्भर बनाना था। गांधी इसे विकेंद्रीकरण तथा देश की बहुसंख्य जनता के रोजगार और मानवतावाद के प्रतीक के रूप में देखते थे। वे चाहते थे कि देश के पढ़े-लिखे लोग न केवल आर्थिक कारणों से बल्कि गरीबों के सहानुभूति प्रकट करने के लिए भी सूत कातें और उससे बने खादी पहनें तथा विदेशी वस्त्रों का त्याग करें। गांधीजी ने इसे स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ा।
चरखे के माध्यम से गांधी जी कुटीर उद्योगों को फिर से गति प्रदान करना चाहते थे। उनका कहना था कि इससे देश के लाखों लोग उत्पादन कार्य में तो लगेंगे ही साथ ही उनकी आय में भी वृद्धि होगी। यह घर बैठे ही लाखों परिवारों की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता है। लेकिन यह तब तक के लिए है जब तक उसे अपेक्षाकृत अच्छा कार्य न मिल जाए ।
ट्रस्टीशिप या न्यासिता सिद्धांत
गांधी जी का ट्रस्टीशिप या न्यासिता सिद्धांत उपनिषदों और गीता पर आधारित है। इस सिद्धांत के अनुसार इस संसार में जो कुछ भी प्रकृति प्रदत्त या अर्जित रूप में उपलब्ध है, वह किसी व्यक्ति विशेष या समूह की निजी संपत्ति नहीं है। उनके अनुसार दो तरह के लोग हैं- एक तरफ तो धन के अभाव में रोजी-रोटी के मोहताज बेहद गरीब लोग हैं और दूसरी और आवश्यकता से अधिक धन रखने वाले अमीर लोग हैं। आवश्यकता से अधिक घन-संपत्ति बाले लोगों पर गांधी का ट्रस्टीशिप या न्यासिता सिद्धांत लागू होता है। अधिक धन चूंकि बुराई का भी स्रोत होता है, इसलिए धनवान लोगों को चाहिए कि वे अपने अधिशेष घन को निर्धनों में भी बांटे।
देश में उपलब्ध या उपार्जित धन का वितरण किस प्रकार हो, इस सम्बन्ध में गांधी ने जो सिद्धांत प्रस्तुत किया, उसे ही ट्रस्टीशिप (संरक्षकता) सिद्धांत कहा जाता है। गांधी का विश्वास था कि "सबै भूमि गोपाल " को। यहाँ 'गोपाल' का अभिप्राय सामान्य जन से है। गाँधी के अनुसार उपलब्ध सम्पत्ति पर सभी लोगों का अधिकार है, यदि किसी के पास कुछ है, जिसे वह स्वयं का मानता है तो वह सही नहीं है। वस्तुतः वह उस वस्तु या सम्पत्ति का मात्र 'ट्रस्टी' या संरक्षक मात्र है, मालिक नहीं। इस सिद्धांत के अनुसार बाप की सम्पत्ति पुत्र की नहीं है। आवश्यकता से अधिक धन-सम्पदा सचित कर रखने वालों को चाहिए कि ऐसी सम्पत्ति जनहित में धारण करें। ऐसी संपत्ति के संरक्षक के रूप में सरकार के साथ परामर्श करके उन्हें अपना उत्तराधिकारी मनोनीत करने का अधिकार है। लेकिन गांधी जी के अनुसार ट्रस्टी जनता के अतिरिक्त किसी अन्य को अपना उत्तराधिकारी नहीं बना सकता। इस प्रकार गांधीजी अनर्जित आय एवं उत्तराधिकार व्यवस्था के कारण फलने-फूलने वाली तथाकथित अमीरी को रोकने के लिए ट्रस्ट की संपत्ति पर राज्य का नियंत्रण स्थापित किए जाने का समर्थन करते थे।
प्रायः गांधी के ट्रस्टीशिप सिद्धांत को मार्क्सवाद से जोड़ कर देखा जाता रहा है। लेकिन गांधी और मार्क्स के विचारों में मूलभूत अंतर है। मार्क्स का चिंतन जहाँ वर्ग संघर्ष पर आधारित है, वहीं गांधी वर्ग संघर्ष की अनुमति नहीं देते। वर्ग संघर्ष के स्थान पर वे प्रेम और सद्भाव का मार्ग चुनते हैं। उनके अनुसार ट्रस्टी को स्वयं ही यह मानकर चलना चाहिए कि वह अपनी संपत्ति का स्वामी न होकर, संरक्षक मात्र है और जब कभी भी जरूरत पड़े, वह स्वेच्छा से ऐसी संपत्ति का वितरण समाज के हित के लिए कर दे। कार्ल मार्क्स 'व्यक्तिगत संपत्ति के अधिकार को पूरी तरह नकारते हुए, 'लाभ' के सिद्धांत को असमानता का मूल कारण मानता है। लेकिन गांधी 'व्यक्तिगत संपत्ति' के विरुद्ध नहीं हैं। लेकिन गाँधी के लिए व्यक्तिगत संपत्ति का मतलब शोषण करने वाले स्वामित्व से नहीं है।
स्वतंत्रता बनाम राजनीतिक स्वतंत्रता
गांधी के अनुसार स्वतंत्रता का अभिप्राय स्वच्छंदता से कदापि नहीं है। स्वतंत्रता तो मनुष्य को प्रकृति से प्राप्त ऐसा अधिकार है, जो नैतिकता के सिद्धांतों पर आधारित है। पहली जरूरत कर्त्तव्यों के निर्वहन की है। यह तभी संभव है, जब मनुष्य को अपनी दैवी तथा आत्मिक शक्तियों की अभिव्यक्ति का अवसर मिले। मानव निर्मित बंधन थोप दिए जाने पर व्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन होता है। वैसे तो गांधीजी की मूल चिंता आध्यात्मिक स्वतंत्रता की थी, जो कि बगैर राजनीतिक स्वतंत्रता के संभव नहीं है। इस प्रयास के तहत गांधी जी भारत के राजनैतिक स्वतंत्रता के आंदोलन में आजीवन संघर्षरत रहे। महादेव गोविंद रानाडे का भी कहना था कि राजनैतिक स्वतंत्रता के बिना सामाजिक सुधार संभव नहीं है। बाल गंगाधर तिलक ने कहा कि यदि देश के पास स्वशासन (यानी अपना शासन) नहीं है, तो ऐस में सामाजिक एकता की बात करना व्यर्थ है। लेकिन गांधी जी ने इन विचारों से भिन्नता रखते हुए राजनैतिक स्वतंत्रता और सामाजिक समानता, दोनों को एक ही सिक्के के दो पहलू मानते थे। दोनों एक-दूसरे से भिन्न होते हुए भी एक-दूसरे के पूरक हैं।
राजनैतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए सभी को अहिंसक आंदोलन तो करना चाहिए, लेकिन केवल राजनैतिक स्वतंत्रता ही व्यक्ति का लक्ष्य नहीं होना चाहिए। चूंकि हमें एक राष्ट्र बनाना है। इसलिए सामाजिक समानता की प्रक्रिया राजनीतिक स्वतंत्रता के हले से ही आरंभ हो जानी चाहिए। यही कारण है कि अंग्रेजी शासन के दौरान राजनीतिक स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध सत्याग्रह के साथ-साथ गांधी जी समाज सुधार के कार्यों में भी लगे रहते थे। मानव जीवन के अलग-अलग हिस्सों की समग्रता में उनका विश्वास था। इस संदर्भ में गांधी जी से मिली विरासत के चलते ही पंडित नेहरू स्वतंत्रता के बाद भी बार-बार यह कहते थे कि हमें राजनीतिक स्वतंत्रता मिल गयी है, लेकिन केवल वही पर्याप्त नहीं है।
गांधी जी के अनुसार आर्थिक सम्पन्नता का स्वतंत्रता से उतना सम्बन्ध नहीं है, जितना लोग मानते हैं। वे सादा जीवन उच्च विचार के सिद्धांत में विश्वास रखते थे। उनका यह भी मानना था कि आर्थिक समृद्धि से ज्यादा जरूरी यह है कि लोग थोड़ें में ही संतोषपूर्वक गुजारा करें। उनके अनुसार बहुत कम व्यक्ति को पराधीन बनाता है। बहुत अधिक सुविधा मिलने पर भी वह सुविधाओं की पराधीनता में जकड़ जाता है। गांधी का मानना था कि वही समाज स्वतंत्र है, जहाँ आर्थिक विषमता नहीं होती। यहाँ गाँधी का विचार साम्यवादी सिद्धांत की तरह (पर साम्यवादी नहीं) है।
शिक्षा और बुनियादी शिक्षा
गांधी जी शिक्षा को आत्म साक्षात्कार का जरिया मानते है। दोषपूर्ण या नकारात्मक शिक्षा देश में आदर्श व्यवस्था की सबसे बड़ी बाधा है। गांधी के शिक्षा सम्बन्धी विचार उस समय सामने आये, जब देश पर अंग्रेजी और पाश्चात्य शिक्षा व्यवस्था थोप दी गयी थी। दरअसल अंग्रेजों ने पाश्चात्य शिक्षा पर इसलिए बल दिया था, ताकि उन्हें ऐसा शिक्षित वर्ग उपलब्ध हो जाये, जिनसे उन्हें भारत का शासन करने में सहायता मिल सके और जो पश्चिमी सभ्यता से अभिभूत हो एवं उनके खिलाफ आवाज ना उठाये। गांधी जी इस व्यवस्था बेहद क्षुब्ध थे। यही कारण था कि उन्होंने 'बुनियादी शिक्षा की सिफारिश की थी।
गाँधी जी के बुनियादी शिक्षा के दो प्रमुख उद्देश्य - (1) शिक्षा को वास्तविक अर्थों में शिक्षित होने के लिए माध्यम बनाया जाये और (2) शिक्षा को आत्मनिर्भरता के सिद्धांत से जोड़ा जाये। गाँधी जी कोई बाद प्रतिपादित नहीं करना चाहते थे तथापि उनकी अपनी छ मान्यतायें भी है। एम एस पटेल ने लिखा है कि, गांधी जी के शिक्षा दर्शन का आधार प्रकृतिवादी है, उद्देश्य आदर्शवादी तथा विधि प्रयोजनवादी है।" (एजुकेशनल फिलॉसफी ऑफ महात्मा गांधी) रूसो की भाँति गांधी ने भी प्रकृति के माध्यम से सीखने की सलाह दी है। सत्य और सर्वोदय के सिद्धांतों पर आधारित होने के कारण इस शिक्षा का उद्देश्य आदर्शवादी तथा आत्मनिर्भरता का साधन होने के कारण यह शिक्षा प्रयोजनवादी है। गांधी की बुनियादी शिक्षा की कुछ प्रमुख विशेषतायें निम्नवत है:
गांधीजी के लिए शिक्षा का अर्थ मात्र साक्षर होना ही नहीं था, अपितु शिक्षा को वे मस्तिष्क, शरीर और आत्मा का चहुंमुखी विकास मानते थे। उनकी यह शिक्षा शिल्प पर आधारित थी, जिसमें रोजगार की गारंटी भी थी। शिल्प आधारित शिक्षा उनके अहिंसा सिद्धांत के अनुरूप भी थी। गांधी इस प्रकार की शिक्षा को मनुष्य के शोषण, स्वार्थ एवं अनाधिकार ग्रहण से बचाने का साधन मानते थे। शिल्प केंद्रित शिक्षा से ऐसे युग का सूत्रपात हो सकता है, जो वर्ग और सम्प्रदाय विषयक घृणा से मुक्त तथा शोषण रहित हो। शिल्प न केवल प्रत्येक श्रमिक की वैयक्तिकता बनाये रखेगा, बल्कि सहकारिता और मिलकर काम करने की भावना को भी बढ़ावा देगा। गांधी की बुनियादी पाठशाला की अवधारणा सीखने वाले की रोजमर्रा की समस्याओं से दूर कोई आदर्श स्थल नहीं, बल्कि एक ऐसी प्रयोगशाला थी, जहाँ बच्चे अपनी वर्तमान और भावी समस्याओं का समाधान कर सकते थे। यह स्वयं करके सीखने और सीखने के साथ अर्जन करने का माध्यम भी थी। यह हिंसा रहित जीवन का प्रयोग था।
गांधीजी के बुनियादी शिक्षा कार्यक्रम में पूर्व प्राथमिक, माध्यमिक और विश्वविद्यालय स्तर तथा प्रौढ़ शिक्षा को भी शामिल किया गया था, जिसे आजकल अनौपचारिक शिक्षा कहा जाता है। गांधीजी की इच्छा थी कि जहाँ कहीं भी बच्चा स्कूल आने में असमर्थ हो, वहाँ स्वयं विद्यालय बच्चे के करीब जाये। उनका 'अनौपचारिक' शब्द में विश्वास था। उनके अनुसार अनौपचारिक शिक्षा प्रणाली, औपचारिक शिक्षा पद्धति से अधिक प्रभावशाली है।
गांधी जी सह-शिक्षा के पक्षघर और स्कूली बच्चों को शारीरिक दंड देने के खिलाफ थे। वे बच्चों के लिए कम से कम पाठ्यपुस्तकों के साथ हल्के बस्ते के पक्षधर थे। बच्चों को मुक्त वातावरण में शिक्षा देने के पक्षधर होने के कारण ही वे शिक्षा को स्कूल कक्ष की चहारदीवारी से मुक्त करना चाहते थे। गांधीजी राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली के प्रबल पक्षघर तो थे ही, साथ ही, वे शिक्षा और संस्कृति के मामले में अंतर्राष्ट्रीयवादी भी थे। गाँधी जी अपने शिक्षा के सिद्धांत के द्वारा अपनी भारतीय पहचान के साथ विश्व की सभी संस्कृतियों की अच्छाइयाँ हासिल करना चाहते थे। उनके अनुसार, “ भारत मुझे विश्व की सभी देशों से प्यारा लगता है, इसलिए नहीं कि यह मेरा देश है, बल्कि इसलिए कि मैंने यहाँ महानतम अच्छाइयाँ खोजी हैं।
पं. जवाहरलाल नेहरू
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान सेनानी और स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू का जन्म 14 नवम्बर, 1889 को इलाहाबाद (आनंद भवन) में हुआ था। उनके पिता पं मोतीलाल नेहरू और माता स्वरूप रानी के वे एकमात्र पुत्र थे। घर पर सम्पन्न प्रारम्भिक शिक्षा के बाद 15 वर्ष की आयु में उन्हें इंग्लैंड के हैरा स्कूल भेजा गया। उसके बाद उन्होंने ट्रिनिटी कॉलेज में शिक्षा ग्रहण की। तत्पश्चात् कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय से रसायन शास्त्र, भूगर्भ विद्या और वनस्पति शास्त्र विषय लेकर स्नातक की उपाधि प्राप्त की। इसके बाद उन्होंने कानून की व्यावसायिक डिग्री प्राप्त की। छात्र जीवन के दौरान भी वे विदेशी हुकूमत के अधीन देशों के स्वतंत्रता संघर्ष में रुचि रखते थे। उन्होंने आयरलैंड में हुए सिनफेन आंदोलन में गहरी रुचि ली थी। उन्हें भारत के स्वतंत्रता संग्राम में अनिवार्य रूप से शामिल होना पड़ा।
1912 में वे बैरिस्टर बने और उसी वर्ष भारत लौटकर इलाहाबाद में वकालत आरंभ किया। लेकिन वकालत में मन न लगने के कारण वे भारतीय राजनीति में भाग लेने लगे। 1912 में हो उन्होंने बांकीपुर, पटना (बिहार) में होने वाले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया। 1916 ई. के लखनऊ अधिवेशन में वे सर्वप्रथम महात्मा गाँधी के सम्पर्क में आये, जिनसे वे काफी प्रेरित हुए। उसी वर्ष उन्होंने कुमारी कमला कौल में विवाह किया, जिनसे उन्हें एक पुत्री इन्दिरा (जो बाद में लम्बे समय तक भारत की प्रधानमंत्री रहीं) और एक पुत्र प्राप्त हुआ, जिसको शीघ्र ही मृत्यु हो गयी थी।
1920 में उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में पहले किसान मार्च का आयोजन किया। 1920-22 के असहयोग आंदोलन के सिलसिले में उन्हें दो बार जेल भी जाना पड़ा। पंडित नेहरू सितंबर 1923 में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव बने।
उन्होंने 1926 में इटली, स्विट्जरलैंड, इंग्लैंड, बेल्जियम, जर्मनी एवं रूस का दौरा किया। बेल्जियम में उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के एक आधिकारिक प्रतिनिधि के रूप में ब्रुसेल्स में दीन देशों के सम्मेलन में भाग लिया। उन्होंने 1927 में मास्को में अक्तूबर समाजवादी क्रांति की दसवीं वर्षगांठ समारोह में भाग लिया। इससे पहले 1926 में, मद्रास कांग्रेस में कांग्रेस को आजादी के लक्ष्य के लिए प्रतिबद्ध करने में नेहरू की एक महत्वपूर्ण भूमिका थी।
1928 में लखनऊ में साइमन कमीशन के खिलाफ एक जुलूस का नेतृत्व करते हुए उन पर लाठी चार्ज किया गया था। 29 अगस्त 1928 को उन्होंने सर्वदलीय सम्मेलन में भाग लिया एवं वे उनलोगों में से एक थे जिन्होंने भारतीय संवैधानिक सुधार की नेहरू रिपोर्ट पर अपने हस्ताक्षर किये थे। इस रिपोर्ट का नाम उनके पिता श्री मोतीलाल नेहरू के नाम पर रखा गया था। उसी वर्ष उन्होंने ‘भारतीय स्वतंत्रता लीग’ की स्थापना की एवं इसके महासचिव बने। इस लीग का मूल उद्देश्य भारत को ब्रिटिश साम्राज्य से पूर्णतः अलग करना था।
1929 में पंडित नेहरू भारतीय राष्ट्रीय सम्मेलन के लाहौर सत्र के अध्यक्ष चुने गए जिसका मुख्य लक्ष्य देश के लिए पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करना था। उन्हें 1930-35 के दौरान नमक सत्याग्रह एवं कांग्रेस के अन्य आंदोलनों के कारण कई बार जेल जाना पड़ा। उन्होंने 14 फ़रवरी 1935 को अल्मोड़ा जेल में अपनी ‘आत्मकथा’ का लेखन कार्य पूर्ण किया। रिहाई के बाद वे अपनी बीमार पत्नी को देखने के लिए स्विट्जरलैंड गए एवं उन्होंने फरवरी-मार्च, 1936 में लंदन का दौरा किया। उन्होंने जुलाई 1938 में स्पेन का भी दौरा किया जब वहां गृह युद्ध चल रहा था। द्वितीय विश्व युद्ध शुरू होने से कुछ समय पहले वे चीन के दौरे पर भी गए।
पंडित नेहरू ने भारत को युद्ध में भाग लेने के लिए मजबूर करने का विरोध करते हुए व्यक्तिगत सत्याग्रह किया, जिसके कारण 31 अक्टूबर 1940 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें दिसंबर 1941 में अन्य नेताओं के साथ जेल से मुक्त कर दिया गया। 7 अगस्त 1942 को मुंबई में हुई अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक में पंडित नेहरू ने ऐतिहासिक संकल्प ‘भारत छोड़ो’ को कार्यान्वित करने का लक्ष्य निर्धारित किया। 8 अगस्त 1942 को उन्हें अन्य नेताओं के साथ गिरफ्तार कर अहमदनगर किला ले जाया गया। यह अंतिम मौका था जब उन्हें जेल जाना पड़ा एवं इसी बार उन्हें सबसे लंबे समय तक जेल में समय बिताना पड़ा। अपने पूर्ण जीवन में वे नौ बार जेल गए। जनवरी 1945 में अपनी रिहाई के बाद उन्होंने राजद्रोह का आरोप झेल रहे आईएनए के अधिकारियों एवं व्यक्तियों का कानूनी बचाव किया। मार्च 1946 में पंडित नेहरू ने दक्षिण-पूर्व एशिया का दौरा किया। 6 जुलाई 1946 को वे चौथी बार कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए एवं फिर 1951 से 1954 तक तीन और बार वे इस पद के लिए चुने गए।
राजनीति के साथ साथ वे एक ख्यातिप्राप्त लेखक भी थे। 1936 ई० में प्रकाशित उनकी आत्मकथा को समूचे विश्व में आदर मिला। 'इंडिया एंड द वर्ल्ड', 'सोवियत रसिया', ग्लिम्पसेज ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री', 'यूनिटी ऑफ इंडिया' तथा 'इनडिपेन्डेंस एंड आफ्टर' उनकी प्रमुख कृतियां हैं, इनमें से अंतिम दो पुस्तकें उनके फुटकर लेखों तथा भाषणों के संग्रह हैं।
पं. नेहरू के विचार
जवाहरलाल नेहरू स्वप्न द्रष्टा थे। नेहरू का चिन्तन काफी हद तक व्यावहारिक था। उन्हें प्रायः ऐसा महसूस होता था कि अति आध्यात्मिकता, मनुष्य के यथार्थबोध को कम कर देती है। उनके इस दृष्टिकोण के कारण कभी-कभी धार्मिक वृत्ति के लोगों को यहाँ तक महसूस होने लगता था कि कहीं नेहरू अनीश्वरवादी या भौतिकवाद के समर्थक तो नहीं हैं।
भारतीय संस्कृति के अंधविश्वासों और कर्मकांडों पर वे कड़ा प्रहार करते थे। वे धर्म और सम्प्रदायों से जुड़ी मान्यताओं का भी खंडन करते रहते थे। लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि नेहरू को अभारतीय मान लिया जाये। वे रूढ़िवादिता को भारत की प्रगति में सबसे बड़ी बाधा मानते थे। उनका कहना था कि अप्रासंगिक हो चुकी परम्पराओं को हमें बेदर्दी से उखाड़ फेंकना चाहिए, लेकिन जो परम्परायें हमें आगे का रास्ता दिखाने में मदद करें, उन्हें संजो कर रखना चाहिए। नेहरू की दृष्टि वैज्ञानिक और तार्किक थी। उनका कहना था कि बिना तर्क और तकनीक के हम न तो आर्थिक क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर सकते हैं, न सामाजिक क्षेत्र में। नेहरू की इस दृष्टि के फलस्वरूप ही भारत स्वतंत्रता के पश्चात् आधुनिकता की तरफ तेजी से कदम बढ़ा सका। कुछ प्रमुख मुद्दों पर नेहरू के विचार इस प्रकार हैं:
गुटनिरपेक्षता का सिद्धांत
विश्व के राज्यों में से किसी भी गुट में शामिल न होकर अपनी भूमिका का निर्धारण अपनी मान्यताओं और मूल्यों पर करना ही 'गुटनिरपेक्षता है। 'गुटनिरपेक्षता,' दो शब्दों 'गुट' और 'निरपेक्ष' (यानी अलग रहना) से मिलकर बना है। नेहरू के समय में विश्व दो गुटों में बंटा था- एक पूँजीवादी और दूसरा साम्यवादी। इसके कारण उस समय शीत युद्ध (Cold War) का दौर चल रहा था और किसी गुट विशेष में शामिल होने का मतलब होता शीत युद्ध और संघर्ष में तेजी लाना।
एक गरीब देश होने के कारण भारत अपने को युद्धों में झोंककर अपना अस्तित्व नहीं मिटा सकता था। हमारी उन्नति इसमें थी कि हम शीत युद्ध की छाया से अपने को बचाते हुए दोनों गुटों से बिना किसी द्वेष के सहायता प्राप्त कर सकें। गुटनिरपेक्ष नीति पर चलते हुए नेहरू ने यह घोषित किया कि हम सभी राष्ट्रों के मित्र हैं। लेकिन गुटनिरपेक्षता का अर्थ आक्रमण की स्थिति में निष्क्रिय पड़े रहना नहीं है। ऐसे अवसर पर हम अपनी रक्षा का पूरा प्रयास करेंगे और यदि जरूरत हुई तो मित्र देशों से भी सहायता लेंगे। लेकिन शीत युद्ध को बरकरार रखने के लिए हम किसी गुट में शामिल नहीं होंगे।
गुटनिरपेक्षता का सिद्धांत राष्ट्रीय स्वाधीनता का सिद्धांत है। किसी भी गुट में शामिल होने का अर्थ है-अपना विकास अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं, बल्कि दूसरे के निहित स्वार्थों के अनुरूप होने देना। ऐसी स्थिति में कोई भी देश पूरी तरह एक स्वाधीन देश कैसे कहा जा सकता है। गुट में शामिल होकर हम अपने देश के हित में स्वतंत्रतापूर्वक निर्णय भी नहीं ले सकते। अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप कार्य करें,करे की स्वतंत्रता ही आत्म निर्णय की स्थिति है। स्वतंत्रता के उपरांत भारत की ठोस प्रगति के लिए नेहरू ने गुटनिरपेक्ष नीति का अनुसरण किया।
स्वतंत्र भारत के समक्ष जो समस्यायें थीं, उसका निदान साम्यवाद या पूँजीवाद से संभव नहीं था। भारत को लोकतांत्रिक समाजवादी राष्ट्र बनाने के लिए नेहरू ने गुटनिरपेक्षता की नीति का पालन किया। इसलिए भारत के संदर्भ में गुटनिरपेक्षता के सिद्धांत को महज तटस्थता का ही सिद्धांत नहीं मानना चाहिए। इस नीति पर चलते हुए नेहरू ने 1954 में भारत-चीन समझौते के अवसर पर 'पंचशील' सिद्धांत की परिकल्पना की। ये पंचशील अर्थात् पाँच सिद्धांत निम्न थे:
1. एक-दूसरे के ऊपर आक्रमण नहीं करना,
2. समानता के आधार पर एक-दूसरे की सहायता करना,
3. शांतिपूर्ण सह-अस्तित्त्व,
4. एक-दूसरे के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करना, तथा
5. एक-दूसरे की स्वतंत्रता और अखंडता का सम्मान करना।
ये पाँचों सिद्धांत शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को भावना पर आधारित थे। इस समझौते को नेहरू की विशेष उपलब्धि माना गया। पंचशील के सिद्धांत पर आधारित जो समझौता नेहरू ने किया. था, वह उनके द्वारा अंतर्राष्ट्रीयवाद की ओर बढ़ाया गया एक कदम था। नेहरू की हार्दिक इच्छा यह थी कि युद्धों को हर संभव कोशिश करके टाला जाये, विश्व के सभी राष्ट्र एक-दूसरे की भावनाओं को समझने की कोशिश करें और समस्त विश्व शांतिपूर्ण तरीके से एक हो जाये। उनकी इसी सोच का नतीजा निर्गुट आंदोलन के रूप में सामने आया।
कल्याणकारी राज्य की अवधारणा
कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के तहत नेहरू आर्थिक सिद्धान्तों का इस्तेमाल समानता के उद्देश्य को पाने के लिए करना चाहते थे। इस अवधारणा के मुताबिक राज्य द्वारा जन कल्याण अर्थात् जनता की भलाई के कार्य लिए किये जाये।
लोकतांत्रिक समाजवादी राज्य का लक्ष्य जनता को उन्नति होता है, न कि पूँजीवादी राज्य व्यवस्था की तरह लाभ कमाना। नेहरू का यह विचार था कि यदि किसी आर्थिक योजना के संचालन से आर्थिक लाभ की बजाय हानि भी उठानी पड़े, तो ऐसा करने में कोई हर्ज नहीं है। शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता, पर्यावरण इत्यादि से सम्बन्धित कार्यक्रमों से आर्थिक लाभ नहीं मिलाता है फिर भी इन कार्यक्रमों पर अमल जारी रखना चाहिए।
लोक कल्याणकारी देश के सभी नागरिकों को वे सभी सुविधायें मिलनी चाहिए, जिन पर एक अच्छे सुसंस्कृत जीवन की संभावनायें निर्भर हो। सरकार का यह कर्त्तव्य है कि वह लोगों में ऐसी जागृति उत्पन्न करे, जिससे कि वे समझ सकें कि राज्य के समस्त क्रिया-कलाप उनके हित के लिए चलाये जा रहे हैं। ऐसी स्थति में नागरिक भी उन कार्यक्रमों के साथ पूरा-पूरा सहयोग करेंगे।
राष्ट्रीयतावाद और अंतर्राष्ट्रीयतावाद
एक विश्व समुदाय नेहरू का स्वप्न था। वे जाति, सम्प्रदाय और धर्म पर आधारित संकीर्णताओं से ऊपर उठकर एक ऐसे राष्ट्र का निर्माण करना चाहते थे, जिसका स्वरूप अंतर्राष्ट्रीय हो। नेहरू का समाजवादी दृष्टिकोण, उनकी गुट-निरपेक्षता की नीति, उनके द्वारा निरूपित आर्थिक व्यवस्था आदि सभी राजनीतिक सिद्धांत समानता और अंतर्राष्ट्रीयता की भावना से ओत प्रोत रहे हैं। वे सामाजिक समानता के कट्टर समर्थक होने के नाते भारतीय समाज में व्याप्त जातिगत संकीर्णताओं के बंधन को पूरी तरह काट देना चाहते थे। वे जानते थे कि इन संकीणताओं के पीछे वे सामाजिक और आर्थिक व्यवस्थायें हैं जो आधुनिक विश्व के संदर्भ में निरर्थक साबित हो चुकी हैं। नेहरू वर्ण व्यवस्था के भी प्रखर विरोधी थे।
नेहरू अंतर्राष्ट्रीयता के क्षेत्र में शांति के कट्टर पक्षधर थे। विश्व शांति से सम्बन्धित कार्यों में उनकी दो महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ हैं- एक गुटनिरपेक्षता की नीति और दूसरा पंचशील का सिद्धांत। नेहरू गांधीजी के इस विचार से कतई सहमत नहीं थे कि भारत को पश्चिमी सभ्यता की आवश्यकता नहीं है। वे भारत की कल्पना बिना अंतर्राष्ट्रीयतावाद के कर ही नहीं सकते थे। उनका मानना था कि आधुनिक युग में विज्ञान ने जो परिवर्तन किए हैं, उनके कारण भारत अब सिमटा, सिकुड़ा अकेले में नहीं जी सकता। अंतर्राष्ट्रीयता के मार्ग पर अग्रसर होने के लिए एक मात्र उपाय यही है कि हम अपने अतीत से सबक लें।
लोकतांत्रिक समाजवाद
नेहरू की भारत को सबसे बड़ी देन उनका लोकतांत्रिक समाजवाद का सिद्धांत माना जा सकता है। वे इस सिद्धांत को भारत ही नहीं, अपितु समूचे विश्व के संदर्भ में देखते थे। नेहरू के पहले तक यह समझा जाता था कि लोकतंत्र में समाजवाद (विशेषकर साम्यवादी समाजवाद) संभव नहीं है।
साम्यवादी समाजवाद में व्यक्ति की अपेक्षा राज्य को अधिक महत्त्व प्राप्त होता है। लेकिन नेहरू व्यक्ति की गरिमा में काफी निष्ठा रखते थे समानता के भी वे समर्थक थे। वे न तो व्यक्तिवादी दृष्टिकोण का त्याग करना चाहते थे और न हो साम्यवादी समाजवाद का। इसलिए उन्होंने अपनी दूरदर्शी सोच से एक नयी राजनीतिक व्यवस्था को परिकल्पना की।
नेहरु को गाँधी और मार्क्स दोनों ने ही प्रभावित किया था। यही कारण है कि उन्होंने दोनों के बीच का मार्ग निकाला। उनकी मौलिकता उक्त दोनों विचारकों के सिद्धांतों में समन्वय स्थापित करने भर ही नहीं है। उनकी मौलिकता इस बात में है कि उन्होंने इस नयी पद्धति को एक जीवन पद्धति के रूप में स्वीकार किया और उसे व्यावहारिक स्वरूप प्रदान किया। नेहरू ने जिस समाजवादी समाज की स्थापना की, उसे अपनी आर्थिक नीतियों में भी ढाला और उसी के अनुरूप राजनीतिक व्यवस्था भी बनायी।
आर्थिक विचार
नेहरू एक समाजवादी समाज की स्थापना करना चाहते थे। समाजवाद के आर्थिक पहलू को साकार किये बिना यह संभव नहीं था। नेहरू गरीबी और असमानता को भारत में व्याप्त सभी समस्याओं का कारण मानते थे। यहां एक तरफ तो अमीरी की ऊंची दीवार खड़ी है तो दूसरी तरफ गरीबी की गहरी खाई है। इस विषमता को जब तक पूरी तरह नष्ट नहीं किया जायेगा, तब तक समानता या राष्ट्रीय एकता की बात करना अनौचित्यपूर्ण है।
नेहरू ने अपने लोकतांत्रिक समाजवाद की स्थापना के लिए एक मिश्रित अर्थव्यवस्था के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। साम्यवादी विचारों के समर्थक होते हुए भी साम्यवादी व्यवस्था की तरह के अर्थव्यवस्था के पूरी तरह राष्ट्रीयकरण के पक्ष में नहीं थे। लेकिन ये अर्थव्यवस्था को पूर्णत: पूंजीपतियों के हाथ में छोड़ देने के पक्ष में भी नहीं थे। उन्हें देश को आर्थिक अव्यवस्था तथा अंग्रेजों के दो सौ साल के शोषण की पूरी जानकारी थी।
नेहरू, गाँधी जी के न्यासिता सिद्धांत को अव्यावहारिक मानते थे। उनके मतानुसार भारत के लिए वही अर्थव्यवस्था उपयुक्त होगी, जो न तो पूरी तरह पूँजीवादी सिद्धांतों पर आधारित हो और न ही पूर्णतः साम्यवादी सिद्धांतों पर। भारत के तमाम अर्थशास्त्रियों की सलाह लेकर नेहरू ने भारत में दो तरह की अर्थव्यवस्था लागू की पहला राष्ट्रीयकरण के अन्तर्गत आने वाले सरकारी सार्वजनिक संस्थान (Public Sector) और दूसरा निजी क्षेत्र (Private Sector)। नेहरू द्वारा प्रतिपादित इसी व्यवस्था को मिश्रित अर्थव्यवस्था (Mixed Economy) का नाम दिया गया है।
नेहरू ने भारत के लिए मिश्रित अर्थव्यवस्था की नीति अपनायी। दरअसल भारत में पिछले काफी समय से पूँजो कुछ ही लोगों के हाथ में सीमित होकर रह गयी थी। नेहरू ने सोचा कि यदि इस वर्ग को कुछ सुविधा उपलब्ध करा दी जायें और पूँजी निवेश से लाभ कमाने दिया जाये, तो वे न केवल उत्पादन बढ़ाने में रुचि लेंगे, अपितु वे राष्ट्र को सम्पन्नता की ओर भी ले जा सकते हैं। दूसरी ओर उन्होंने यह भी सोचा कि सरकार के पास इतना धन नहीं है कि वह हर उद्योग को अपने बलबूते पर चला सके। इसके साथ ही उन्हें यह भी ध्यान में था कि स्वतंत्रता के तुरंत बाद ही सरकार लाभ कमाने की नीति पर नहीं चल सकती। इसलिए देश की तत्कालीन स्थिति को देखते हुए यही उचित समझा गया कि कुछ महत्त्वपूर्ण उद्योग तो सार्वजनिक क्षेत्रों तक ही सीमित रखे जायें और शेष को निजी हाथों में सौंप कर दोनों क्षेत्रों को समान रूप से कार्य करने दिया जाये।
पूँजीपतियों के पास संचित धन को यदि सरकार उस समय अपने हाथ में ले लेती, तो इसके अनेक दुष्परिणाम सामने आ सकते थे। सरकारी क्षेत्र में पूरी तरह उत्पादन क्षमता हासिल करने के लिए लम्बे समय की जरूरत होती है। लेकिन भारत जैसे निर्धन और विकासशील देश के आर्थिक विकास के लिए इतना लंबा समय उपलब्ध नहीं था। इसलिए कुछ बड़े उद्योगों को, जो भारत की रक्षा तथा विकास से सम्बन्धित थे, उनको सार्वजनिक क्षेत्र के अंतर्गत ले लिया गया तथा बाकी उद्योगों को निजी क्षेत्र में ही रहने दिया गया। निजी क्षेत्र को स्वच्छंद नहीं छोड़ा गया। उनके नियमन के लिए सरकार द्वारा लाइसेंस का प्रावधान, न्यूनतम वेतन निर्धारण, काम की निश्चित अवधि के सम्बन्ध में कानून बनाये गये। सरकार में इस बात का बराबर ध्यान रखा कि पूँजीपतियों की लाभ कमाने की प्रवृत्ति में शोषण करने का अवसर न आने पाये।
औद्योगीकरण और कुटीर उद्योग
नेहरू, गांधी के उस मत के समर्थक नहीं थे कि भारत को बड़े उद्योगों तथा मशीनों की आवश्यकता नहीं है। उनका विश्वास था कि जब तक भारत का बड़े पैमाने पर औद्योगिकीकरण नहीं होगा, तब तक भारत विश्व के बड़े राष्ट्रों के सम्मुख खड़ा नहीं हो सकता। उनकी आस्था थी कि उद्योगों का लाभ किसी क्षेत्र विशेष को न मिलकर समस्त क्षेत्र को मिलना चाहिए। इस उद्देश्य की पूर्ति छोटे उद्योग कदापि नहीं कर सकते। इसके लिए यह आवश्यक है कि बड़े उद्योगों की संख्या को धीरे-धीरे बढ़ाया जाये, ताकि देश की आर्थिक स्थिति उसी सीमा में पहुंच जाये, जहाँ औद्योगिक क्रांति के बाद यूरोपीय देश पहुँच चुके हैं।
इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि नेहरू लघु कुटीर उद्योगों के विरोधी थे। वे इतना अवश्य मानते थे कि कुटीर उद्योगों से रोजी-रोटी की समस्या भले ही किसी हद तक सुलझ जाये, लेकिन मात्र इससे भारत विकसित देशों की श्रेणी में कतई नहीं आ सकता। वे बराबर कहते थे कि भारत को बड़े उद्योगों के साथ-साथ छोटे कुटीर उद्योगों को भी आवश्यकता है। उनका अटल विश्वास था कि वगैर औद्योगिक उन्नति के भारत जैसे विशाल देश की समस्याओं का निराकरण नहीं हो सकता।
आर्थिक नियोजन
नेहरू समयबद्ध आर्थिक योजनाओं के समर्थक थे। उनके अनुसार अव्यवस्थित तरीके से देश को आर्थिक उन्नति संभव नहीं हो सकती। उन्नति के लिए एक निश्चित कार्यक्रम होना चाहिए और इसके माध्यम से दो विशेष पहलुओं पर ध्यान देना चाहिए-
नेहरू यह अच्छी तरह जानते थे कि अमेरिका जैसे उद्योग प्रधान देश की सफलता का मुख्य कारण समुचित नियोजन प्रक्रिया ही है। रूस (पूर्व सोवियत संघ) के व्यक्तिगत अनुभव से उनकी इस भावना को अधिक बल मिला था। उन्होंने देखा कि किस तरह रूस एक साधारण कृषि प्रधान देश से आगे बढ़कर शीघ्र ही एक उद्योग प्रधान देश बन गया। संभवतः सर्वप्रथम 1938 में उनके दिमाग में आर्थिक नियोजन की बात आयी। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत 1950 में उन्होंने पहली बार योजना आयोग का गठन किया, जिसका उद्देश्य देश का नियोजित आर्थिक विकास करना था। तब से पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से देश का तीव्र औद्योगिक विकास संभव हो सका है।
धर्मनिरपेक्षता सिद्धांत
आलोचक नेहरू को अधार्मिक व्यक्ति मानते हैं, लेकिन नेहरू न तो अधार्मिक थे और न ही किसी धर्म के निन्दक। लेकिन धर्म के नाम पर किए जाने वाले प्रदर्शन को वे बिल्कुल पसंद नहीं करते थे। वे व्यक्ति के जीवन में धर्म द्वारा निभायी जाने वाली भूमिका का अवमूल्यन नहीं करते थे। विज्ञान तथा तकनीक में अट्टू विश्वास होने के बावजूद उन्होंने इस बात की जिंद नहीं की कि सब कुछ मनुष्य को पहुँच में है।
नेहरू ने नैतिक मूल्यों का सदा आदर किया, लेकिन वे धर्म या सम्प्रदाय के आधार पर किसी प्रकार का समझौता करने में विश्वास नहीं करते थे। वे धर्म निरपेक्षता के कट्टर समर्थक थे। उनका विचार था कि राष्ट्र की स्थापना, धर्म के आधार पर नहीं की जा सकती। यही कारण है कि उन्होंने भारत का स्वरूप धर्म-निरपेक्ष बनाने पर विशेष बल दिया। उन्होंने धर्म निरपेक्षता की व्याख्या भारतीय संविधान के ही अनुरूप की है। उन्होंने कहा कि धर्म निरपेक्षता का मतलब अधर्म की स्थापना करना नहीं है। उनके अनुसार देश या सरकार का यह कर्तव्य है कि वह सभी धर्मों का आदर करे, क्योंकि उसका अपना कोई धर्म नहीं होना चाहिए।
रवीन्द्रनाथ टैगोर (ठाकुर)
रवीन्द्रनाथ टैगोर (ठाकुर) आधुनिक काल के सबसे महान भारतीय कवि थे। वे राजा राममोहन राय के बाद 'ब्रह्म समाज' को नयी दिशा देनेबाले श्री देवेन्द्रनाथ ठाकुर के पुत्र थे। रवीन्द्रनाथ का जन्म 7 मई, 1861 को कलकत्ता में गंगा के तट पर स्थित एक स्थान जोरास्को में हुआ था। उनकी माता का नाम शारदा देवी था। उनके पूर्वज खुलना, बांग्ला देश के अपने मूल स्थान से कलकत्ता के निकट गोविन्दपुर में आकर बस गये थे, जो मूलतः मछुआरों की बस्ती थी। अपने बीच एक ब्राह्मण को पाकर स्थानीय लोगों ने उन्हें 'ठाकुर' यानी 'ईश्वर' कहना शुरू कर दिया। इसी सम्बोधन का अपभ्रंश कालांतर में 'टैगोर ' बन गया, जिसका प्रयोग अंग्रेजों ने किया।
रवीन्द्रनाथ ने बाल्यकाल में ही कविता लिखना आरम्भ कर दिया था। 1882 में प्रकाशित उनके गीत संग्रह 'संध्या संगीत' से प्रख्यात बंगला कथाकार एवं हमारे राष्ट्रगीत के रचयिता बंकिमचंद्र चटर्जी अत्यधिक प्रभावित हुए। रवीन्द्रनाथ टैगोर बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। वे केवल कवि ही नहीं, वरन् उपन्यासकार, नाटककार तथा निबंधकार भी थे। कालान्तर में वे चित्रकार के रूप में भी प्रसिद्ध हो गये। उन्होंने अपने काव्य में विभिन्न प्रकार के प्रयोग किए। उनकी कविता सहज ही हृदय को झंकृत कर देती है। उनके बंगला गीतों का संग्रह 1910 'गीतांजलि' के नाम से प्रकाशित हुआ।
1912 में उन्होंने स्वयं ही 'गीतांजलि' का अंग्रेजी में अनुवाद किया और उसी वर्ष उसे लेकर लंदन गये। वहाँ प्रख्यात चित्रकार विलियन रोथेन्स्टाइन' से उन्होंने भेंट की। जिन्होंने 7 जुलाई, 1912 को अपने घर गीताजलि का पाठ डब्ल्यू बी. येट्स से कराया। इस अवसर पर हेनरी नेविन्सन, अमेरिकी कवि एजरापाउंड, और भारत में 'दीनबंधु' के नाम से लोकप्रिय सी०एफ० एंड्रयूज भी उपस्थित थे। इस कार्यक्रम की सफलता और गीतांजलि को मिली सराहना के बाद रवीन्द्रनाथ युग के महानतम कवि मान लिए गये। इसी कृति के लिए नवम्बर 1913 में उन्हें साहित्य का नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया। यह समस्त भारतीयों के लिए खुशी का पल था। स्वतंत्र भारत का राष्ट्रीय गान 'जन-गण-मन इसी 'गीतांजलि' नामक संग्रह से लिया गया है।
1913 में कलकत्ता विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.लिट् की सम्मानित उपाधि से विभूषित करक स्वयं को गौरवान्वित किया। उन्हीं के सुझाव पर कलकत्ता विश्वविद्यालय ने बंगला भाषा की वर्तनी शुद्ध करके उसे अपनी सबसे ऊँची डिग्री परीक्षाओं के पाठ्यक्रम में शामिल किया। 1913 में ही ब्रिटिश सरकार ने उन्हें 'सर' की उपाधि प्रदान की। संसार के सभी भागों से उन्हें सम्मान प्राप्त हुआ और पराधीनता के युग में भी भारत का सिर ऊँचा उठा दिया। उन्होंने एक 'आध्यात्मिक राजदूत' के रूप में यूरोप, अमेरिका और एशिया के देशों का विस्तृत भ्रमण किया और सभी देशों में भारत को कीर्ति पताका फहरायी।
उन्होंने लोकशिक्षा, लोकगीत, लोकनृत्य, लोक कला, शिल्पकला तथा सहकारिता आंदोलन को भी पर्याप्त प्रोत्साहन प्रदान किया। रवीन्द्र नाथ ने संगीत की एक नई शैली 'रवीन्द्र संगीत को जन्म दिया और परम्परागत भारतीय नृत्यों के संरक्षक के रूप में नृत्य की एक नई शैलो भी प्रस्तुत की। मानव संस्कृति तथा शिक्षा के विकास में रवीन्द्रनाथ टैगोर का सबसे बड़ा योगदान 1901 में उनके द्वारा शांतिनिकेतन में 'विश्वभारती स्कूल' को स्थापना था, जिसे 22 दिसम्बर, 1921 को एक विश्वविद्यालय का स्वरूप दे दिया गया। इस संस्था की स्थापना के लिए उन्होंने तत्कालीन सरकार से किसी प्रकार की आर्थिक सहायता नहीं ली और लगभग पचास वर्ष तक उसे अपनी पुस्तकों से होने वाली आय एवं अपनी पैतृक सम्पत्ति से चलाते रहे।
रवीन्द्रनाथ टैगोर उच्च कोटि के कवि होने के साथ ऊंचे देशभक्त भी थे। उन्होंने 'स्वदेशी' आन्दोलन में भी भाग लिया। उनकी राष्ट्रभक्ति संकीर्णता पर नहीं, अपितु उदार अंतर्राष्ट्रीयतावाद पर आधारित थी। इसीलिए उन्होंने विदेशी वस्त्रों की होली जलाने के आंदोलन का समर्थन किया। ये भी गाँधी जी की तरह स्वदेशी उद्योगों को बढ़ावा देने के समर्थक थे। उन्होंने ग्राम सुधार के कार्यों के लिए शांतिनिकेतन के निकट 'श्रीनिकेतन' की स्थापना की। वे उग्र राजनीतिक आंदोलनों से प्रायः अपने को पृथक् रखते थे। लेकिन जब कभी साम्राज्यवादी अंग्रेजी सरकार देशवासियों पर अत्याचार करती थी तो उसके विरुद्ध आवाज उठाने में ये भयभीत नहीं होते थे। 13 अप्रैल, 1919 को अमृतसर के जलियांवाला बाग में स्त्रियों, बच्चों और पुरुषों की सभा पर अंधाधुंध गोली चलाकर किए गये हत्याकांड से क्षुब्ध रवीन्द्रनाथ टैगोर ने ब्रिटिश सरकार द्वारा प्रदत्त 'सर' की उपाधि को लौटा दिया। उनका यह कार्य भारत में ब्रिटिश शासन की सबसे कठोर भर्त्सना था।
रवीन्द्रनाथ भारतीय संस्कृति के सच्चे वाहक थे। बीमारी की अवस्था में 7 अगस्त, 1941 को कलकत्ता में उनका देहावसान हो गया। आज भी उनकी रचनायें हमें उनकी उपस्थिति का बोध सदैव कराती रहती है। उनकी मृत्यु के बाद विश्वभारती का संचालन भारत सरकार द्वारा किया जाने लगा और उसे केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा दे दिया गया। रवीन्द्रनाथ टैगोर को भारत के राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी भी अपना मार्गदर्शक मानते थे और श्रद्धा से उन्हें 'गुरुदेव' कह कर पुकारते थे।
रवींद्रनाथ टैगोर (ठाकुर) |
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नाटक |
उन्होंने बीस साल की उम्र में वाल्मीकि प्रतिभा नाटक लिखी। 1890 में उन्होंने विसर्जन लिखा, जिसे उनका सर्वश्रेष्ठ नाटक माना गया। बाद में, टैगोर के नाटकों में अधिक दार्शनिक और अलंकारिक विषयों का उपयोग किया गया। उनके अन्य नाटक हैं - डाक घर, एक चांडालिका , चित्रांगदा व श्यामा। ये अन्य प्रमुख नाटक हैं जिनमें नृत्य-नाटक रूपांतर हैं, जिन्हें एक साथ रवीन्द्र नृत्य नाट्य के रूप में जाना जाता है। |
लघु कथाएँ
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टैगोर ने 1877 में सोलह वर्ष की आयु में अपनी पहली लघु कथा "भिखारिनी" लिखी। टैगोर ने ही बंगाली भाषा की लघु कहानी शैली का आविष्कार किया। 1891 से 1895 तक के चार वर्षों के बंगली साहित्य को "साधना" अवधि (टैगोर की पत्रिकाओं में से एक के नाम पर) के रूप में जाना जाता है। उनकी आधी से अधिक कहानियाँ तीन-खंडो में प्रकाशित गल्पगुच्छ में समाहित हैं। विशेष रूप से, "काबुलीवाला" (1892 में प्रकाशित), "खुदिता पाशान" (अगस्त 1895), और "अतिथि" (1895) जैसी कहानियाँ दलितों, बंचितों पर केन्द्रित होने के कारण विशिष्ट हैं। |
उपन्यास |
टैगोर के प्रमुख उपन्यास हैं –गोरा, घरे बाईरे, चोखेरबाली, योगायोग चतुरंगा। |
कविता
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अंतरराष्ट्रीय स्तर पर, गीतांजलि टैगोर का सबसे प्रसिद्ध कविता संग्रह है, जिसके लिए उन्हें 1913 में साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। टैगोर साहित्य में नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले पहले गैर-यूरोपीय और थिओडोर रूजवेल्ट के बाद नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले दूसरे गैर-यूरोपीय थे। अन्य उल्लेखनीय कार्यों में शामिल हैं- मानसी, सोनार तोरी, बलाका आदि। |
रवींद्र संगीत
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टैगोर ने लगभग 2,230 गीतों की रचना की। रवींद्र संगीत बाँग्ला संस्कृति का अभिन्न अंग है। टैगोर के संगीत को उनके साहित्य से अलग नहीं किया जा सकता। उनकी अधिकतर रचनाएँ तो अब उनके गीतों में शामिल हो चुकी हैं। हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की ध्रुवपद शैली से प्रभावित ये गीत मानवीय भावनाओं के अलग-अलग रंग प्रस्तुत करते हैं। टैगोर ने दो देशों के लिए राष्ट्रगान लिखा। जन गण मन पहली बार 1911 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में गाया गया था। आमार सोनार बांग्ला बंगाल विभाजन के समय से है। |
कला कृतियाँ
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साठ साल की उम्र में टैगोर ने ड्राइंग और पेंटिंग शुरू की, जिसकी सफल प्रदर्शनियां पूरे यूरोप में आयोजित की गईं। पेंटिंग्स ने ऑफ-बीट सौंदर्यशास्त्र का प्रदर्शन किया। टैगोर कई विदेशी शैलियों से प्रभावित थे। टैगोर के कुछ गीत विशेष छवियों के साथ लयबद्ध अर्थ में मेल खाते हैं। |
रवीन्द्रनाथ टैगोर के विचार
रवीन्द्रनाथ टैगोर शास्त्रीय अर्थ में न तो समाज सुधारक थे, न अर्थशास्त्री और न ही राजनीतिज्ञ इसके बावजूद भी वे सब कुछ थे। जीवन के प्राय: सभी क्षेत्रों में उनकी उपलब्धियां थी। उनकी समग्र दृष्टि उन्हें भारत के समन्वयवादी सांस्कृतिक परम्परा का अग्रदूत बना देती है।
अंतर्राष्ट्रीयतावाद और मानवतावाद
रवीन्द्रनाथ का दृष्टिकोण मानवतावादी था। उनका मूल अवधारणा अंतर्राष्ट्रीयतावाद था। उनके अंतर्राष्ट्रीयतावाद को आध्यात्मिक मानववाद कहा जा सकता है। टैगोर प्रत्येक व्यक्ति को राष्ट्र के से परे विश्व नागरिक मानते थे। उनके अनुसार मनुष्य का मनुष्य होना ही पहली आवश्यकता है। यही कारण है कि इनके कवि हृदय ने किसी भी प्रकार की संकीर्णता को प्रश्रय नहीं दिया। चूँकि सभी मनुष्यों की भावनायें एक जैसी होती हैं, इसलिए यह कैसे मान लिया जाये कि हम इस देश के या उस देश के नागरिक हैं। सभी मनुष्यों की संवेदना का घरातल एक जैसा है। यही कारण है कि टैगोर को "वसुधैव कुटुम्बकम् " का सिद्धांत बेहद प्रिय था। जब कभी वे भारत या भारत में रहने वालों की बात करते थे, तो उनके समक्ष मानवता का विशाल संदर्भ होता था। वे किसी व्यक्ति या देश को उसकी समग्रता में देखते थे, न कि ईकाई के रूप में।
टैगोर अपनी आध्यात्मिक आस्थाओं के आधार पर वैश्वीकरण की बात करते हैं। उनका मानना था चूँकि विश्व के सभी व्यक्ति आत्मिक रूप से एक ही हैं, इसलिए व्यक्ति व्यक्ति में अंतर नहीं किया जा सकता। टैगोर विश्व शांति को आध्यात्मिक अनिवार्यता मानते थे। इस दृष्टि से टैगोर, गांधी की दृष्टि के अधिक निकट लगते हैं।
गाँधी की मुख्य चिंता भारत की आध्यात्मिकता को बचाना था, भले ही इसके लिए पश्चिमी भौतिकतावाद की अवहेलना ही क्यों न करनी पड़े। लेकिन टैगोर भौतिकतावाद को अनैतिक मानते हुए भी उसकी अनुभूति से दुःखी नहीं थे। टैगोर का विश्वास था कि भारत के पास जो समृद्ध सांस्कृतिक विरासत है, वह पश्चिम के भौतिकवाद के निराकरण के लिए पर्याप्त है। यदि हमारी गरीबी का निदान भौतिकवादी तत्त्वों को अपनाने से हो सकता है तो उसे अपनाने में परहेज नहीं करना चाहिए। लेकिन उसी भौतिकवाद को जब हम वास्तविक यथार्थ मानने लगेंगे तो हमारा कल्याण संदिग्ध हो जायेगा। हमारे धर्म और दर्शन में वे सभी तत्व मौजूद हैं, जो हमें मानवता के धरातल से गिरने नहीं देंगे।
शिक्षा सम्बन्धी विचार
टैगोर एक महान शिक्षाविद् भी थे। उन्होंने समकालीन अंग्रेजी शिक्षा व्यवस्था की घोर आलोचना की है। अंग्रेजों द्वारा थोपी गयी व्यवस्था को वे बोझ और अनुपयोगी मानते थे। उनके मुताबिक शिक्षा का उद्देश्य अपने मस्तिष्क को अनावश्यक सूचन से भरना नहीं है बल्कि अपनी प्रतिभा की पहचान और साक्षात्कार करना है। अपने को पहचान कर ही मानव बाह्य जगत से तादात्म्य स्थापित कर पाने में समर्थ हो पाता है। विश्वभारती की स्थापना इन्ही उद्देश्य से प्रेरित होकर की गयी थी।
टैगोर ने शिक्षा के सैद्धान्तिक पक्ष के साथ-साथ उसके व्यावहारिक पक्ष पर भी उतना ही बल दिया। उन्होंने शिक्षा को सर्वमुखी विकास का साधन बनाया। चूँकि एक स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ आत्मा निवास कर सकती है, इसलिए मानव का बौद्धिक या नैतिक विकास ही नहीं, वरन शारीरिक विकास भी होना चाहिए। शांतिनिकेतन में स्थापित किए गये विश्वभारती शिक्षा संस्थान के पाठ्यक्रम निर्धारित करते समय टैगोर ने दैनिक जीवन में काम आने वाली शिक्षा पर बल देने के साथ-साथ स्वावलम्बी और आत्मनिर्भर बनाने वाली शिक्षा पर भी बल दिया। वे शिक्षा में दंड की प्रक्रिया को पूरी तरह से त्याग देने की बात कहते थे। उनके मतानुसार शिक्षक को अपने चरित्र के उदाहरण से शिक्षार्थी को समझाना चाहिए।
उन्होंने अपनी शिक्षा पद्धतियों में सार्वभौमिकता पर भी विशेष बल दिया। उनके मतानुसार भारत के विद्यार्थी को भारत से सम्बन्धित विषय ही नहीं, वरन् विदेशों की संस्कृति का भी ज्ञान होना चाहिए। टैगोर भी यह समझते थे कि शिक्षा का उद्देश तभी पूरा हो सकता है, जब विद्यार्थी अपनी मातृभाषा के माध्यम से ज्ञानोपार्जन करे। लेकिन वे विदेशी भाषाओं के अध्ययन का भी विरोध ना करते थे। वे स्त्री शिक्षा के भी प्रबल पक्षधर थे। इस सम्बन्ध में वे गांधी की विचारधारा से प्रभावित थे। स्त्री शिक्षा के बिना परिवार में शांति की स्थापना नहीं हो सकती। सर्वप्रथम माँ से ही बच्चा उन सभी बातों की जानकारी प्राप्त करता है, जिनका विकास देश की शिक्षा व्यवस्था का मुख्य लक्ष्य है। यदि माँ ही अशिक्षित होगी, तो बालक के विकास में अड़चन पैदा होगी ही।
सामाजिक समानता और वैयक्तिकता
नेहरू के इस मत को टैगोर आंशिक रूप से ही सत्य मानते थे कि आर्थिक समानता ही, सामाजिक समानता ला सकती है। टैगोर के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति की अपनी स्वतन्त्र प्रतिभा होती है और वह अन्य लोगों की तरह एक ही मार्ग का अनुगामी नहीं हो सकता। प्रत्येक व्यक्ति को इस बात का अधिकार है कि वह अपनी प्रतिभा के अनुरूप अपना विकास करे। राज्य या सरकार को इसमें किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। व्यक्ति की सृजनात्मक क्षमता, व्यक्तिगत रूप से ही विकसित होती है, उसका क्रियात्मक स्वरूप सामाजिक नहीं हो सकता।
स्वतंत्रता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता
टैगोर मात्र राजनीतिक स्वतंत्रता में ही विश्वास नहीं करते थे। वे व्यापक स्वतंत्रता के समर्थक थे, जिसे वे आत्मा की स्वतंत्रता कहते थे। उनके अनुसार यदि हम राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने में सफल नहीं होते हैं तो हमें स्वतंत्रता का हरण करने वालों के साथ सहयोग नहीं करना चाहिए। प्राचीन राजनीतिक विचारों से प्रभावित होकर टैगोर व्यक्तिगत स्वतंत्रता के समर्थक बन गये थे। हमारे प्राचीन विचारकों ने भी राज्य की तुलना में समाज को तथा समाज की तुलना में व्यक्ति को अधिक महत्त्वपूर्ण माना है। टैगोर, व्यक्तियों के प्रति अन्याय और सामाजिक दमन करने वाली व्यवस्था के घोर विरोधी थे। यही कारण है कि जलियांवाला बाग हत्याकांड के विरोध में उन्होंने अपनी 'सर' की उपाधि ब्रिटिश सरकार को वापस लौटा दी थी।
टैगोर प्राच्य एवं पाश्चात्य के संगम के रूप मेजाने जाते हैं। वे अपने अंतर्राष्ट्रीयतावाद, मानवतावाद तथा व्यक्ति की एकरूपता की अवधारणा को मूर्त रूप देने के लिए पूर्व और पश्चिमी सभ्यता का मिलन चाहते थे। विश्वभारती विश्वविद्यालय की स्थापना करते समय उन्होंने कहा भी था कि इसका उद्देश्य पूर्व और पश्चिम का समागम कर अध्ययन करना और दो गोलाद्धों के बीच विचारों के स्वतंत्र आदान प्रदान के द्वारा विश्व शांति की मूल अवधारणाओं को सशक्त करता है। उनका मानना था कि जब भी कोई सृजन होता है या रचना सामने आती है तो वह किसी व्यक्ति या वर्ग विशेष के लिए ही नहीं होनी चाहिए, बल्कि उस पर संसार के सभी लोगों का समान अधिकार होना चाहिए। विश्व के समस्त महान साहित्य, कला, महापुरुषों के विचार आदि समस्त मानव जाति की धरोहर हैं। टैगोर के अनुसार वैज्ञानिक दृष्टिकोण तथा अनेकता में एकता का विचार सबों को अवश्य ग्रहण करना चाहिए।
संस्कृति एवं सभ्यता
टैगोर का यह मानना था कि प्रत्येक समाज की अपनी संस्कृति और सभ्यता होती है, जिससे उस समाज में रहने वाले लोगों को नैतिक संस्कार तथा ऊर्जा मिलती है। सभी समाजों को अपनी संस्कृति पर गर्व होना स्वाभाविक है। टैगोर की यह मनोकामना थी कि समस्त भारत, भारतीय संस्कृति की उस बृहत्तर परम्परा और विचार से जुड़ जाये, जो सम्पूर्ण भारत के कोने-कोने में विद्यमान है। संस्कृति की रक्षा के लिए व्यक्ति को अपने क्षुद्र स्वार्थों का त्याग कर देना चाहिए। जब किसी समाज में कोई जनसमुदाय स्वयं को शोषित एवं अलग-थलग समझता है, तो ऐसे में उस समाज की सभ्यता और संस्कृति के नष्ट होने का खतरा उत्पन्न हो जाता है। टैगोर संस्कृति एवं सभ्यता के माध्यम से विश्व एकीकरण का स्वप्न देखते थे। एक मानवतावादी होने के कारण उनका मानना था कि समूची मानवता की समृद्धि विभिन्न संस्कृतियों के मूल बिन्दुओं के मिलन से ही संभव है।
आर्थिक दृष्टिकोण
टैगोर तत्कालीन आर्थिक प्रणाली को शोषण पर आधारित आर्थिक व्यवस्था मानते थे। इसका कारण यह था कि यह व्यवस्था शक्तिशाली व्यक्तियों द्वारा दुर्बल व्यक्तियों के शोषण को मान्यता देती है। उनका यह मानना था कि वर्तमान समाज के आध्यात्मिक पतन का कारण हमारी अर्थ लिप्सा की प्रवृत्ति ही है। टैगोर का कहना था कि मनुष्य का लक्ष्य मानवता के लिए कार्य करना है, न कि मशीन की तरह धनोपार्जन करना। वे किसानों की प्रगति के लिए सहकारी जीवन के समर्थक थे। किसानों के प्रति चिंता होने के कारण ही उन्होंने नोबेल पुरस्कार से प्राप्त धनराशि किसानों को सूदखोर महाजनों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए बांट दी थी।
वे गांधीजी के ग्रामोत्थान कार्यक्रम के भी समर्थक थे। उनके अनुसार आर्थिक स्वतंत्रता के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता निरर्थक है। टैगोर भारत की विशाल जनसंख्या को ध्यान में रखते हुए भारत में स्वदेशी हस्तकला तथा लघु उद्योगों को प्रोत्साहन देने के भी पक्ष में थे। टैगोर को भारतीय गांवों से बेहद लगाव था। साथ ही, वे गरीब किसानों तथा मजदूरों के प्रति होने वाले शोषण से स्वयं दुःखी हो जाते थे। वे आर्थिक शोषण के पूर्णतया विरोधी थे और श्रमिकों को उनका समुचित पारिश्रमिक दिलाने की बात करते थे।
धर्म के प्रति निष्ठा
टैगोर का जन्म एक ऐसे समय में हुआ था, जब भारत में पुनर्जागरण की लहर चल रही थी। सर्वत्र सामाजिक सुधारों की गूँज थी। एक धर्मनिष्ठ व्यक्ति होने के कारण टैगोर का ईश्वर की सत्ता में अगाध विश्वास था। लेकिन गाँधी की तरह टैगोर भी आडम्बरयुक्त धर्म के विरोधी थे। उनके अनुसार धर्म नैतिकता पर आधारित उचित मार्ग है। वे गीता के संदेश के अनुसार कर्म में आस्था रखते थे। वे आडम्बरयुक्त संन्यास और वैराग्य को शक्ति का अपव्यय मानते थे। उनके चिंतन में मुक्ति या मोक्ष के लिए कोई जगह नहीं थी। एक सच्चा मानवतावादी होने के कारण उनका यह विश्वास था कि ईश्वर कठोर परिश्रम करने वाले लोगों के हृदय में निवास करता है। टैगोर संसार के समस्त क्रिया-कलापों और सभी वस्तुओं में ईश्वर की अनुभूति करते थे। उनका मानना था कि सबसे बड़ा धर्म है विश्व के सभी प्राणियों से अनन्य प्रेम करना। टैगोर के धर्म को किसी भौगोलिक सीमा में नहीं बांधा जा सकता।
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