गाँव और जिला स्तर के शासन को स्थानीय शासन कहते हैं। स्थानीय शासन आम आदमी के सबसे नजदीक का शासन है। स्थानीय शासन का विषय है आम नागरिक की समस्याएँ और उसकी रोजमर्रा की जिंदगी। स्थानीय शासन की मान्यता है कि स्थानीय ज्ञान और स्थानीय हित लोकतांत्रिक फ़ैसला लेने के अनिवार्य घटक हैं। कारगर और जन-हितकारी प्रशासन के लिए भी यह ज़रूरी है। स्थानीय शासन का फायदा यह है कि यह लोगों के सबसे नजदीक होता है और इस कारण उनकी समस्याओं का समाधान बहुत तेजी से तथा कम खर्चे में हो जाता है। स्थानीय शासन लोगों के स्थानीय हितों की रक्षा में अत्यंत कारगर साबित होता है। स्थानीय शासन की संस्थाओं को सन् 1993 में संवैधानिक दर्जा प्रदान किया गया। इसके बाद से पूरे भारत में बड़े पैमाने पर बदलाव की लहर चल पड़ी है।
लोकतंत्र का मतलब है जवाबदेही के साथ सार्थक भागीदारी। जीवंत और मजबूत स्थानीय शासन सक्रिय भागीदारी और उद्देश्यपूर्ण जवाबदेही को सुनिश्चित करता है। स्थानीय शासन के स्तर पर आम नागरिक को उसके जीवन से जुड़े मसलों, जरूरतों और उसके विकास के बारे में फ़ैसला लेने की प्रक्रिया को शामिल किया जा सकता है। जो काम स्थानीय स्तर पर किये जा सकते हैं वे काम स्थानीय लोगों और उनके नुमाइंदों के हाथ में रहने चाहिए। लोकतंत्र के लिए यह जरूरी है। इस तरह, स्थानीय शासन को मजबूत करना लोकतांत्रिक प्रक्रिया को मजबूत बनाने के समान है।
भारत में स्थानीय शासन का विकास
माना जाता है कि अपना शासन खुद चलाने वाले ग्राम समुदाय प्राचीन भारत में 'सभा' के रूप में मौजूद थे। समय बीतने के साथ गाँव की इन सभाओं ने पंचायत का रूप ले लिया। समय बदलने के साथ-साथ पंचायतों की भूमिका और काम भी बदलते रहे। आधुनिक समय में, स्थानीय शासन के निर्वाचित निकाय सन् 1882 के बाद लार्ड रिपन के समय अस्तित्व में आए। उसने इन निकायों को बनाने की दिशा में प्रयास किए, जिसे मुकामी बोर्ड (Local Board) कहा जाता था। तत्पश्चात, इस दिशा में प्रगति बड़ी धीमी गति से हो रही थी। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने सरकार से माँग की कि सभी स्थानीय बोडों को ज्यादा कारगर बनाने के लिए वह जरूरी कदम उठाए। गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट 1919 के बनने पर अनेक प्रांतों में ग्राम पंचायत बने। सन् 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट के बाद भी यह प्रवृत्ति जारी रही।
भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में महात्मा गांधी ने जोर देकर कहा था कि आर्थिक और राजनीतिक सत्ता का विकेंद्रीकरण होना चाहिए। उनका मानना था कि ग्राम पंचायतों को मजबूत बनाना सत्ता के विकेंद्रीकरण का कारगर साधन है। विकास की हर पहलकदमी में स्थानीय लोगों की भागीदारी होनी चाहिए ताकि यह सफल हो। इस तरह, पंचायत को सहभागी लोकतंत्र को स्थापित करने के साधन के रूप में देखा गया। गवर्नर जनरल के हाथ में बहुत ज्यादा शक्तियाँ थीं, हमारे स्वतंत्रता संग्राम की चिंताओं में यह बात भी शामिल थी। इस कारण, हमारे नेताओं के लिए आजादी का अर्थ एक आश्वासन था कि फ़ैसला लेने में तथा कार्यपालिका और प्रशासनिक शक्तियों के इस्तेमाल में विकेंद्रीकरण होगा।
स्थानीय शासन, जिसमें पंचायत भी शामिल हैं, को संविधान में यथोचित महत्त्व नहीं मिलने के कारण:-
इस कारण जब संविधान बना तो स्थानीय शासन का विषय प्रदेशों को सौंप दिया गया। संविधान के 'नीति निर्देशक सिद्धांतों में भी इसकी चर्चा है। इसमें कहा गया है कि देश की हर सरकार अपनी नीति में इसे एक निर्देशक तत्त्व मानकर चलें।
स्वतंत्र भारत में स्थानीय शासन
संविधान के 73वें और 74वें संशोधन के बाद स्थानीय शासन को मजबूत आधार मिला। लेकिन इससे पहले भी स्थानीय शासन के निकाय बनाने के लिए कुछ प्रयास हो चुके थे। इस सिलसिले में पहला नाम आता है 1952 के सामुदायिक विकास कार्यक्रम (Community Development Programme) का। इस कार्यक्रम के पीछे सोच यह थी कि स्थानीय विकास की विभिन्न गतिविधियों में जनता की भागीदारी हो। इसी पृष्ठभूमि में ग्रामीण इलाकों के लिए एक त्रि-स्तरीय पंचायती राज व्यवस्था की सिफारिश की गई। कुछ प्रदेश (मसलन गुजरात, महाराष्ट्र) ने सन् 1960 में निर्वाचन द्वारा बने स्थानीय निकायों की प्रणाली अपनायी। लेकिन अनेक प्रदेशों में इन स्थानीय निकायों की शक्ति इतनी नहीं थी कि वे स्थानीय विकास की देखभाल कर सकें। ये निकाय वित्तीय मदद के लिए प्रदेश तथा केंद्रीय सरकार पर बहुत ज्यादा निर्भर थे। कई प्रदेशों ने तो यह तक नहीं माना कि निर्वाचन द्वारा स्थानीय निकाय स्थापित करने की जरूरत भी है। ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जहाँ स्थानीय निकायों को भंग करके स्थानीय शासन का जिम्मा सरकारी अधिकारी को सौंप दिया गया। कई प्रदेशों में अधिकांश स्थानीय निकायों के चुनाव अप्रत्यक्ष रीति से हुए। अनेक प्रदेशों में स्थानीय निकायों के चुनाव समय- समय पर स्थगित होते रहे।
सन् 1987 के बाद स्थानीय शासन की संस्थाओं के गहन पुनरावलोकन की शुरुआत हुई। सन् 1989 मे पी के थुंगन समिति ने स्थानीय शासन के निकायों को संवैधानिक दर्जा प्रदान करने की सिफ़ारिश की। समिति की सिफ़ारिश थी कि स्थानीय शासन की संस्थाओं के चुनाव समय-समय पर कराने, उनके समुचित कार्यों की सूची तय करने तथा ऐसी संस्थाओं को धन प्रदान करने के लिए संविधान में संशोधन किया जाय।
संविधान का 73वाँ और 74वाँ संशोधन
सन् 1989 में केंद्र सरकार ने दो संविधान संशोधनों की बात आगे बढ़ायी। इन संशोधनों का लक्ष्य था स्थानीय शासन को मजबूत करना और पूरे देश में इसके कामकाज तथा बनावट में एकरूपता लाना। सन् 1992 में संविधान के 73वें और 74वें संशोधन को संसद ने पारित किया। संविधान का 73वाँ संशोधन गाँव के स्थानीय शासन से जुड़ा है। इसका संबंध पंचायती राज व्यवस्था की संस्थाओं से है। संविधान का 74वाँ संशोधन शहरी स्थानीय शासन (नगरपालिका) से जुड़ा है। सन् 1993 में 73वाँ और 74वाँ संशोधन लागू हुए।
स्थानीय शासन को राज्य सूची में रखा गया है। प्रदेशों को इस बात की छूट है कि वे स्थानीय शासन के बारे में अपनी तरह का कानून बनाएँ। लेकिन संविधान में संशोधन हो जाने के बाद प्रदेशों को ऐसे कानून बदलने पड़े ताकि उन्हें संशोधित संविधान के अनुरूप किया जा सके। प्रदेशों को इन संशोधनों के आलोक में स्थानीय शासन के अपने-अपने कानूनों में जरूरी बदलाव करने के लिए एक वर्ष का समय दिया गया।
73वाँ संशोधन
73वें संशोधन के कारण पंचायती राज व्यवस्था में त्रि-स्तरीय बनावट को स्वीकार किया गया|
त्रि-स्तरीय बनावट
अब सभी प्रदेशों में पंचायती राज व्यवस्था का ढाँचा त्रि-स्तरीय है। सबसे नीचे यानी पहली पायदान पर ग्राम पंचायत आती है। ग्राम पंचायत के दायरे में एक अथवा एक से ज्यादा गाँव होते हैं। मध्यवर्ती स्तर यानी बीच का पायदान मंडल का है जिसे प्रखंड (Block) या तालुका भी कहा जाता है। इस पायदान पर कायम स्थानीय शासन के निकाय को मंडल या तालुका पंचायत कहा जाता है। जो प्रदेश आकार में छोटे हैं वहाँ मंडल या तालुका पंचायत यानी मध्यवर्ती स्तर को बनाने की जरूरत नहीं। सबसे ऊपरले पायदान पर जिला पंचायत का स्थान है। इसके दायरे में जिले का पूरा ग्रामीण इलाका आता है।
संविधान के 73वें संशोधन में इस बात का भी प्रावधान है कि ग्राम सभा अनिवार्य रूप से बनाई जानी चाहिए। पंचायती हलके में मतदाता के रूप में दर्ज हर वयस्क व्यक्ति ग्राम सभा का सदस्य होता है। ग्राम सभा की भूमिका और कार्य का फ़ैसला प्रदेश के कानूनों से होता है।
चुनाव
पंचायती राज संस्थाओं के तीनों स्तर के चुनाव सीधे जनता करती है। हर पंचायती निकाय की अवधि पाँच साल की होती है। यदि प्रदेश की सरकार पाँच साल पूरे होने से पहले पंचायत को भंग करती हैं, तो इसके छः माह के अंदर नये चुनाव हो जाने चाहिए। निर्वाचित स्थानीय निकायों के अस्तित्व को सुनिश्चित रखने वाला यह महत्त्वपूर्ण प्रावधान है। संविधान के 73वें संशोधन से पहले कई प्रदेशों में जिला पंचायती निकाय के चुनाव अप्रत्यक्ष रीति से होते थे और पंचायती संस्थाओं को भंग करने के बाद तत्काल चुनाव कराने के संबंध में कोई प्रावधान नहीं था।
आरक्षण
सभी पंचायती संस्थाओं में एक तिहाई सीट महिलाओं के लिए आरक्षित है । तीनों स्तर पर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के लिए सीट में आरक्षण की व्यवस्था की गई है। यह व्यवस्था अनुसूचित जाति/जनजाति की जनसंख्या के अनुपात में की गई है। यदि प्रदेश की सरकार जरूरी समझे, तो वह अन्य पिछड़ा वर्ग को भी सीट में आरक्षण दे सकती है।
यहाँ उल्लेखनीय है कि यह आरक्षण पंचायत के मात्र साधारण सदस्यों की सीट तक सीमित नहीं है। तीनों ही स्तर पर अध्यक्ष पद तक आरक्षण दिया गया है। इसके अतिरिक्त सिर्फ सामान्य श्रेणी की सीटों पर ही महिलाओं को एक तिहाई आरक्षण नहीं दिया गया बल्कि अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीट पर भी महिलाओं के लिए एक तिहाई आरक्षण की व्यवस्था है। बिहार पंचायत राज अधिनियम, 2006 के द्वारा सभी कोटियों में एकल पदों सहित सभी पदों पर महिलाओं के लिए 50 प्रतिशत पद आरक्षित किया गया है| यह पूरे देश में ऐसा पहला कदम था और उसके बाद कई राज्यों ने इसका अनुकरण किया है। साथ ही बिहार में पिछड़े वर्गों के लिए भी आरक्षण का प्रावधान है|अर्थात, कोई सीट महिला उम्मीदवार और अनुसूचित जाति / जनजाति के सदस्य के लिए साथ-साथ आरक्षित की जा सकती है। इस तरह, सरपंच का पद कोई दलित अथवा आदिवासी महिला धारण कर सकती है।
विषयों का स्थानांतरण
ऐसे 29 विषय जो पहले राज्य सूची में थे, अब पहचान कर संविधान की 11वीं अनुसूची में दर्ज कर लिए गए हैं। इन विषयों को पंचायती राज संस्थाओं को हस्तांतरित किया जाना है। अधिकांश मामलों में इन विषयों का संबंध स्थानीय स्तर पर होने वाले विकास और कल्याण के कामकाज से है। इन कार्यों का वास्तविक हस्तांतरण प्रदेश के कानून पर निर्भर है। हर प्रदेश यह फैसला करेगा कि इन 29 विषयों में से कितने को स्थानीय निकायों के हवाले करना है। अनुच्छेद 243 जी के तहत किसी प्रदेश की विधायिका कानून बनाकर ग्यारहवीं अनुसूची में दर्ज मामलों में पंचायतों को ऐसी शक्ति और प्राधिकार प्रदान कर सकती है।
ग्यारहवीं अनुसूची में दर्ज कुछ विषय
13. सड़क, पुलिया; 14. ग्रामीण विद्युतीकरण; 16. गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम; 17. शिक्षा, इसमें प्राथमिक और माध्यमिक स्तर की शिक्षा शामिल है; 18. तकनीकी प्रशिक्षण और व्यावसायिक शिक्षा; 19. वयस्क और अनौपचारिक शिक्षा; 20. पुस्तकालय; 21. सांस्कृतिक गतिविधि; 22. बाज़ार और मेला; 23. स्वास्थ्य और साफ-सफाई, इसमें अस्पताल, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रे तथा डिस्पेंसरी शामिल हैं; 24. परिवार नियोजन; 25. महिला और बाल विकास; 26. सामाजिक कल्याण; 27. कमजोर तबके का कल्याण, खासकर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का; 28. सार्वजनिक वितरण प्रणाली ।
भारत के अनेक प्रदेशों के आदिवासी जनसंख्या वाले क्षेत्रों को 73वें संशोधन के प्रावधानों से दूर रखा गया था। ये प्रावधान इन क्षेत्रों पर लागू नहीं होते थे। सन् 1996 में अलग से एक अधिनियम बना और पंचायती व्यवस्था के प्रावधानों के दायरे में इन क्षेत्रों को भी शामिल कर लिया गया। भूरिया समिति की सिफारिशों के आधार पर संसद में विधेयक प्रस्तुत किया गया। दिसंबर, 1996 में ही यह दोनों सदनों से पारित हो गया तथा 24 दिसंबर को राष्ट्रपति की सहमति प्राप्त कर लागू हो गया|इस कानून को पेसा, पूरा नाम ‘पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) विधेयक (The Provisions on the Panchyats Extension to the Scheduled Areas Bill) है। अनेक आदिवासी समुदायों में जंगल और जल जैसे साझे संसाधनों की देख-रेख के रीति-रिवाज मौजूद हैं। इस कारण, नये अधिनियम में आदिवासी समुदायों के इस अधिकार की रक्षा की गई है। वे अपने रीति-रिवाज के अनुसार संसाधनों की देखभाल कर सकते हैं। इस उद्देश्य से ऐसे इलाकों की ग्राम सभा को अपेक्षाकृत ज्यादा अधिकार दिए गए हैं और निर्वाचित ग्राम पंचायत को कई मायनों में ग्राम सभा की अनुमति लेनी पड़ती है। इस अधिनियम के पीछे मूल विचार स्व-शासन की स्थानीय परंपरा को बचाना और आधुनिक ढंग से निर्वाचित निकायों से ऐसे समुदायों को परिचित कराना है। विविधता और विकेंद्रीकरण की भावना से इस विचार की संगति बैठती है।
राज्य चुनाव आयुक्त
प्रदेशों के लिए जरूरी है कि वे एक राज्य चुनाव आयुक्त नियुक्त करें। इस आयुक्त की जिम्मेदारी पंचायती राज संस्थाओं के चुनाव कराने की होगी। पहले यह काम प्रदेश का प्रशासन करता था, जो प्रदेश की सरकार के अधीन होता है। अब भारत के चुनाव आयुक्त के समान प्रदेश का चुनाव आयुक्त भी स्वायत्त (autonomous) है। बहरहाल, प्रदेश का चुनाव आयुक्त एक स्वतंत्र अधिकारी है। उसका अथवा उसके कार्यालय का संबंध भारत के चुनाव आयोग से नहीं होता।
राज्य वित्त आयोग
प्रदेशों की सरकार के लिए हर पाँच वर्ष पर एक प्रादेशिक वित्त आयोग बनाना ज़रूरी है। यह आयोग प्रदेश में मौजूद स्थानीय शासन की संस्थाओं की माली हालात का जायजा लेता है। यह आयोग एक तरफ प्रदेश और स्थानीय शासन की व्यवस्थाओं के बीच तो दूसरी तरफ शहरी और ग्रामीण स्थानीय शासन की संस्थाओं के बीच राजस्व के बँटवारे का पुनरावलोकन करता है। इस पहल के द्वारा यह सुनिश्चित किया गया है कि ग्रामीण स्थानीय शासन को धन आबंटित करना राजनीतिक मसला न बने।
74वाँ संशोधन
संविधान के 74वें संशोधन का संबंध शहरी स्थानीय शासन निकाय अर्थात् नगरपालिका से है। भारत की जनगणना में शहरी इलाके की परिभाषा करते हुए ज़रूरी माना गया है कि ऐसे इलाके में (क) कम से कम 5,000 की जनसंख्या हो, (ख) इस इलाके के कामकाज पुरुषों में कम से कम 75 प्रतिशत खेती-बाड़ी के काम से अलग माने जाने वाले पेशे में हों, और (ग) जनसंख्या का घनत्व कम से कम 400 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर हो। सन् 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की 31.16% प्रतिशत जनसंख्या शहरी इलाके में रहती है।
अनेक रूपों में 74वें संशोधन में संविधान के 73वें संशोधन का दोहराव है, लेकिन यह संशोधन शहरी इलाकों से संबंधित है। 73वें संशोध न के सभी प्रावधान मसलन प्रत्यक्ष चुनाव, आरक्षण, विषयों का हस्तांतरण, प्रादेशिक चुनाव आयुक्त और प्रादेशिक वित्त आयोग 74वें संशोधन में शामिल हैं तथा नगरपालिकाओं पर लागू होते हैं। संशोधन के अंतर्गत इस बात को अनिवार्य बना दिया गया है कि प्रदेश की सरकार कुछेक निश्चित कार्य करने की जिम्मेदारी शहरी स्थानीय शासन की संस्थाओं पर छोड़ दे। ये कार्य संविधान की ग्यारहवीं अनुसूची में लिखे गए हैं।
73वें और 74वें संशोधन का क्रियान्वयन
अब सभी प्रदेशों ने 73वें संशोधन के प्रावधानों को लागू करने के लिए कानून बना दिए हैं। इन प्रावधानों को अस्तित्व में आये अब पचीस वर्ष से ज्यादा हो रहे हैं। इस अवधि (1994-2022) में अधिकांश प्रदेशों में स्थानीय निकाय के चुनाव कम से कम पाँच बार हो चुके हैं। स्थानीय निकायों के चुनाव के कारण निर्वाचित जन प्रतिनिधियों की संख्या में भारी इजाफा हुआ है। भारत में पंचायती राज के तहत निर्वाचित जन प्रतिनिधियों की संख्या 31,88,981 है जिनमे महिलाओं की संख्या 14,54,488 है|वहीं बिहार में निर्वाचित जन प्रतिनिधियों की संख्या 1,36,573 है जिनमे महिलाओं की संख्या 71,046 है|
यह बात एकदम जाहिर है कि 73वें और 74वें संशोधन ने देश भर को पंचायती राज संस्थाओं और नगरपालिका की संस्थाओं की बनावट को एक सा किया है। इन स्थानीय संस्थाओं की मौजूदगी ही अपने आप में बड़ी उपलब्धि है। इससे शासन में जनता की भागीदारी के लिए मंच और माहौल तैयार होगा।
पंचायतों और नगरपालिकाओं में महिलाओं के लिए आरक्षण के प्रावधान के कारण स्थानीय निकायों में महिलाओं की भारी संख्या में मौजूदगी सुनिश्चित हुई है। आरक्षण का प्रावधान अध्यक्ष और सरपंच जैसे पद के लिए भी है। इस कारण निर्वाचित महिला जन प्रतिनिधियों की एक बड़ी संख्या अध्यक्ष और सरपंच जैसे पदों पर आसीन हुई है। संसाधनों पर अपने नियंत्रण की दावेदारी करके महिलाओं ने ज्यादा शक्ति और आत्मविश्वास अर्जित किया है। इन संस्थाओं में महिलाओं की मौजूदगी के कारण बहुत-सी स्त्रियों की राजनीति के काम-धंधे की समझ पैनी हुई है। अनेक मामलों में पाया गया है कि स्थानीय निकायों के विचार विमर्श में महिलाओं की मौजूदगी उसमें नया परिप्रेक्ष्य जोड़ती है और चर्चा ज्यादा संवेदनशील होती है। अनेक मामलों में यह देखा गया है कि महिलाएँ अपनी मौजूदगी दर्ज कराने में असफल रही अथवा महिला को पद पर आसीन करा कर परिवार का पुरुष उसके बहाने फ़ैसले लेता रहा। लेकिन ऐसी घटनाओं में तेजी से कमी आ रही है।
अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए आरक्षण को संविधान संशोधन ने ही अनिवार्य बना दिया था। इसके साथ ही, अधिकांश प्रदेशों ने पिछड़ी जाति के लिए आरक्षण का प्रावधान बनाया है। भारत की जनसंख्या में 16.2 प्रतिशत अनुसूचित जाति तथा 8.2 प्रतिशत अनुसूचित जनजाति है। स्थानीय शासन के शहरी और ग्रामीण संस्थाओं के निर्वाचित सदस्यों में इन समुदाय के सदस्यों की संख्या लगभग 6.6 लाख है। इससे स्थानीय निकायों की सामाजिक बुनावट में भारी बदलाव आए हैं। ये निकाय जिस सामाजिक सच्चाई के बीच काम कर रहे हैं अब उस सच्चाई की नुमाइंदगी इन निकायों के जरिए ज्यादा हो रही है।
कभी-कभी इससे तनाव पैदा होता है। जो तबका सामाजिक रूप से प्रभावशाली होने के कारण गाँव पर अपना नियंत्रण रखता था वह अपने इस दबदबे को छोड़ना नहीं चाहता। इससे सत्ता के लिए संघर्ष तेज़ हो जाता है। लेकिन, तनाव और संघर्ष हमेशा बुरे नहीं होते। जब भी लोकतंत्र को ज़्यादा सार्थक बनाने और ताकत से वंचित लोगों को ताकत देने की कोशिश होगी, तो समाज में संघर्ष और तनाव होना ही है।
संविधान के संशोधन ने 29 विषयों को स्थानीय शासन के हवाले किया है। ये सारे विषय स्थानीय विकास तथा कल्याण की ज़रूरतों से हैं। स्थानीय शासन के कामकाज के पिछले दशकों के अनुभव बताते हैं कि भारत में इसे अपना कामकाज स्वतंत्रतापूर्वक करने की छूट बहुत कम है। अनेक प्रदेशों ने अधिकांश विषय स्थानीय निकायों को नहीं सौंपे थे। इसका मतलब यह है कि स्थानीय निकाय कारगर ढंग से काम नहीं कर सकते थे। इस तरह, इतने सारे जन-प्रतिनिधियों को निर्वाचित करने का पूरा का पूरा काम बस प्रतीकात्मक बनकर रह गया। कुछ लोग स्थानीय निकायों के निर्माण की यह कहकर आलोचना करते हैं कि इससे प्रादेशिक और केंद्रीय स्तर पर जिस तरह से फ़ैसले लिए जाते हैं उसमें कोई बदलाव नहीं आता। स्थानीय स्तर की जनता के पास लोक कल्याण के कार्यक्रमों अथवा संसाधनों के आवंटन के बारे में विकल्प चुनने की ज़्यादा शक्ति नहीं होती।
स्थानीय निकायों के पास अपना कह सकने लायक धन बहुत कम होता है। स्थानीय निकाय प्रदेश और केंद्र की सरकार पर वित्तीय मदद के लिए निर्भर होते हैं। इससे कारगर ढंग से काम कर सकने की उनकी क्षमता का बहुत क्षरण हुआ है। शहरी स्थानीय निकायों का कुल राजस्व उगाही में एक प्रतिशत से भी कम का योगदान है जबकि खर्च काफी अधिक है। इस तरह स्थानीय निकाय कमाते कम और खर्च ज्यादा करते हैं। इसी कारण ये निकाय अनुदान देने वाले पर निर्भर होते हैं।
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