भक्ति काव्य सांस्कृतिक संवाद का प्रतिफल
भक्तिकाव्य किसी एक वर्ग, वर्ण या क्षेत्र के आंदोलन की उपज नहीं है यह तो अखिल भारतीय सांस्कृतिक संवाद की उपज है। अलवारों की भक्ति को रामानुजाचार्य ने एक दार्शनिक व्यवस्था दी। ज्ञान के साथ भक्ति को भी ईश्वर प्राप्ति का उपाय बताया, जगत के मिथ्यात्व का खंडन किया। इससे प्रेरित होकर अनेकानेक दर्शन अस्तित्व में आयें रामानुजाचार्य के पुनर्मूल्यांकन का निम्वार्क, मध्व, वल्लभ, विष्णुस्वामी ने और अधिक बहुआयामी बनाया। इस मूल्यांकन दर मूल्याकंन की परंपरा से ही विशिष्टाद्वैतवाद, द्वैताद्वैतवाद, भेदाभेदवाद, शुद्वाद्वैतवाद जैसे दर्शन अस्तिव में आयें । इन दर्शनों के ही पंख पर सवार होकर भक्ति की भावधारा दक्षिण से उत्तर में आयी । इन आचार्य के विचारों का भक्ति भावधारा में सार्थक विनियोग उत्तर के संतों भक्तो ने ही किया । दर्शनिक फैलाव की वजह से ही भक्ति आंदोलन का स्वर सभी क्षेत्रों और विभिन्न भाषा भाषी कवियों में एक सा सुनायी पड़ाता है। महाराष्ट्र के बारकरी सम्प्रदाय के संतो, उत्कल के पंच शखाओं, आसाम के शंकर देव, बंगाल के चैतन्य महाप्रभु, पंजाब के सिख गुरूओं, गुजरात के नरसिंह मेहता और हिंदी भाषी प्रदेशों के संतों भक्तो में यदि एक सा स्वर गूंजता है तो यह सांस्कृतिक संवाद का ही प्रतिफल है। इस सांस्कृतिक संवाद के कारण ही हमें भक्ति काव्य में परम्परा की अखंडता दिखाई देती है। तुलसीदास जी ‘नाना पुराण निगमग संगत’ भक्ति की प्रस्तावना करते है। उन्होंने भक्ति को शास्त्र से जोड़ा। शास्त्र के मूलाधार शब्द की महत्ता ज्ञानमार्गी कबीर भी स्वीकार करते है -
‘शब्दै बेद पुराण कहत है शब्दै सव ठहरावे’ निर्गुण और समुण को लेकर भी संतो और भक्तो में यदि अवतारवाद और कर्मकांड को छोड़ दिया जाए तो कोई झगड़ा नही है। कबीर भी कहते है - ‘गुण में निर्गुण,निर्गुण में गुण’ और तुलसी भी कहते है ‘अगुण सगुण द्वि ब्रह्म स्वरूपा’ यदि सगुण मार्गी भक्तो पर निराकर ब्रह्म का प्रभाव है तो निर्गुणमार्गी संतों पर भी अवतारवाद का प्रभाव है कबीर की पंक्ति है।
अजा मिल गज गणिका पतिता कर्म किंहा
तैउ उतर पार पाए राम नाम लिंहा
तुलसी भक्ति को चाहे किनता भी सराहें लेकिन वे ज्ञान के महत्व को नकार नहीं पाते
कहहिं संत मुनि वेद पुराणा। नहीं कछु दुर्लभ ज्ञान समाना।।
कबीर दास जी ज्ञानमार्गी है लेकिन भक्ति के स्वरूप को स्वीकार करते है –
संतो भक्ति सतो गुण आनि।
X X X
भाव बिना जो भक्ति है सो निज दम्भ विचार
ज्ञान और भक्ति की एक अखंड परम्परा पूरे भक्ति काव्य में प्रवाहित है। कवियों ने ज्ञान के साथ भाव को महत्व दिया। सूरदास जी ने तो अपने राग का विस्तार राधा तक ही नहीं बालक कृष्ण तक की है। कृष्ण भक्ति काव्य में इनता जो बाल वर्णन मिलता है। वह नई पीढ़ी के प्रति आस्था का ही द्योतक है। कृष्ण अपनी मां यशोदा से कहते है कि मै कब बड़ा होऊगा, मै खाने को जो मांगता हूँ वो जल्दी मुझे दो ताकि मै जल्दी बड़ा होऊ मुझे रंग भूमि में कंस को पछाड़ना है।
यह नई पीढ़ी द्वारा नई सुबह ले आने का आह्वान है। भक्ति काव्य में अर्न्तविरोध है, इसके बावजूद उसमें सामाजिक समानता और प्रगतिशील चेतना की कौंध है। तुलसीदास जी में भी समानता और सृजनात्मकता को लेकर द्वन्द्व है। तुलसीदास जी की सनातनता कहती है - ‘होहिए सोहि जो राम रची राखा’ लेकिन उनकी सृजनात्मकता कहती है ‘जो जस करई सो तस फल चाखा।’ तुलसीदास जी उच्च वर्ण के लोगों के संकीर्ण विचार से परिचित थे। ‘‘ तुलसीदास की भक्ति जहाँ एक ओर राम से ममता रखती है तो शेष संसार से समता का व्यवहार करती है।
तुलसी ममता राम जो सबका सब संसार
तुलसी की कविता में जो सामाजिकता है, बंधुत्व है, वही तुलसी को अर्न्तविरोध के बावजूद उन्हें समाज संस्थापक बनाता है। तुलसी मानते है कि धर्म पाखंड नहीं है कार्मकांड नहीं है, रूढ़ियाँ नहीं है। धर्म है दूसरों का कल्याण। यह सनातनता और सृजनात्मकता का द्वन्द्व है, साथ ही अखंड परम्परा का हिस्सा भी। आज भी यदि मनुष्य में कई गंभीर मामले को लेकर द्वैत कायम है तो माध्य युगीन समाज में यह द्वैत बिल्कुल स्वभाविक था। हमें उस द्वैत को न देखकर कौंध को देखना चाहिए - ‘समता सव संसार, परिहत सरसि धर्म नही भाई।’ अखिल भारतीय संवाद का ही यह नतीजा है कि भक्ति काव्य प्रेम काव्य का रूप ले लेता है। आचार्य शुक्ल भी कहते है कि भक्ति मार्ग भाव मार्ग या प्रेम मार्ग है उसमें प्रधान है रागात्मिका वृत्ति कबीर, जायसी, सूर, तुलसी सब ने प्रेम का राग अलापा।
भक्ति काव्य भारतीय संस्कृति का पुनराख्यान है यह तत्कालिन सामाजिक राजनैतिक अंधेरगर्दी के विरूद्ध जन प्रतिकार का कथात्मक दस्तावेज है। यह हमारी जीवन परम्पराओं का पुनर्मूल्यांकन है। इसलिए भक्ति आंदोलन में भ्रण की सारी दीवारे ढ़ह गयी है जनता एक गहरी नींद से जागी। कबीर कहते है:
संतों आयी ज्ञान की आंधी रे
भ्रम की टाटी सवै उड़ाणी
माया रही न बांधी रें
भक्ति काव्य जागरण का ही सृजनात्मक उपक्रम है। यह मोह और भ्रम में फंसी हुयी जनता को बाहर निकालता है और उसे जागरण के प्रति प्रतिबद्ध बनाता है। तुलसी कहते है -
अवलौनंसानि अव न नसिंहो
राम कृपा भौ कृपा शिरानी
जागे फिर न डसैहों।
भक्ति काव्य सांस्कृतिक नवोनमेश लेकर आया। इसकी जड़े, इसके अपने समय के इतिहास में बहुत दूर-दूर तक फैली हुयी है। यह मानवता और नैतिकता का नया संकल्प है। भक्ति काव्य में इस नये संकल्प के साथ, अपने समय के समाज की वास्तविकताओं का चित्र भी है और उसकी आलोचना भी। व्यवस्था के स्वरूप उदधाटित भी है और उसके नियमो को न मानने की निर्भयता भी। भक्ति काव्य में अपने समय का अंतर्विरोध चित्रित है तो उस अंतर्विरोध को दूर करने की कोशिश भी। इसमें यदि पारस्परिक संधर्ष के चित्र उभरते हैं तो समन्वय और सामंजस्य के प्रयास भी चित्रित है।
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