बिहार में कला का विकास
मानवीय भावनाओं को अभिव्यक्त करने वाली कृति, जो आनन्द की अनुभूति कराती है, कला है। मनुष्य द्वारा निर्मित वह हर वस्तु कला या शिल्प है, जो लय, संतुलन, अनुपात और सुसंगति आदि की स्थितियों में तैयार होती है। कला मानव के विकास का सूचक है। उदविकासीय क्रम में प्राप्त शिल्प बनाने वाले हाथों के साथ प्रागैतिहासिक मानव ने अनगढ़ औजारों के साथ जो कला को प्रदर्शित किया, आज वो परिस्कृत रूप में हमारे सामने है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि कला का विकास ही मानव का ऐतिहासिक विकास है।
प्राचीन काल
प्रागैतिहासिक काल से अब तक बिहार में ऐतिहासिक निरंतरता मिलती है, फलत: कला और संस्कृति की ऐतिहासिक परम्परा बिहार में मिलाती है। वैशाली, मुंगेर, सारण भागलपुर आदि का इलाका प्राक् इतिहास काल के अध्ययन के लिए अतिमहत्त्वपूर्ण रहा है। उत्तरवैदिक काल में कला, संस्कृति, विज्ञान और तकनीकी के विकास में बिहार की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। ईसापूर्व छठी शताब्दी से भवन निर्माण में कलात्मकता दृष्टिगोचर होती है। मगध के अतिरेक उत्पाद एवं लोहे के औजार ने कई शिल्पों के विकास में अपना अप्रतीम योगदान दिया है। राजगीर से प्राप्त पुरातात्विक सामग्रियां इसके प्रमाण हैं।
राजकीय आय में वृद्धि के लिए मगध शासकों ने वैशाली पर कब्ज़ा किया। राजगीर के पश्चात् पाटलिपुत्र नगरी राजधानी बनी। चन्द्रगुप्त मौर्य के यहाँ आए मेगास्थनिज के विवरणों में पाटलिपुत्र को विश्व का प्रसिद्ध नगर बताया गया, जिसकी तुलना तत्कालीन प्रसिद्ध नगर 'सुसा' और 'एकबताना' से की गयी। इस गौरवशाली गाथा का प्रसिद्ध मापदण्ड तत्कालीन कला और संस्कृति को माना गया। कलात्मक स्तंभ निर्माण एवं मूर्ति निर्माण में शिलाओं का प्रयोग अशोक के काल में प्रारम्भ हुआ। अशोक के स्तम्भ, उसपर बने सिंह की त्रिमूर्ति, साँढ़ और धर्मचक्र तथा यक्ष की नारी-मूर्ति तत्कालीन मूर्तिकला के ज्वलन्त उदाहरण हैं। भवन निर्माण में समय से पत्थरों का प्रयोग किया जाने लगा। इसके साथ ही गुहा निर्माण, मुद्रा निर्माण, मृद्भांड निर्माण कला की भी जानकारी मिलाती है।अशोककालीन कला पर विदेशी प्रभाव भी दृष्टिगोचर है।
शुंगकाल की कला मौर्यकालीन कला का ही विकास है। शुंगकालीन कला में कोमलता ज्यादा पायी जाती है। इसमें प्रतीकात्मक वस्तुओं के माध्यम से बुद्ध के सन्देश जीवित किये गये हैं। कुषाण-काल में बुद्ध की मूर्तियाँ बनने लगी थीं। मौर्योत्तर काल में अखिल भारतीय स्तर पर गांधार कला एवं मथुरा कला का विकास हो चुका था।
गुप्तकाल भारतीय मूर्ति निर्माण कला का स्वर्णिम युग था । हिन्दू, बौद्ध तथा जैन धर्म के देवी-देवताओं और पवित्र अवतारों से संबंधित मूर्ति निर्माण ने जहाँ कला क्षेत्र का विस्तार किया वहीं कलाकारों के समक्ष प्रयोगगत विविधता के अवसर उपलब्ध कराये। इस काल की सबसे प्राचीन मूर्तियाँ बिहार से मिली है। ईसा के बाद चौथी सदी में बनवायी गई इस मूर्ति का भारतीय मूर्त्ति-निर्माण-कला में विशेष महत्व है। बुद्ध की मूर्ति घुँघराले बालों वाली है, जो ध्यान मुद्रा में है।
कुम्हरार से पत्थर से बना ध्यान मग्न बुद्ध का शीश प्राप्त हुआ है। गुप्तकाल में पत्थर पर उत्कीर्ण किये गये गणेश, विष्णु तथा नाग-नागिनों के उत्कृष्ट चित्र राजगीर के मणिनाग मंदिर से प्राप्त हुए हैं। इसी स्थान पर गरुड़ पर आसीन विष्णु की भी सुन्दर मूर्ति मिली है। वैशाली में दो चतुर्मुख शिवलिंग मिले हैं, जिनमें से एक पर कुछ शिलालेख भी अंकित है। शाहाबाद से भी कार्तिकेय की एक सुन्दर मूर्ति मिली है, जिसे पटना संग्रहालय में रखा गया है।
गुप्तकाल में धातु-शिल्प का सराहनीय विकास हुआ। ह्वेनसांग ने एक छह महलवाले भवन में ताम्र-निर्मित 80 फुट ऊँची एक बुद्ध-मूर्ति देखी थी। भागलपुर के समीप सुलतानगंज में प्राप्त बुद्ध की एक पीतल की मूर्ति मिली है, जो ऊँचाई में साढ़े सात फुट की है। मूर्त्ति निर्माण-कला का यह एक उत्तम नमूना है। नालंदा में एक दीवार पर बुद्ध तथा बोधिसत्त्व का रूपांकन मिट्टी आदि के प्रलेप द्वारा किया गया है। इनका सौन्दर्य विस्मित करनेवाला है।
इस युग में मंदिर निर्माण की प्रवृति का भी विकास देखने को मिलता है। नालंदा का विशाल मंदिर, बोधगया का ईंटों से बना महाबोधि मंदिर, भभुआ (रोहतास) का मंडलेश्वर मंदिर (मुण्डेश्वरी मंदिर) इस काल के प्रमुख मंदिर हैं। उत्तर गुप्तकाल से इस कला में कतिपय परिवर्तन हुए। काले पत्थर से निर्मित पालकालीन मूर्तियाँ इसके उदाहरण हैं।
मध्य काल
मुस्लिम शासन काल में इमारतें, मजार और मस्जिदें तुर्क और मुगल कला का आधार लेकर बनती हैं। इनपर इस्लामिक संस्कृति का प्रभाव था। सूरी साम्राज्य के संस्थापक पठान सम्राट शेर शाह सूरी का मकबरा सासाराम में है। लाल बलुआ पत्थर का यह मकबरा वास्तुकार मीर मुहम्मद अलीवाल खान द्वारा डिजाइन किया गया था। यह भारत-इस्लामी वास्तुकला का एक उदाहरण है, इसे और 1540 और 1545 के बीच बनाया गया था। यह मकबरा (१२२ फीट ऊंचा) है, जो एक कृत्रिम झील के बीच में खड़ा है, और लगभग वर्गाकार है, इसे भारत के दूसरे ताजमहल के रूप में जाना जाता है। मुख्य मकबरा अष्टकोणीय योजना पर बनाया गया है, जिसके ऊपर एक गुंबद है। मकबरा शेर शाह के जीवनकाल के साथ-साथ उनके बेटे इस्लाम शाह के शासनकाल के दौरान बनाया गया था। इसके साथ ही साथ बिहार शरीफ एवं मनेर में भी इंडो इस्लामिक वास्तुकला के नमूने मिलते हैं।
आधुनिक काल
गौथिक शैली में गोल, ऊँचे एवं विशाल स्तम्भों पर आधारित भवनों निर्माण होने के प्रमाण मिलने लगते हैं। पटना विश्वविद्यालय का हिलर सिनेट हॉल, साईस कॉलेज के भवन में प्रयोग किये गए स्तम्भ एवं डच-शैली में निर्मित पटना कॉलेज की इमारतें इसके ज्वलन्त उदाहरण हैं। बिहार की कला राजपूत - शैली से भी प्रभावित है और इसका उदाहरण पटना संग्राहलय भवन है। बिहार के कई इलाकों में अँग्रेजी जमाने में बंगालियों की बड़ी-बड़ी बस्तियाँ बसीं, जहाँ निर्मित भवनों को देखकर यह निष्कर्ष आसानी से निकाला जा सकता है कि इन इलाकों में निर्मित भवन बंगाल की कला एवं संस्कृति से प्रभावित हैं।
बिहार में चित्रकला का विकास
बिहार में चित्रकला की काफी पुरानी परम्परा है। छठी शताब्दी ई० पू० के काले, चित्रित मृद्भाण्ड, बराबर की पहाड़ी गुफाओं के चित्र, पालकालीन ताम्रपत्र पर अंकित चित्र एवं नालंदा बिहार के भित्तिचित्र इसके प्रमाण हैं। बिहार की मुख्य चित्रकला शैलियों में मधुबनी पेंटिंग, पटना-कलम एवं मंजूषा चित्र-शैली प्रमुख हैं।
औरंगज़ेब की नीति एवं मुगल शासकों के पतन के पश्चात् कलाकारों एवं चित्रकारों को राजकीय संरक्षण मिलने कम होते गए। रोजगार की तलाश में दिल्ली और उत्तरप्रदेश के बहुत से कलाकार एवं चित्रकार पटना भी पहुँचे और तत्कालीन जमींदारों, विशेष रूप से अंग्रेजों के इच्छानुसार कुछ खास प्रकार के चित्र बनाकर अपना भरण-पोषण करने लगे। उन्होंने मुग़ल शैली, स्थानीय शैली, ब्रिटिश शैली के मेल से एक नयी लघु चित्रकला की शैली विकसित की जिसे पटना कलम कहा जाता है।
स्थानीय परम्पराओं, जादू-टोनों, विवाह-संस्कार आदि से प्रभावित चित्रों की अपने-अपने घर की दीवारों पर निर्मित करने की प्रवृति को मिथिला की महिलाओं द्वारा लोकप्रिय बनाया गया जो 'मिथिला पेंटिंग' के नाम से देश-विदेश में लोकप्रिय है। चित्र मुख्यतः दीवारों पर ही बनाये जाते हैं मगर हाल में कपड़े और कागज पर भी चित्रांकन की प्रवृत्ति बढ़ी है। मधुबनी पेंटिंग के दो प्रकार है- (1) भित्ति चित्र, (2) अरिपन। इस शैली की मुख्य प्रतिनिधियों में पद्मश्री सिया देवी, कौशल्या देवी आदि के नाम लिये जा सकते हैं। अन्य उल्लेखनीय नाम हैं- गंगा देवी, जगदम्बा देवी, सीता देवी, भगवती देवी, मैना देवी आदि ।
मंजूषा चित्र-शैली सम्पूर्ण अंग क्षेत्र में काफी लोकप्रिय है। भागलपुर क्षेत्र की लोक-गाथाओं के आधार पर सनाठी (संठी) की लकड़ी से मंदिर जैसी लगनेवाली एक मंजूषा बनायी जाती है। इसपर विशेषकर बिहुला विषहरी की कथा से संबंधित चित्र बनाये जाते हैं। इस चित्र कला-शैली की खास विशेषताओं में से एक यह है कि इस शैली में महिला या पुरुष के चेहरों का सिर्फ वामपक्ष ही बनाया जाता है, जो निश्चित रूप से इसे अन्य चित्र-कला-शैलियों से अलग करता है।
मौर्य कला
छठी शताब्दी ईसा पूर्व से मगध का विस्तार प्रारम्भ हुआ। इस मगध पर चौथी शताब्दी ईसा पूर्व तक मौर्यों ने अपनी शक्ति स्थापित कर ली और तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व तक, भारतीय उपमहाद्वीप का एक बड़ा हिस्सा मौर्य नियंत्रण में था। मौर्यों के समय में राजनीतिक स्थिरता, सामाजिक-आर्थिक प्रगति, प्रौद्योगिकीय उन्नति और राज्य की उदारता ने मानव कल्पना को बेहतर आकार देने और कला के विभिन्न रूपों के विकास के लिए एक उपयुक्त वातावरण बनाया। मौर्य वंश के अशोक ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व में बौद्ध श्रमण परंपरा का संरक्षण किया। फलत: उस समय के यक्षों और देवी-देवताओं की पूजा सहित बौद्ध धर्म सबसे लोकप्रिय हो गया था।
सिन्धु घाटी सभ्यता के बाद, स्मारकीय वास्तुकला और पत्थर की मूर्ति केवल मौर्य काल में ही दिखाई देती है। स्तंभ, मूर्तियां, पत्थरों को काट कर गुफाओं का निर्माण, स्तूप, विहार और चैत्य जैसी इमारतें थीं जो कई उद्देश्यों की पूर्ति करती थीं। वे सौंदर्य, गुणवत्ता एवं डिजाइन में उत्कृष्ट हैं। उन्होंने कला और वास्तुकला में उल्लेखनीय योगदान दिया और व्यापक पैमाने पर पत्थर की नक्काशी की शुरुआत की। इन कलाओं में हमें राज्य के संरक्षण और स्थानीय लोगों की भावनाओं की झलक मिलती है। इस आधार पर मौर्यकालीन स्थापत्य को दो बड़े भागों में बाँटा जा सकता है- राजकीय कला और लोक कला।
राजकीय कला :
मौर्य की राजधानी पाटलिपुत्र, चंद्रगुप्त मौर्य का महल मौर्य वास्तुकला के कुछ प्रमुख उदाहरण हैं। ग्रीक राजदूत मेगास्थनीज ने उल्लेख किया है कि शहर लकड़ी की दीवार से घिरा हुआ था जहाँ तीर को गुजरने देने के लिए कई छेद बनाए गए थे। दीवार के साथ-साथ 60 फीट गहरी और 600 फीट चौड़ी खाई खोदी गई। नगर में 64 प्रवेश द्वार और 570 टावर थे।
कुम्हरार में स्थित शाही सभा भवन, कई स्तंभों वाला एक हॉल था जिसमें 84 एकाश्म स्तंभों की खुदाई की गई है। चमकते स्तम्भों में सोने की लताएँ और चाँदी की चिड़िया थी। मौर्य साम्राज्य के दौरान भवनों के निर्माण के लिए लकड़ी मुख्य निर्माण सामग्री थी। इसकी छत और फर्श लकड़ी के बने हुए थे और इसका आकार 140 फीट लंबा और 120 फीट चौड़ा था।
ग्रीक इतिहासकार, मेगस्थनीज ने मौर्य साम्राज्य के महलों को मानव जाति की सबसे महान कृतियों में से एक के रूप में वर्णित किया और चीनी यात्री फा-हियान ने मौर्य महलों को ईश्वर प्रदत्त स्मारक कहा। रोमन यात्री, एरियन ने चंद्रगुप्त मौर्य के महल की भव्यता की तुलना सुशा और एकबतना (उस समय के दुनिया के सबसे प्रसिद्ध शहर) के महलों से की।
अशोक द्वारा पत्थर के स्तंभ बनवाए गए थे, जो मौर्य साम्राज्य के उत्तर भारतीय हिस्से में पाए गए हैं, इन पर शिलालेख खुदे हुए हैं। कुछ स्तंभ बिना शिलालेख के भी हैं। ऐसे स्तंभों की चोटी पर साँड़, शेर, हाथी जैसे जानवरों की आकृति उकेरी हुई है। सभी शीर्षाकृतियाँ ह्रष्ट-पुष्ट हैं और उन्हें एक वर्गाकार या गोल वेदी पर खड़ा उकेरा गया है। गोलाकार वेदियों को सुन्दर कमल फूलों से सजाया गया है। शीर्षाकृतियों वाले प्रस्तर स्तंभों में से कुछ स्तंभ आज भी सुरक्षित हैं और बिहार में बसराह-बखीरा, लौरिया-नंदनगढ़ व रामपर पुरवा तथा उत्तर प्रदेश में संकिसा एवं सारनाथ में देखे जा सकते हैं।
मुक्त खड़े अशोक स्तंभ दुनिया की धुरी (एक्सिस मुंडी) का प्रतीक हैं जिसने स्वर्ग और पृथ्वी को अलग किया। स्तंभ निर्माण की परंपरा बहुत पूरानी है और यह देखने में आया है कि ईरानी या अखमनी साम्राज्य में भी विशाल स्तंभ बनाए जाते थे। लेकिन मौर्य कालीन स्तंभ ईरानी या अखमनी स्तंभों से भिन्न किस्म के हैं। मौर्य कालीन स्तंभ चट्टानों से काटे हुए (एक विशाल पत्थर से बने हुए) स्तंभ हैं, जिनमें उत्कीर्णकर्ता कलाकार का कौशल स्पष्ट दिखाई देता है, जबकि ईरानी या अखमनी स्तंभ राजमिस्त्री द्वारा अनेक टुकड़ों को जोड़कर बनाए गए थे। अशोक के स्तंभ आकार और आयाम में एक दूसरे से काफी मिलते-जुलते हैं।
मौर्य स्तंभों में मुख्य रूप से चार भाग होते हैं:
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एक लंबा लाट आधार बनाता है और पत्थर या मोनोलिथ के एक टुकड़े से बना होता है। |
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शाफ्ट के ऊपर एक शीर्ष होती है, जो या तो कमल के आकार की या घंटी के आकार की होती है। |
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राजधानी के ऊपर एक गोलाकार या आयताकार आधार होता था जिसे अबेकस के नाम से जाना जाता था। |
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सभी पशु आकृति (आमतौर पर बैल, शेर, हाथी, आदि जैसे जानवर) जोरदार और नक्काशीदार होते हैं जो एक वर्ग या गोलाकार आधार पीठिका पर खड़े होते हैं। |
स्तंभों से जुड़ी आकृतियाँ:
अशोक के स्तंभों से जुड़े रूपांकनों में एक समृद्ध और विविध प्रतीकवाद है जो कई अलग-अलग भारतीय परंपराओं में प्रतिध्वनित होता है। कमल जैसे पुष्प डिजाइनों के अलावा शीर्ष पर पशुओं का रूपांकन है।
अशोक के स्तंभों से जुड़े सभी प्रतीकों का एक विशेष बौद्ध महत्व था, लेकिन वे व्यापक सांस्कृतिक अर्थ भी देते हैं।
बौद्ध धर्म के प्रारंभिक चरण के दौरान, बुद्ध के पैरों के निशान, स्तूप, कमल सिंहासन, चक्र, आदि के माध्यम से प्रतीकात्मक रूप से चित्रित किया गया है। अशोक के शासनकाल ने बौद्ध स्तूप वास्तुकला के इतिहास में एक महत्वपूर्ण चरण को चिह्नित किया। गौतम बुद्ध के जीवन का उत्सव मनाने के लिए स्तूपों का निर्माण किया गया था। इसे धम्म के प्रचार के लिए भी बनाया गया था। स्तूप में एक बेलनाकार ड्रम और एक गोलाकार और शीर्ष पर एक हर्मिका और छत्र होता है जो छोटे बदलावों और आकार में परिवर्तन के अनुरूप रहता है। बाद की शताब्दी में, स्तूपों का निर्माण कुछ अतिरिक्त विशेषताओं के साथ किया गया था जैसे कि रेलिंग और मूर्तिकला सजावट के साथ परिक्रमा पथ को घेरना। पहले कई स्तूपों का निर्माण किया गया था लेकिन दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व में विस्तार या नए परिवर्धन किए गए थे। स्तूप का मूल भाग पकी हुई ईंटों से बना था, जबकि बाहरी सतह को पकी हुई ईंटों का उपयोग करके बनाया गया था, जिसे बाद में प्लास्टर और मेधी की एक मोटी परत से ढक दिया गया था और तोरण को लकड़ी की मूर्तियों से सजाया गया था।
स्तूप की संरचनाएं :-
चैत्य मूल रूप से प्रार्थना कक्ष थे और उनमें से अधिकांश स्तूपों के साथ थे। आम तौर पर, हॉल आयताकार होता था और इसमें अर्ध-गोलाकार पिछला भाग होता था। उनके पास घोड़े की नाल के आकार की खिड़कियाँ थीं। हॉल को स्तंभ दो गलियारों में बाटते थे।
मौर्य काल में गुहा स्थापत्य की शुरुआत देखी गई। बराबर और नागार्जुन पहाड़ियों में कई गुफाएँ हैं जिनमें प्राचीन काल में तपस्वियों का निवास था। चार गुफाएँ कर्ण चौपर, सुदामा गुफा, लमर्षि (लोमस ऋषि) गुफा, विश्वामित्र (विश्व झोपड़ी) गुफाएँ बराबर पहाड़ियों में अशोक के समय और तीन गुफाएँ गोपी गुफा, बहायक गुफा और वेदांतिका गुफा नागार्जुन पहाड़ी में अशोक के पोते दशरथ के समय में बनाई गई थीं। बराबर पहाड़ियों में तीन गुफाओं में अशोक के शिलालेख हैं और तीन नागार्जुन पहाड़ियों में उनके पोते दशरथ के शिलालेख हैं। सादे लेकिन अत्यधिक पॉलिश किए गए अंदरूनी भाग के साथ गुफाएँ योजना में सरल हैं। एकमात्र मूर्तिकला अलंकरण लोमस ऋषि गुफा के द्वार पर नक्काशी में है। द्वार को लकड़ी के अनुसार बनाया गया है। प्रवेश द्वार पर नक्काशी के दो स्तर हैं। ऊपरी हिस्से में एक जालीदार डिज़ाइन है, निचले हिस्से में एक बारीक नक्काशीदार हाथी स्तूपों के पास आते हैं। दोनों सिरों पर एक मकर (एक पौराणिक मगरमच्छ) है। इन गुफाओं को अशोक और दशरथ ने आजीविकों को समर्पित किया था।
विशेषताएँ:
मौर्यों द्वारा जारी किए गए सिक्के ज्यादातर चांदी और कुछ तांबे के है।ये सिक्के विभिन्न आकार और वजन के होते हैं और जिन पर एक या अधिक प्रतीकों को छिद्रित किया जाता है। सबसे आम प्रतीक हाथी, रेलिंग, पेड़ और पहाड़ हैं। ऐसे सिक्कों को बनाने की तकनीक आम तौर पर यह थी कि पहले धातु को काटा जाता था और फिर उस पर छाप मारा जाता था। कहा जाता है कि इन प्रतीकों में या तो शाही प्रतीक चिन्ह थे या स्थानीय व्यापारिक संघ के प्रतीक थे ।
लोकप्रिय/लोक कला
दरबारी कला या शाही संरक्षण के अलावा, मूर्तिकला, मनके और मिट्टी की मूर्तियाँ एवं बर्तन व्यक्तिगत प्रयास की अभिव्यक्ति थी।
धार्मिक प्रथाओं के कई आयाम थे और पूजा के कई रूप मौजूद थे। बौद्ध धर्म के आगमन से पहले और बाद में यक्ष पूजा बहुत लोकप्रिय थी और इसे बौद्ध और जैन धर्म में आत्मसात कर लिया गया था। पटना, विदिशा और मथुरा जैसे कई स्थानों पर यक्ष और यक्षिणी की बड़ी मूर्तियाँ पाई गयी हैं। ये स्मारकीय चित्र अधिकतर खड़ी स्थिति में हैं। इन सभी मूर्तियों में पॉलिश एक विशिष्ट तत्व है। स्पष्ट गाल और शारीरिक विवरण के साथ चेहरों का चित्रण किया गया है। बेहतरीन उदाहरणों में से एक पटना के दीदारगंज की एक यक्षी आकृति है, जो लंबी और अच्छी तरह से निर्मित है। यह मानव शरीर को चित्रित करने के प्रति संवेदनशीलता को दर्शाता है। छवि में एक पॉलिश सतह है। मौर्यकालीन मूर्तिकला के सामग्री के रूप में चट्टानों का उपयोग किया जाता था। मौर्य साम्राज्य के दौरान धार्मिक मूर्तिकला की अवधारणा ही प्रमुख थी। पटना के लोहानीपुर में नग्न पुरुष आकृति का धड़ मिला। यक्ष की आकृति परखम से प्राप्त हुई है।
विशेषताएँ -
मौर्य काल में कुम्हार के चाक का उपयोग सार्वभौमिक हो गया। मौर्य काल से जुड़े मिट्टी के बर्तनों में कई तरह के बर्तन पाए गए हैं, लेकिन सबसे अधिक विकसित तकनीक को एक विशेष प्रकार के मिट्टी के बर्तनों में देखा जाता है जिसे उत्तरी काले पालिसदार मृदभांड (नॉर्दर्न ब्लैक पॉलिश्ड वेयर/NBPW) के रूप में जाना जाता है, जो कि पूर्ववर्ती और प्रारंभिक मौर्य काल की पहचान थी। उत्तरी काले पालिसदार जलोढ़ मिट्टी से बनाया जाता था। इसे जेट ब्लैक से लेकर गहरे ग्रे या धातु स्टील ब्लू तक बनायी जाती थी। कभी-कभी सतह पर छोटे लाल-भूरे रंग के धब्बे दिखाई देते हैं। इसकी विशिष्ट चमक और चमक से इसे अन्य पॉलिश या ग्रेफाइट-लेपित लाल मृदभांड से अलग किया जा सकता है। कोशाम्बी और पाटलिपुत्र NBPW मिट्टी के बर्तनों के केंद्र थे। इस बर्तन का उपयोग बड़े पैमाने पर व्यंजन और छोटे कटोरे के लिए किया जाता था। यह गंगा घाटी में बहुतायत में पाया जाता है।
मौर्य काल से संबंधित विभिन्न स्थानों से विभिन्न आकारों और प्रकारों की लोकप्रिय टेराकोटा मूर्तियां मिली हैं, जो शायद मौर्य काल के आम लोगों के कला प्रेम को दर्शाती हैं। ये टेराकोटा मूर्तियां स्थानीय लोगों द्वारा बनाई गई थीं, जो शायद विशेषज्ञ नहीं थे। टेराकोटा की मूर्तियों का भौतिक चित्रण अन्य मूर्तियों की तुलना में बहुत अलग है। कई टेराकोटा मूर्तियां आनुपातिक आकार की हैं और स्पष्ट अलंकरण के साथ यह दर्शाती हैं कि वे तकनीकी रूप से मजबूत थीं। कुछ साँचे से बने प्रतीत होते हैं। इनमें देवताओं, खिलौने, पासा, आभूषण और मनको की आकृतियां शामिल हैं। कई जानवरों की आकृतियाँ भी मिले हैं जो शायद बच्चों के खिलौने होंगे। कुम्हरार, पटना से प्राप्त विभिन्न टेराकोटा मूर्तियों में से एक हंसते हुए लड़के और एक लड़की की बहुत ही आकर्षक टेराकोटा मूर्तियां भी मिली हैं।
मौर्य कला पर धर्म का प्रभाव
मौर्य कला के कुछ रूप धर्मनिरपेक्ष हैं, जबकि कुछ पर धर्म का प्रभाव स्पष्ट प्रतीत होता है। राजकीय कला में धर्म के प्रभाव का मुख्य कारण सम्राट अशोक द्वारा बौद्ध धर्म को दिया गया शाही संरक्षण हो सकता है। वहीं लोक कलाओं में पशु, पक्षी, जैन दिगंबर, नर मूर्तियाँ आदि समाज के विकास और तत्कालीन कला के संवाहक हैं। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि धर्म दरबार कला पर कुछ प्रभाव दिखाता है, लेकिन लोक कला में धर्म के प्रभाव का अभाव होता है।
मौर्य कला पर विदेशी प्रभाव
कुछ कला इतिहासकारों ने मौर्य साम्राज्य के दरबार पर विदेशी प्रभाव विशेष रूप से फारसी (ईरानी या अखमनी) प्रभाव पर जोर दिया है:
हालाँकि, इतिहासकारों ने मौर्य और फ़ारसी कलाओं के बीच कई अंतरों की ओर भी ध्यान आकर्षित किया है:
पाल कला
भारत के इतिहास का पूर्व मध्यकाल क्षेत्रीय राजवंशों का युग है। इस काल में 8वीं शताब्दी से 12वीं शताब्दी तक बिहार और बंगाल के क्षेत्रों पर पाल वंश का शासन था। पाल शासकों द्वारा परम्परा से प्राप्त मौर्य और गुप्त कला को आगे बढ़ाया। वास्तुकला, मूर्तिकला, टेराकोटा, चित्रकला और दीवार चित्रकला की कलाओं में पालों की विशिष्ट उपलब्धियां देखी जाती हैं।
स्थापत्य वास्तुकला
पालों ने कई महाविहार, स्तूप, चैत्य, मंदिर, मठ और अन्य पवित्र संरचनाओं का निर्माण किया। विक्रमशिला, ओदंतपुरी और जगदला सहित अन्य विहारों की विशाल संरचनाएँ पालों की अन्य उत्कृष्ट कृतियाँ हैं। इन विशाल संरचनाओं को बख्तियार खिलजी की सेना ने ध्वस्त कर दिया था। पाल वंश के दौरान बिहार और बंगाल की कला ने नेपाल, बर्मा, श्रीलंका और जावा की कला को प्रभावित किया। अधिकांश वास्तुकला धार्मिक थी। पाल काल की कला के पहले दो सौ वर्षों में बौद्ध कला का प्रभुत्व था और पिछले दो सौ वर्षों में हिंदू कला का बोलबाला था।
विभिन्न महाविहारों में नालंदा, विक्रमशिला, सोमपुरा, देवीकोटा, पंडिता, फुलाबादी और जगदला विहार उल्लेखनीय हैं जहाँ भिक्षुओं के लिए नियोजित आवासीय भवन बनाए गए थे। धर्मपाल ने विक्रमशिला महाविहार (बिहार के भागलपुर जिले के पाथरघाट में) और बिहार में ओदंतपुरी विहार का निर्माण किया। धर्मपाल ने पहाड़पुर, बांग्लादेश में सोमपुरा महाविहार का निर्माण करवाया, जो कि पाल स्थापत्य कला की उत्कृष्टता प्रमाणित करता है। यह 21 एकड़ के परिसर में केंद्रीय मंदिर, 177 कमरों, कई स्तूपों, मंदिरों और कई अन्य सहायक इमारतों के साथ भारतीय उपमहाद्वीपों के सबसे बड़े बौद्ध विहार में से एक है। सोमपुरा महाविहार एक विश्व धरोहर स्थल है। 9वीं और 12वीं शताब्दी ईस्वी के बीच सोमपुरा विहार और विक्रमशिला विहार बौद्ध शिक्षा के दो महत्वपूर्ण केंद्रों के रूप में स्वीकार किया गया था।
महाविहार पाल शासन के दौरान मुख्य रूप से बौद्ध भिक्षुओं के आवासीय उद्देश्यों के लिए बनाए गए थे। लेकिन महाविहारों ने महत्वपूर्ण बौद्ध शिक्षा केंद्रों के रूप में भी काम किया। महाविहार आमतौर पर संरचना में आयताकार थे, जिसमें बीच में एक खुला आंगन शामिल था। प्रांगण के चारों ओर बरामदा/बरामदा बनाया जाता था, जिसमें कमरों के द्वार खोले जाते थे। कुछ महाविहार जिनमें कमरों के द्वार खोले गए थे। कुछ महाविहारों में दो मंजिला कमरे थे और दूसरी मंजिल के लिए सीढ़ियाँ आंगन में बनाई गई थीं।
हालांकि स्तूपों की संस्कृति प्राचीन थी, लेकिन कुछ स्तूप पाल काल के दौरान थोड़े से अंतर के साथ बनाए गए थे। मूल रूप से, बुद्ध/बोधिसत्वों के अवशेषों को उनके अंदर छिपाने के लिए स्तूप बनाए गए थे।
स्तूप के कई हिस्से थे, जिनमें यष्टि, छत्र, हरमिका, अंड, मेधी, वेदिका और तोरण शामिल हैं। अंड एक अर्धगोलाकार टीला है जो बुद्ध के अवशेषों को ढकने के लिए इस्तेमाल किए गए गंदगी के टीले का प्रतीक है (कई स्तूपों में वास्तविक अवशेषों का उपयोग किया गया था)। भक्तों के लिए स्तूप में श्रद्धासुमन अर्पित करने के लिए मेधी का उपयोग किया जाता था। मेधी से दुहरी सीढ़ी वाले सोपना से संपर्क किया जाता था। टीले के ऊपर हरमिका एक चौकोर रेलिंग है। तोरण आर्यन गाँव के द्वार के समान कार्डियल पॉइंट पर रखे गए औपचारिक प्रवेश द्वार थे।
ये मूल रूप से एक प्रकार के बौद्ध मंदिर थे। चैत्य के निर्माण की परंपरा पुरानी थी, लेकिन पाल शासन के दौरान इनका विविधीकरण हुआ। चैत्य के कई अवशेष बिहार के विभिन्न हिस्सों से पाए जा सकते हैं।
पाल शासकों के संरक्षण में विकसित हुए विभिन्न केंद्र बौद्ध धर्म, संस्कृति और अन्य ज्ञान की शिक्षा के लिए तत्कालीन बौद्ध दुनिया में विख्यात थें। इन केंद्रों पर दूर-दूर से कई विद्वान आए। जावा के शैलेंद्र राजा के अनुरोध पर देवपाल ने उस देश के विद्वानों के लिए नालंदा में स्थापित मठ के रखरखाव के लिए पांच गांव दिए। पाल साम्राज्य के बौद्ध विहारों ने नेपाल, तिब्बत, श्रीलंका आदि पड़ोसी देशों में, बौद्ध धर्म के प्रचार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इनमें से कई विशाल संरचनाओं को बख्तियार खिलजी की सेना द्वारा ध्वस्त कर दिया गया था।
मूर्तिकला
मूर्तिकला कला की गुप्त परंपरा ने पाल शासकों के संरक्षण में एक नई ऊंचाई प्राप्त की और इसे मूर्तिकला कला के पाल स्कूल के रूप में नामित किया गया। यह मध्यकालीन मूर्तिकला की पूर्वी शैली है जो 12 वीं शताब्दी के अंत तक जारी रहा।
इस काल की अधिकांश मूर्तियों ने बौद्ध धर्म से प्रेरणा ली। बुद्ध के अलावा, विष्णु, बलराम, उमा, महेश्वर, सूर्य और गणेश जैसे हिंदू धर्म के देवी और देवताओं की मूर्तियों का भी निर्माण किया गया था। बेहतरीन मूर्तियों में एक महिला की मूर्ति, नालंदा की दो खड़ी अवलोकितेश्वर की मूर्तियाँ शामिल हैं। अवलोकितेश्वर मूर्ति में बुद्ध 'भूमिस्पर्श मुद्रा' में विराजमान हैं। पाल काल से मुख्य रूप से दो प्रकार की मूर्तिकला कला पाई जाती है, अर्थात् कांस्य मूर्तियां और पत्थर की मूर्तियां मिलती हैं।
ऐसी मूर्तियाँ सांचों का उपयोग करके कांस्य से बनती थीं। इन मूर्तियों की एक मुख्य विशेषता उनमें प्रयुक्त उत्कृष्ट अलंकरण था। इन मूर्तियों की एक अन्य महत्वपूर्ण विशेषता यह थी कि ये अलंकृत और सामने से अलंकृत होने के बावजूद पीछे से सादे थे।
धीमन और विठपाल नालंदा के दो महत्वपूर्ण मूर्तिकार थे, वे धर्मपाल और देवपाल (पाल शासकों) के समकालीन थे। कुक्रीहार (गया), नालंदा और सुल्तानगंज से बड़ी संख्या में कांस्य मूर्तियां मिलती हैं। इन मूर्तियों की तुलना चोल साम्राज्य की नटराज मूर्तियों के सौंदर्यशास्त्र से की जा सकती है।
ये मूर्तियां मुख्य रूप से धार्मिक प्रकृति की थीं, जिनमें हिंदुओं और बौद्धों की विभिन्न देवी-देवताओं की मूर्तियां शामिल हैं। इस मूर्तिकला शैली के महत्वपूर्ण उदाहरण बुद्ध, विष्णु, बलराम, बोधिसत्व आदि थे।
पाल कला में भी पत्थर को तराश कर कलात्मक मूर्तियाँ बनायी जाती थी। ये "काले बेसाल्ट पत्थरों" से बनाये जाते थे, जो संथाल परगना और मुंगेर से प्राप्त होते थे। मूर्तियाँ उच्च लालित्य, तकनीकी सटीकता के उदाहरण हैं।
आम तौर पर शरीर के सामने के हिस्से को दिखाने की कोशिश की गई है। छवियों का पिछला हिस्सा शायद ही कलात्मक रूप से बनाया गया हो। अधिकांश चित्र विशेष रूप से बोधिसत्व एवं देवी-देवताओं के हैं। भगवान बुद्ध के महत्वपूर्ण जीवन की घटनाओं को विशेष रूप से चित्रित किया गया है। विष्णु, शिव या जैन मूर्तियों जैसे ब्राह्मणवादी देवता भी पाए जाते हैं, लेकिन उनकी संख्या तुलनात्मक रूप से कम है।
पेंटिंग
पाल शासन काल में दो प्रकार के चित्र बनाए जाते थे:- पाण्डुलिपि चित्रकारी और दीवार/भित्ति चित्रकारी।
पांडुलिपि पेंटिंग के अलावा, महाविहार, चैत्य, मंदिरों आदि की दीवारों पर दीवार पेंटिंग भी की जाती थी। इन चित्रों में फल, फूल, जानवर, मनुष्य, पक्षी और पेड़ जैसे विभिन्न तत्व अंकित थे। पाल काल की दीवार पेंटिंग का सबसे अच्छा उदाहरण सरायकिला (नालंदा) से मिली एक दीवार पेंटिंग है। इस पेंटिंग में एक महिला को आईने में देखते हुए मेकअप करते चित्रित किया गया है। यह पेंटिंग कला के साथ-साथ मानवीय भावनाओं को भी दर्शाती है। इन चित्रों पर अजंता और बाघ भित्तिचित्रों का प्रभाव देखा जा सकता है, क्योंकि चित्र और पेंटिंग बनाने के तरीके में बहुत समानता है।
पाल कला की सीमाएं
पाल शासकों के काल में अनेक कला रूपों का तीव्र विकास हुआ। कन्नौज पर कब्जे के लिए पालों, राष्ट्रकूटों और गुर्जर-प्रतिहारों के बीच त्रिकोणीय संघर्ष के बावजूद, पाल काल के दौरान बिना किसी बाधा के विभिन्न कला रूपों का विकास हुआ। पाल शासकों ने मौर्य काल के दौरान विकसित कला और संस्कृति की परंपरा को बनाए रखा और उन्हें एक नए स्तर पर पहुँचाया।
पटना कलम
पटना कलम भारतीय चित्रकला की एक स्थानीय शैली है, जो 18वीं और 19वीं शताब्दी में पटना एवं उसके आस-पास में मौजूद थी। यह चित्रकला के फारसी, मुगल और ब्रिटिश शैली से प्रभावित थी। पटना कलम चित्रकला, पहली स्वतंत्र चित्रकला है, जिसमे विशेष रूप से आम नागरिकों और उनकी जीवन शैली को दर्शाया गया है। इस चित्रण शैली ने पटना कलम चित्रकला को लोकप्रियता हासिल करने में मदद की। इस चित्रकला के प्रमुख केंद्र पटना, दानापुर और आरा थे।
पटना कलम का विकास
पेंटिंग की मुगल शैली ने जहांगीर के शासनकाल के दौरान अपना स्वर्ण युग देखा, लेकिन बाद में 17 वीं और 18 वीं शताब्दी की शुरुआत में औरंगजेब के प्रभाव में कला को बहुत कुछ भुगतना पड़ा। कई कलाकार दिल्ली से भाग गए और मुर्शिदाबाद जैसे केंद्रों में शरण ली। 18 वीं शताब्दी के मध्य में, मुर्शिदाबाद के नवाब के पतन के बाद, वे पूर्व के अगले सबसे बड़े केंद्र, पटना की ओर चले गए। पटना गंगा तट पर एक व्यापार केंद्र था, जिसके कारण, चित्रकारों ने बाजार तक आसानी से पहुंच प्राप्त की और वहां बस गए। साथ ही वे यूरोपीय बाजार की मांग को भी पूरा करने में सक्षम हुए। बाजार की आवश्यकता के कारण प्राप्त यूरोपीय संरक्षण और मुगल चित्रों की समृद्ध विरासत ने पटना कलाम नामक लघु चित्रों की एक बहुत ही विशिष्ट शैली को जन्म दिया।
समृद्ध, भव्य और दरबारी मुगल लघुचित्रों के विपरीत, पटना कलम के चित्रकारों ने भारत के दैनिक जीवन पर ध्यान केंद्रित किया। इस चित्रकला के विषय वास्तव में 'जाति व्यवसाय के समुच्य' थे, जिसे 'फिरका' कहा जाता है। चित्रकला की सामग्री फ़िरका के आम रोज़मर्रा की ज़िंदगी पर आधारित थी जैसे धोबी, दर्जी, डोम और कुत्ते से संघर्ष करने वाला दास आदि। इस तरह की सामग्री का मुख्य कारण यूरोपीय लोगों की भारतीय संस्कृति के प्रति जिज्ञासा और रुचि थी। इसने चित्रकारों को यूरोपीय स्थिर जीवन और लघु चित्रकला शैलियों को पारंपरिक मुगल और पहाड़ी शैली में आत्मसात करने के लिए प्रेरित किया।
प्रभाव
पटना कलम को फ़ारसी और कंपनी (ब्रिटिश) शैलियों के प्रभावबाली मुगल चित्रकला की एक शाखा माना जाता है
समानता :
अंतर :
समानता :
अंतर:
पेंटिंग में प्रयुक्त सामग्री
तकनीक
पटना कलम में चित्रकला की प्रक्रिया
चित्र कला की पूरी प्रक्रिया निम्न तीन चरणों में की जाती थी -
1. रंग तैयार करना - बरसात के मौसम में रंगों को तैयार किया जाता था। ऐसा इस लिए किया जाता था क्योंकि बरसात के मौसम में नमी बढ़ने के कारण वातावरण में प्रदूषण कम हो जाता है, इसलिए प्राप्त रंग अच्छी गुणवत्ता और बिना किसी धूल और गंदगी के होता था।
2. स्केचिंग - हालांकि स्केच बनाने के बजाय, चित्रों को सीधे ब्रश और रंगों का उपयोग करके चित्रित किया गया था। लेकिन कुछ चित्रकला स्केचिंग करके भी की गईं है। इस तरह के चित्रों में गर्मियों के दौरान स्केचिंग का काम किया जाता था।
3. रेखाचित्रों में रंग भरना - सर्दियों के मौसम में रंग भरा जाता था, क्योंकि सर्दियों में आर्द्रता बहुत कम होती है जिसके परिणामस्वरूप कैनवास के साथ रंग की अच्छी बॉन्डिंग होती है। यह चित्रों में छाया बनाने में भी मदद करता है।
पटना कलाम पेंटिंग की मुख्य विशेषताएं
कुछ प्रसिद्ध चित्रकार
सेवक राम, हुलास लाल, शिव लाल, शिव दयाल, महादेव लाल आदि। पटना कलम के अंतिम प्रसिद्ध चित्रकार ईश्वरी प्रसाद वर्मा थे।
वर्तमान में इस परंपरा को आगे बढ़ाने वाला कोई नहीं है।
कुछ प्रसिद्ध चित्रकार एवं उनकी रचना
बिहार में कला के विकास में पटना कलाम का योगदान :-
पटना कलाम के पतन के प्रमुख कारण:-
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