हिंदी साहित्य में आदिवासी विमर्श
गैर आदिवासी शासन से उपजी शोषण के विरुद्ध आदिवासी अस्मिता की पहचान एवं उसके खिलाफ जारी प्रतिरोध का साहित्य आदिवासी विमर्श है। यह मूल निवासियों के प्रति भेदभाव का विरोधी है। यह जल, जंगल, जमीन और जीवन की रक्षा के लिए आदिवासियों के सम्मान पूर्ण जीवन एवं आत्मनिर्णय के अधिकार की माँग करता है।
आदिवासी साहित्य की अवधारणा को लेकर तीन तरह के मत हैं-
(1) आदिवासी विषय पर लिखा गया साहित्य आदिवासी साहित्य है।
यह अवधारणा गैर-आदिवासी लेखकों की है जैसे- संजीव, राकेश कुमार सिंह, महुआ माजी, गणेश देवी आदि। कुछ आदिवासी लेखक जैसॆ हरिराम मीणा, महादेव टोप्पो आदि भी इसके समर्थक हैं।
(2) आदिवासियों द्वारा लिखा गया साहित्य आदिवासी साहित्य है।
यह उन आदिवासी लेखकों और साहित्यकारों का मत है जो जन्म सॆ पाए स्वअनुभव के आधार पर रचित साहित्य को ही आदिवासी साहित्य मानते हैं।
(3) ‘आदिवासियत’ (आदिवासी दर्शन) के तत्वों वाला साहित्य ही आदिवासी साहित्य है।
यह उन आदिवासी लेखकों की अवधारणा है, जो ‘आदिवासियत’ के तत्वों का निर्वाह करने वाले साहित्य को ही आदिवासी साहित्य के रूप में स्वीकार करते हैं।
‘आदिवासी साहित्य का रांची घोषणा-पत्र’ (जून 2014) इस संबंध में मील का पत्थर है। आदिवासी साहित्य की बुनियादी शर्त उसमें आदिवासी दर्शन का होना है जिसके मूल तत्व हैं -
1. प्रकृति जीनव और जगत के केन्द्र में हो। जिसमें सृष्टि और समष्टि के प्रति कृतज्ञता का भाव हो।
2. जो पूर्वजों के ज्ञान-विज्ञान, कला-कौशल और इंसानी बेहतरी के अनुभवों के प्रति आभारी हो।
3. जिसमें जीवन के प्रति आनंदमयी अदम्य जिजीविषा हो।
4. जो धरती को संसाधन की बजाय मां मानकर उसके बचाव और रचाव के लिए खुद को उसका संरक्षक मानता हो।
5. जिसमें रंग, नस्ल, लिंग, धर्म आदि का विशेष आग्रह न हो। जो हर तरह की गैर-बराबरी के खिलाफ हो।
6. जो भाषाई और सांस्कृतिक विविधता और आत्मनिर्णय के अधिकार के पक्ष में हो।
7. जो सामंती, ब्राह्मणवादी, धनलोलुप और बाजारवादी शब्दावलियों, प्रतीकों, मिथकों तथा व्यक्तिगत महिमामंडन से असहमत हो।
8. जो सहअस्तित्व, समता, सामूहिकता, सहजीविता, सहभागिता और सामंजस्य को अपना दार्शनिक आधार मानते हुए रचाव-बचाव में यकीन करता हो।
9. जो साहित्य के विश्व-दृष्टि का हिमायती हो।
10. मूल आदिवासी भाषाओं में अपने विश्व-दृष्टिकोण के साथ जो प्रमुखतः अभिव्यक्त हुआ हो।
हिंदी आदिवासी कविताएँ
मुक्त बाजार वाली अर्थव्यवस्था के दौर में आदिवासी कभी पैसे और कभी सरकारी नियमों के बल पर अपनी जमीन से बेदखल होकर पलायन कर रहा है। इसके कारण आदिवासी भाषा एवं संस्कृति संकट में पड़ गई है। आदिवासियों की लोक-कला, परंपरागत खेलों तक विलुप्त होती जा रही है। झारखण्ड की संथाली कवयित्री निर्मला पुतुल की 'नगाड़े की तरह बजते शब्द'; रामदयाल मुंडा का 'नदी और उसके संबंधी' आदिवासी कविताओं में प्रमुख हैं। इसी तरह कुजूर, मोतीलाल और महादेव टोप्पो की कविताएं भी अपने प्रतीक चरित्रों और घटनाओं की कथात्मक संशलिष्टता के कारण विशिष्ट पहचान बनाने में सफल रही हैं। मदन कश्यप की कविता "आदिवासी" बाजार के क्रूर चेहरे को सामने लाती है-
ठण्डे लोहे-सा अपना कन्धा ज़रा झुकाओ,
हमें उस पर पाँव रखकर लम्बी छलाँग लगानी है,
मुल्क को आगे ले जाना है।
बाज़ार चहक रहा है
और हमारी बेचैन आकांक्षाओं में साथ-साथ हमारा आयतन भी
बढ़ रहा है,
तुम तो कुछ हटो, रास्ते से हटो।
हिंदी आदिवासी गद्य
वाल्टर भेंगरा ने झारखण्ड अंचल और वहाँ के जीवन को केंद्र में रखते हुए हिंदी का पहला आदिवासी उपन्यास 'सुबह की शाम' लिखा। पीटर पाल एक्का ने 'जंगल के गीत' की रचना की। इस उपन्यास में उन्होंने तुंबा टोली गाँव के युवक करमा और उसकी प्रिया करमी के माध्यम से बिरसा मुण्डा के उलगुलान का संदेश पहुंचाया। ऐसे उपन्यासों में रमणिका गुप्ता का ‘सीता-मौसी’, कैलाश चंद चौहान का ‘भँवर’, रणेंद्र का 'ग्लोबल गाँव का देवता' आदि महत्वपूर्ण हैं। आदिवासियों द्वारा लिखे गए हाल के उपन्यासों में हरिराम मीणा का ‘धूणी तपे तीर’ सर्वाधिक उल्लेखनीय है। रणेंद्र का ‘ग्लोबल गाँव के देवता’ सिर्फ आग और धातु की खोज करनेवाली और धातु पिघलाकर उसे आकार देनेवाली कारीगर असुर जाति के जीवन का सारांश है। हरिराम मीणा के ’धूणी तपे तीर‘ में गोविन्द गुरु द्वारा भीलों-मीणों के बीच जागृति फैलाने, संगठित करने और उन्हें अपने हक के लिए बोलना और लड़ना सिखाने तथा बलिदान के लिए तैयार करने की कथा है।
संबंधित पत्रिकाएं
आदिवासी विमर्श के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली पत्रिकाओं में नई दिल्ली निकलनेवाली गंगा सहाय मीणा की आदिवासी साहित्य, रांची से निकलनेवाली वंदना टेटे की पत्रिका झारखण्डी भाषा साहित्य एवं संस्कृति अखाड़ा है। पुष्पा टेटे की ‘तरंग भारती’, सुनील मिंज का ‘देशज स्वर’ आदि पत्रिकाओं से भी आदिवासी विमर्श संबंधी रचनाओं को बढ़ावा मिला है। मुख्य धारा की पत्रिकाओं ने भी समय-समय पर आदिवासी विशेषांकों के जरिए इस विमर्श को आगे बढ़ाया है। इनमें ‘समकालीन जनमत’ (2003), ‘दस्तक’ (2004), ‘कथाक्रम’(2012), ‘इस्पातिका’ (2012) आदि प्रमुख हैं।