राष्ट्रीय कार्यपालिका
कार्यपालिका
सरकार का वह अंग जो इन नियमों कायदों को लागू करता है और प्रशासन का काम करता है, कार्यपालिका कहलाता है। यह नीतिगत निर्णय लेने और दैनिक प्रशासनिक कार्यों की देख-रेख तथा उनमें तालमेल करनेवाली शीर्षथ ईकाई होती है|
कार्यपालिका सरकार का वह अंग है जो विधायिका द्वारा स्वीकृत नीतियों और कानूनों को लागू करने के लिए ज़िम्मेदार है। कार्यपालिका प्रायः नीति निर्माण में भी भाग लेती है। कार्यपालिका का औपचारिक नाम अलग-अलग राज्यों में भिन्न-भिन्न होता है। कुछ देशों में राष्ट्रपति होता है, कहीं चांसलर। कार्यपालिका में केवल राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या मंत्री ही नहीं होते बल्कि इसके अंदर पूरा प्रशासनिक ढाँचा (सिविल सेवा के सदस्य) भी आते हैं। सरकार के प्रधान और उनके मंत्रियों को राजनीतिक कार्यपालिका कहते हैं और वे सरकार की सभी नीतियों के लिए उत्तरदायी होते हैं; लेकिन जो लोग रोज़-रोज़ के प्रशासन के लिए उत्तरदायी होते हैं, उन्हें स्थायी कार्यपालिका कहते हैं।
कार्यपालिका के प्रकार
भारत में संसदीय कार्यपालिका
भारतीय संविधान के निर्माता एक ऐसी सरकार सुनिश्चित करना चाहते थे जो जनता की अपेक्षाओं के प्रति संवेदनशील और उत्तरदायी हो। संविधान निर्माताओं के पास संसदीय कार्यपालिका की जगह दूसरा विकल्प अध्यक्षात्मक सरकार का था। लेकिन अध्यक्षात्मक कार्यपालिका मुख्य कार्यकारी के रूप में राष्ट्रपति पर बहुत बल देती है और उसे सभी शक्तियों का स्रोत मानती है। अध्यक्षात्मक कार्यपालिका में व्यक्ति पूजा का खतरा बना रहता है। संविधान निर्माता एक ऐसी सरकार चाहते थे जिसमें एक शक्तिशाली कार्यपालिका तो हो, लेकिन साथ-साथ उसमें व्यक्ति पूजा पर पर्याप्त अंकुश लगे हों। संसदीय व्यवस्था में ऐसी अनेक प्रक्रियाएँ हैं जो यह सुनिश्चित करती है कि कार्यपालिका, विधायिका या जनता के प्रतिनिधियों के प्रति उत्तरदायी होगी और उनसे नियंत्रित भी। इसलिए, संविधान में राष्ट्रीय और प्रांतीय दोनों ही स्तरों पर संसदीय कार्यपालिका की व्यवस्था को स्वीकार किया गया।
भारतीय संसद
भारतीय संघ राज्य की विधायी शक्ति भारत की संसद में सन्निहत है। संसद राष्ट्रपति, राज्य सभा ओर लोकसभा तीनों से मिलकर बनती है।
भारत का राष्ट्रपति संसद का एक अभिन्न अंग हैं। वह दोनों सदनों के सत्रों का आह्वान करता तथा लोकसभा को विघटित कर सकता है। उसकी स्वीकृति के बिना दोनों सदनों द्वारा पारित कोई भी विधेयक अधिनियम नहीं बन सकता। उसे किसी भी सदन को अथवा दोनों के संयुक्त अधिवेशन को संबोधित करने का अधिकार प्राप्त है। वह किसी भी सदन में विचाराधीन विधेयक से संबद्ध सदन को संदेश दे सकता है और सदन को उस संदेश पर विचार करना पड़ता है।
राष्ट्रपति लोक सभा के आम चुनाव के बाद होने वाले प्रथम अधिवेशन में तथा प्रत्येक वर्ष के प्रारंभ में होने वाले प्रथम अधिवेशन में दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन को संबोधित करता है। इस अधिवेशन में वह सरकार की नीतियों और कार्यक्रम संबंधी व्यौरों की घोषणा करता है। दोनों सदन ऐसे संबोधन में उठाए गए मुद्दों पर विचार करते हैं।
जब कभी संसद के दोनों सदनों का सत्र न चल रहा हो और राष्ट्रपति को ऐसा आभास हो कि ऐसी परिस्थितियाँ उत्पन्न हो गई हों कि तत्काल कार्यवाही की आवश्यकता है तो वह इस संबंध में अध्यादेश जारी कर सकता है। इस अध्यादेश को वही बल प्राप्त रहता है जो संसद द्वारा पारित एक अधिनियम को प्राप्त है। ऐसे अध्यादेश को संसद के सत्रारंभ से 6 सप्ताह के भीतर दोनों सदनों की स्वीकृति नहीं मिलती तो अध्यादेश निष्प्रभावी हो जाता है।
राज्यसभा संसद का उच्च सदन है। इसमें कुल 250 सदस्य होते हैं। इनमें से 12 सदस्यों को राष्ट्रपति ऐसे व्यक्तियों में से मनोनीत करता है जिन्हें साहित्य, विज्ञान, कला और समाज सेवा के क्षेत्र में विशेष ज्ञान अथवा व्यावहारिक अनुभव प्राप्त हो। शेष 238 सदस्य राज्यों तथा संघीय क्षेत्रों के प्रतिनिधि होते हैं।
राज्यसभा में प्रत्येक राज्य से आए सदस्यों का निर्वाचन उस राज्य की विधानसभा के निर्वाचित सदस्यों द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व की एकल संक्रमणीय मत-पद्धति द्वारा होता है। प्रत्येक संघीय क्षेत्र के सदस्यों का निर्वाचन संसद की विधि द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार है। 1950 के लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम के अनुसार प्रत्येक संघीय क्षेत्र के लिए एक निर्वाचक मंडल के गठन की व्यवस्था की गई है।
भारत का कोई नागरिक, जिसकी आयु 30 वर्ष से कम न हो तथा जिसके पास संसद द्वारा निर्धारित योग्यताएँ हों वह राज्य सभा का सदस्य निर्वाचित किया जा सकता है। किंतु ऐसा कोई व्यक्ति जो राज्य के अधीन (भारत सरकार/राज्य सरकार अथवा संघीय क्षेत्र के किसी मंत्री पद को छोड़कर) किसी लाभ के पद को धारण किए हो अथवा जो विकृतचित्त हो या जो अनुन्मोचित दिवालिया हो, वह निर्वाचन में उम्मीदवार नहीं हो सकता।
राज्य सभा के प्रत्येक सदस्य की कार्यावधि 6 वर्ष है किंतु प्रति दूसरे वर्ष एक तिहाई सदस्य अवकाश ग्रहण करते हैं तथा उनके स्थान पर नवीन सदस्यों का निर्वाचन होता है। यह एक स्थायी सदन है अर्थात् इस सदन का कभी विघटन नहीं हो सकता।
भारत का उपराष्ट्रपति राज्य सभा का पदेन सभापति होता है अर्थात् जब तक वह उपराष्ट्रपति पद पर आरूढ़ रहता है तब तक ही वह राज्य सभा का सभापति रहता है। वह राज्य सभा की बैठकों की अध्यक्षता तथा उसका कार्य संचालन करता है। उसकी अनुपस्थिति में उपसभापति, जिसका निर्वाचन सदन द्वारा होता है। सभापति के दायित्वों का निर्वाह करता है। राज्य सभा की किसी भी सामान्य बैठक के लिए सदस्यों का दसवाँ भाग गणपूर्ति माना जाएगा।
लोकसभा संसद का प्रथम अथवा निम्न सदन है। इसके 530 सदस्यों का निर्वाचन विभिन्न राज्यों की जनता द्वारा प्रत्यक्ष रूप से किया जाता है तथा 20 सदस्यों का निर्वाचन संघीय क्षेत्रों, संसद की विधि द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के अनुरूप होता है। अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के स्थान उनकी जनसंख्या के अनुपात में सुरक्षित रखे जाते हैं। यदि आम चुनाव के बाद राष्ट्रपति को ऐसा लगे कि आंग्ल भारतीय समुदाय को लोकसभा में समुचित प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं हुआ है तो वह इस समुदाय के किन्हीं दो व्यक्तियों को लोकसभा में मनोनीत कर सकता है। संविधान (एक सौ चारवां) संशोधन अधिनियम, 2019 के प्रवृत्त होने के बाद से, लोक सभा में आंग्ल भारतीय समुदाय के विशेष प्रतिनिधित्व के उपबंध को आगे नहीं बढ़ाया गया है। प्रत्येक राज्य के सदस्यों की संख्या प्रायः उसकी जनसंख्या के अनुपात में निर्धारित की जाती है। प्रत्येक राज्य को विभिन्न क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों में इस प्रकार बाँटा जाता है कि प्रत्येक निर्वाचन क्षेत्र के लिए निर्धारित सदस्य संख्या और उसकी जनसंख्या का अनुपात पूरे राज्य में लगभग एक समान हो।
लोक सभा के सदस्य पूर्ण मताधिकार के आधार पर प्रत्यक्ष रूप से निर्वाचित किए जाते हैं। प्रत्येक व्यक्ति को जो भारतीय नागरिक है और जिसने 18 वर्ष की आयु प्राप्त कर ली है तथा जिसका नाम मतदाता सूची में सम्मिलित है लोकसभा के निर्वाचन में मतदान करने का अधिकार है।
लोकसभा के निर्वाचन में खड़े होने वाले व्यक्ति के लिए यह आवश्यक है कि वह भारतीय नागरिक हो। उसकी आयु कम से कम 25 वर्ष हो तथा उसमें वे सब योग्यताएं हों जो संसद विधि द्वारा निर्धारित करे। कोई भी व्यक्ति लोकसभा का सदस्य बनने में असमर्थ होगा यदि वह भारत सरकार या राज्य सरकार के आधीन किसी लाभ के पद को धारण करता हो। जो विकृतचित्त हो, अनुन्मोचित दिवालिया हो जो भारतीय नागरिक न हो या जिसने किसी विदेश की नागरिकता ग्रहण कर लो हो या जिसे संसद को किसी विधि द्वारा अयोग्य घोषित कर दिया गया हो।
लोकसभा का कार्यकाल पाँच वर्ष है किंतु राष्ट्रपति इससे पूर्व भी इसे विघटित कर सकता है। जब संविधान के अनुच्छेद 352 के अंतर्गत घोषित आपातकाल विद्यमान हो तो राष्ट्रपति एक बार में एक वर्ष के लिए लोकसभा का कार्य-काल बढ़ा सकता है।
लोकसभा अध्यक्ष
सदन की बैठक की अध्यक्षता करने के लिए एक सदस्य को अध्यक्ष चुना जाता है जो इसका कार्य संचालन करता है। उसकी अनुपस्थिति में उपाध्यक्ष जिसका चुनाव भी सदन करता है, अध्यक्ष का काम करता है।
अध्यक्ष के कार्य - वह लोकसभा की बैठकों की अध्यक्षता करता है तथा इसकी समस्त कार्यवाहियों का संचालन करता है। इसका केवल एक अपवाद है, जब उसे उसके पद से हटाने का प्रस्ताव विचाराधीन हो तब वह इस कार्य से विरत रहता है। वह सदन के कार्यक्रम के क्रम का निर्धारण करता है, वह सदस्यों के भाषण की समय-सीमा निर्धारित करता है, प्रत्येक सदस्य अपना भाषण उसे ही संबोधित करके प्रारंभ करता है। वह सदन में अनुशासन कायम रखता है, वह सदन में असंसदीय भाषा के प्रयोग पर अंकुश लगाता है, यदि कोई सदस्य उसके निर्णयों का उल्लंघन करता है तो वह उसकी सदस्यता को स्थगित करता अथवा उसे सदन छोड़ने के लिए कहता अथवा उसको सदन के मार्शल द्वारा सदन की बैठक से हटाने की आज्ञा दे सकता है। यदि कभी सदन में अव्यवस्था उत्पन्न हो जाए अथवा सदस्य अनुशासन का उल्लंघन करे तो वह सदन की बैठक को स्थगित कर सकता है। वह आचरण के नियमों का पालन करवाता है। कभी किसी प्रस्ताव अथवा प्रश्न को विचारार्थ स्वीकार किया जाए अथवा नहीं, इस पर विवाद छिड़ जाए तो वह इस पर अपना निर्णय देता है। वह सदस्यों के विशेषाधिकारों के हनन से उनकी रक्षा करता है।
जब कभी किसी विषय पर सदन में पक्ष और विपक्ष को समान मत प्राप्त हों तो वह निर्णायक मत देता है। जब कभी कोई सदस्य कार्य स्थगन प्रस्ताव रखता है तो इसे स्वीकार किया जाए अथवा नहीं इसका निर्णय भी वही करता है। कोई विधेयक धन विधेयक है अथवा नहीं इसका निर्णय वही करता है। जब कभी संसद के दोनों सदनों का संयुक्त अधिवेशन हो तो वह उसकी अध्यक्षता करता है।
सदन की किसी भी सामान्य बैठक के लिए सदस्यों की संख्या का दसवाँ भाग गणपूर्ति माना जाएगा।
सदन के अधिकार और कार्य
सदन का प्रमुख कार्य विधि निर्माण है। इसे संघ सूची से संबद्ध तथा अवशिष्ट विषयों (वे विषय जिनका उल्लेख तीनों सूचियों में से किसी में भी न हो) पर विधि निर्माण का अनन्य अधिकार है किंतु यह समवर्ती सूची में विधि निर्माण शक्ति को राज्य की विधायिका के साथ मिलकर करती है। इस सूची में दोनों विधि निर्माण का कार्य करते है, यदि दोनों की विधियों में परस्पर विरोध हो तो जिस सीमा तक राज्य की विधि संसदीय विधि के विरुद्ध होगी, संसदीय विधि को वरीयता मिलेगी।
विधि-निर्माण प्रक्रिया
संसद में प्रस्तुत और पारित विधेयकों को दो वर्गों साधारण अथवा गैर धन विधेयक तथा धन विधेश्यक, में वर्गीकृत किया जाता है। धन विधेयकों को पारित करने की प्रक्रिया साधारण विधेयकों को पारित करने की प्रक्रिया से भिन्न है। साधारण विधेयक दोनों सदनों में से किसी भी सदन में प्रस्तुत किया जा सकता है।
विधेयक |
साधारण विधेयक |
धन विधेयक |
प्रत्येक साधारण विधेयक को अधिनियम बनने से पूर्व निम्नलिखित प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है-
सदन इस रिपोर्ट की पृष्ठभूमि में विधेयक पर विस्तार से प्रत्येक धारा एवं उपधरा पर चर्चा कर मतदान करता है। यदि सदन विधेयक को स्वीकार कर लेता है तो यह मान लिया जाता है कि द्वितीय वाचन में विधेयक पारित हो गया है। कुछ अंतराल के बाद विधेयक अंतिम अथवा तृतीय वाचन के लिए सदन के सम्मुख प्रस्तुत किया जाता है। इस स्तर पर विधेयक पर सामान्य चर्चा होती है तथा कुछ शाब्दिक हेर फेर के अतिरिक्त कोई संशोधन स्वीकार नहीं किया जाता । यदि सदन इस स्तर पर विधेयक को स्वीकार कर लेता है तो विधेयक दूसरे सदन के पास भेज दिया जाता है।
वित्तीय विषयों से संबंधित प्रक्रिया
कार्यपालिका पर नियंत्रण
मंत्रिपरिषद् सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है। लोकसभा को मंत्रिपरिषद् के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पारित करने का अधिकार प्राप्त है। जब कभी ऐसा प्रस्ताव पारित हो जाता है तो मंत्रिपरिषद् को त्यागपत्र देना पड़ता है।
संसद के दोनों सदन प्रश्न पूछकर, पूरक प्रश्न पूछकर अत्यावश्यक लोक महत्त्व के विषय पर चर्चा कर के, ध्यान आकर्षण प्रस्ताव प्रस्तुत करके, कार्य स्थगन प्रस्ताव पेश कर के, तथा लोक लेखा समिति, प्राक्कलन समिति, लोक उद्यम समिति, शासकीय आश्वासन समिति, विशेषाधिकार समिति, प्रदत्त विधान (subordinate legislation) समिति इत्यादि के माध्यम से कार्यपालिका को नियंत्रित करते हैं। इनके कारण कार्यपालिका सदैव सतर्क रहती है।
संवैधानिक संशोधन प्रक्रिया
भारतीय संविधान में किसी भी संशोधन के लिए संसद के किसी भी सदन में एक विधेयक प्रस्तुत जाता है। ऐसे विधेयक को प्रत्येक सदन के किया कुल सदस्यों के पूर्ण बहुमत तथा उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से पारित होना है। आवश्यक किंतु यदि ऐसा कोई संशोधन संविधान के संघीय स्वरूप को प्रभावित करने वाला हो तो उसकी पुष्टि कम से कम आधे राज्यों के विधान मंडलों से होनी आवश्यक है। संघीय स्वरूप को प्रभावित करने वाले तत्व नियमानुसार हैं: राष्ट्रपति के निर्वाचन की प्रक्रिया, संघ या राज्य की कार्यपालिका शक्ति की सीमा, संघीय क्षेत्रों में उच्च न्यायालय स्थापित करने की संसदीय शक्ति, उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के संगठन और शक्तियाँ, संघ और राज्यों में वित्तीय शक्तियों का वितरण, संसद में राज्यों का प्रतिनिधित्व और संविधान में संशोधन करने की शक्ति तथा उसकी प्रक्रिया। जब वह विधेयक राष्ट्रपति के पास भेजा जाता है तो उस पर वह अपनी सहमति दे देते है तथा तत्पश्चात् संविधान संशोधित हो जाता है।
संविधान में संशोधन करने की संसद की शक्तियाँ काफी व्यापक हैं। वह संविधान के किसी भी प्रावधान में वृद्धि या परिवर्तन कर सकती है तथा उसे समाप्त भी कर सकती है। किंतु उच्चतम न्यायालय के एक निर्णय के अनुसार संसद संविधान की मूल संरचना में कोई संशोधन नहीं कर सकती।
अन्य अधिकार
संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्य, राज्यों की विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्यों के साथ मिलकर एक निर्वाचक मंडल बनाते हैं जो राष्ट्रपति का निर्वाचन करता है। संसद के दोनों सदन महाभियोग के माध्यम से राष्ट्रपति को उसके पद से हटा सकते हैं। वे दोनों मिलकर उपराष्ट्रपति का भी निर्वाचन करते हैं। वे नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों तथा अन्य न्यायधीशों को भी एक विशिष्ट प्रक्रिया द्वारा उनके पदों से हटा सकते हैं।
संसदीय समितियाँ
संसदीय समिति |
अस्थायी समिति |
स्थायी समिति |
संसद के कार्य को शीघ्रतापूर्वक संपादित करने, उनका परीक्षण करने के लिए संसदीय समितियों का गठनकिया जाता है| मोटे तौर पर ये समितियाँ दो प्रकार की होती हैं: अस्थायी समितियाँ और स्थायी समितियाँ।
अस्थायी समितियों आवश्यकतानुसार बनाई जाती हैं तथा काम पूरा होने पर उनका अंत हो जाता है। स्थायी समितियाँ प्रत्येक वर्ष अथवा समय समय पर निर्वाचित अथवा नियुक्त की जाती हैं तथा उनका कार्य न्यूनाधिक निरंतर चलता रहता है।
अस्थायी समितियाँ
अस्थायी समितियाँ आवश्यकतानुसार समय-समय पर लोक सभा या इसके अध्यक्ष के द्वारा बनाई जाती हैं। ये किसी विशिष्ट विषय की जाँच पड़ताल करती तथा उस पर अपनी रिपोर्ट देती हैं। इन समितियों की कोई संख्या निर्धारित नहीं होती। इनकी संख्या आवश्यकतानुसार घटती बढ़ती रहती है। प्रवर समितियों के सदस्यों की नियुक्ति सदन द्वारा की जाती है। प्रवर समिति प्रत्येक विधेयक की बारीकी से जाँच करती, उससे संबद्ध समस्त आँकड़े इकट्ठा करती तथा गवाहों के बयान लेती है। इसके उपरांत यह अपनी रिपोर्ट सदन को देती तथा कार्य संपूर्ण कर लेने के बाद इसका विघटन हो जाता है।
स्थायी समितियाँ
स्थायी समितियों में तीन वित्तीय समितियाँ : लोक लेखा समिति, प्राक्कलन समिति तथा लोक उद्यम समिति महत्त्वपूर्ण समितियाँ हैं जो सरकारी खर्च पर सतर्क दृष्टि रखती हैं।
लोक लेखा समिति : इसके 22 सदस्य होते हैं जिनमें से 15 लोक सभा द्वारा तथा 7 राज्य सभा द्वारा एक वर्ष के लिए निर्वाचित किए जाते हैं। राज्य सभा के सदस्यों को सह सदस्य माना जाता है तथा उन्हें मत देने का अधिकार प्राप्त नहीं है। यह समिति भारत सरकार के लेखाओं के विनियोग की तथा नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट की जाँच पड़ताल करती है। समिति यह सुनिश्चित करती है कि सार्वजनिक धन का खर्च संसद के निर्णयों के अनुसार होता है तथा यह बर्बादी, फिजूलखर्ची, हानि, निरर्थक खर्चा अथवा सरकारी सेवाओं में वित्तीय अनियमित्ताओं की ओर ध्यान आकर्षित करती है।
प्राक्कलन समिति : इस समिति में 30 सदस्य होते हैं। जिनका निर्वाचन प्रतिवर्ष लोकसभा करती है। इसके सदस्यों में से किसी एक को लोकसभाध्यक्ष इस समिति का सभापति नियुक्त करता है। यह समिति इन विषयों पर अपनी रिपोर्ट देती है कि सरकारी खर्च में कैसे कमी की जाए, संगठन में कैसे सुधार अथवा कुशलता लाई जाए तथा प्रशासन में कैसे सुधार किए जाएँ। यह समिति इस बात का भी परीक्षण करती है कि धन का विनियोग अनुमानित सीमा के अंदर किया गया है अथवा नहीं। यह समिति इस विषय पर भी सुझाव देती है कि संसद में रखे जाने वाले अनुमानों का क्या स्वरूप हो। यह प्रशासन में कुशलता लाने में तथा खर्च में कमी करने के लिए वैकल्पिक नीतियों के भी सुझाव देती है।
लोक उद्यमों से संबंधित समिति : इस समिति में 16 सदस्य होते हैं जिनमें से 10 लोकसभा तथा 5 राज्यसभा द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व की एकल संक्रमणीय मत पद्धति द्वारा निर्वाचित किए जाते हैं। इसके सभापति की नियुक्ति लोकसभाध्यक्ष द्वारा की जाती है। यह समिति लोक उद्यमों के लेखाओं की जाँच पड़ताल करती, उनके कार्यों तथा वित्तीय विषयों का परीक्षण करती तथा नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की रिपोटों का परीक्षण करती है।
स्पष्ट है कि संसद भारतीय लोकतंत्र की एक अत्यंत शक्तिशाली संस्था है। यह भारत की सर्वोच्च विधि निर्मात्री संस्था है जिसके प्रति संघीय मंत्रिपरिषद् उत्तरदायी होती है। यह संविधान में संशोधन भी कर सकती है किंतु इसका यह अभिप्राय कदापि नहीं कि यह सर्वशक्तिमान है। यद्यपि भारत में संसदीय लोकतंत्र है तथापि हमने संसद के द्वारा पारित अधिनियमों की न्यायिक समीक्षा की व्यवस्था भी की है जिसके अनुसार न्यायपालिका संसद के अधिनियमों को अवैध घोषित कर सकती है। यथार्थ में हमारे संविधान में शासन के विधायी तथा न्यायपालिका अंगों में परस्पर प्रतिबंधों और संतुलनों का सिद्धांत अपनाया गया है।
भारतीय राष्ट्रपति
संघ सरकार की कार्यपालिका संबंधी समस्त शक्तियाँ भारतीय राष्ट्रपति में निहित हैं, जिनका प्रयोग वह प्रत्यक्ष अथवा अधीनस्थ अधिकारियों के माध्यम से करता है।
निर्वाचन प्रक्रिया
भारतीय राष्ट्रपति का निर्वाचन एक निर्वाचक मंडल के द्वारा होता है जिसके सदस्य राज्यों की विधान सभाओं के निर्वाचित सदस्य तथा संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्य होते हैं । निर्वाचन आनुपातिक प्रतिनिधित्व की एकल संक्रमणीय मत पद्धति द्वारा होता है। प्रत्येक निर्वाचक के मत का मूल्य निर्धारित करने के लिए संविधान में एक विशिष्ट प्रक्रिया की व्यवस्था की गई है।
प्रत्येक राज्य की विधानसभा के किसी निर्वाचित सदस्य के मत का मूल्य इस प्रकार निर्धारित किया जाता है : उस राज्य की कुल जनसंख्या को उस राज्य की विधान सभा के कुल निर्वाचित सदस्यों की संख्या से भाग देकर जो भाग फल आए, उसमें पुनः 1000 से भाग दिया जाता है। अब जो भाग फल आता है वह उस विधान सभा के प्रत्येक निर्वाचित सदस्य के मत का मूल्य होगा। उदाहरणार्थ किसी राज्य की जनसंख्या 60,00,000 है और उसकी विधान सभा के निर्वाचित सदस्यों की संख्या 400 है तो इस विधि के अनुसार प्रत्येक मत का मूल्य होगा: 60,00,000 / 400 = 15,000 / 1000 = 15, दूसरे शब्दों में उस राज्य की विधान सभा के प्रत्येक निर्वाचित सदस्य का मत तो एक ही होगा किंतु उस मत का मूल्य 15 होगा। इस प्रकार, समस्त राज्यों की विधान सभाओं के समस्त निर्वाचित सदस्यों के मतों के मूल्य का जोड़ किया जाएगा। जो संख्या इस प्रकार उपलब्ध होगी, वह निर्वाचक मंडल में राज्य विधान सभाओं के मतदाताओं के मूल्य का प्रतिनिधित्व करेगी।
राज्य विधान सभाओं का प्रतिनिधित्व करने वाली उपर्युक्त कुल मत संख्या में संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्यों की संख्या का भाग दिया जाएगा। जो भजनफल आएगा वह संसद के दोनों सदनों के प्रत्येक निर्वाचित सदस्य के मत का मूल्य होगा। इस प्रकार संसद के समस्त निर्वाचित सदस्यों के मतों के मूल्यों का जोड़ किया जाएगा। जो संख्या इस प्रकार उपलब्ध होगी वह संसद के दोनों सदनों के मतदाताओं के मूल्यों का प्रतिनिधित्व करेगी।
राष्ट्रपति के निर्वाचन का निर्णय उपर्युक्त दोनों प्रकार के मत मूल्यों (अर्थात् समस्त राज्य सभाओं के निर्वाचित सदस्यों के मत-मूल्यों तथा संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्यों के मत मूल्यों) के योग के आधार पर होगा।
राष्ट्रपति के निर्वाचन के लिए इस प्रणाली को अपनाने के पीछे एक कारण तो यह था कि विभिन्न राज्यों के निर्वाचित सदस्यों के प्रतिनिधित्व में समरूपता रहे। यद्यपि प्रत्येक राज्य की विधान सभा के सदस्यों की संख्या उस राज्य की जनसंख्या के अनुपात में रहती है तथापि संविधान, विधान सभाओं के सदस्यों की एक अधिकतम तथा एक न्यूनतम संख्या भी निर्धारित करता है जिसके कारण विभिन्न राज्यों के प्रतिनिधित्व के अनुपात में असंतुलन हो सकता है। इस प्रक्रिया के फलस्वरूप यह असंतुलन समाप्त हो जाता है। इस पेचीदा प्रक्रिया को अपनाने का एक दूसरा कारण यह भी था कि संसद के दोनों सदनों के निर्वाचित सदस्यों तथा राज्यों की विधान सभा के निर्वाचित सदस्यों के मत-मूल्यों में लगभग समानता बनी रहे।
योग्यता
कोई व्यक्ति जो भारत का नागरिक हो, कम से कम 35 वर्ष की आयु प्राप्त कर चुका हो, लोकसभा के लिए निर्वाचित होने की योग्यता रखता हो तथा भारत सरकार या राज्य सरकार या किसी स्थानीय स्वशासी संस्था के अंतर्गत लाभ के पद को धारण न करता हो, राष्ट्रपति पद के निर्वाचन में प्रत्याशी हो सकता है। राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, किसी राज्य का राज्यपाल अथवा केंद्रीय या राज्य सरकार के किसी मंत्री को इस प्रयोजन के लिए राज्य के आधीन लाभ पद का धारक नहीं माना जाएगा।
शपथ
पद-धारण करने से पूर्व राष्ट्रपति को एक निर्धारित प्रपत्र पर भारत के मुख्य न्यायाधीश अथवा उसकी अनुपस्थिति में उच्चतम न्यायालय के वरिष्ठतम न्यायाधीश के सम्मुख शपथ लेनी पड़ती है।
पद-मुक्ति की प्रक्रिया
पद ग्रहण करने के दिन से पाँच वर्षों तक वह अपने पद पर बना रहता है। इससे पूर्व भी वह कभी भी अपने पद से त्यागपत्र दे सकता है। संविधान के उल्लंघन के आधार पर महाभियोग की कार्यवाही के माध्यम से उसे कभी भी अपदस्थ किया जा सकता है। इसके लिए संसद के किसी भी सदन में उस पर आरोप लगाया जा सकता है। ऐसा आरोप सदन के एक प्रस्ताव के रूप में आना चाहिए। ऐसा प्रस्ताव तभी लाया जा सकता है जब 14 दिनों में पूर्व इसकी सूचना दी जाए तथा सदन के कम से कम एक चौथाई सदस्य उस पर अपने हस्ताक्षर करें। अगर यह प्रस्ताव कम से कम उस सदन के कुल सदस्यों की दो तिहाई संख्या से पारित हो जाता है तब ऐसा प्रस्ताव दूसरे सदन के पास भेजा जाता है जो उस आरोप की जाँच पड़ताल करता अथवा करवाता है। ऐसी किसी जाँच के समय राष्ट्रपति को अपना पक्ष स्वयं रखने अथवा अपने प्रतिनिधि द्वारा रखने का अवसर मिलना चाहिए। जाँच पड़ताल के उपरांत वह सदन भी (जिसने आरोप की जाँच-पड़ताल की) अपने कुल सदस्यों के कम से कम दो तिहाई बहुमत से यह प्रस्ताव पारित कर दे कि राष्ट्रपति के विरुद्ध आरोप सिद्ध हो चुका तो जिस दिन ऐसा प्रस्ताव पारित होता है उस दिन से राष्ट्रपति अपदस्थ हो जाता है।
कार्यपालिका शक्तियाँ
संघ सरकार की कार्यपालिका संबंधी समस्त शक्तियों का उपयोग राष्ट्रपति के नाम से किया जाता है। वही प्रधानमंत्री को नियुक्त करता है। संविधान की व्यवस्था के अनुसार वह किसी ऐसे व्यक्ति को इस पद पर नियुक्त करता है जिसके बारे में उसे यह अनुभव हो कि वह लोकसभा में सदस्यों के बहुमत का विश्वास प्राप्त कर लेगा। संविधान की यह सुस्थापित परंपरा है कि लोकसभा में जिस दल का अथवा (यदि किसी एक दल को बहुमत न प्राप्त हो तो) दल समूह का बहुमत हो, राष्ट्रपति उसे मत्रिमंडल गठित करने के लिए आमंत्रित करता है। वह प्रधानमंत्री के परामर्श से अन्य मंत्रियों को नियुक्त करता तथा उनमें मंत्रालयों का वितरण करता है। इसके अतिरिक्त राष्ट्रपति भारत के महा न्यायवादी, नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक, संघीय लोक सेवा आयोग के अध्यक्ष और अन्य सदस्यों, उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के मुख्य न्यायाधीशों, राज्यों के राज्यपालों, संघीय क्षेत्रों के मुख्य आयुक्तों, वित्त आयोग के सदस्यों, भाषा आयोग, निर्वाचन आयोग, भारत के राजदूतों तथा अन्य राजनयिकों की नियुक्ति करता है। वह अंतर्राज्य परिषद्, अनुसूचित क्षेत्रों के प्रशासन के संबंध में रिपोर्ट देने वाले आयोग, अनुसूचित जातियों और जन जातियों के आयुक्त, पिछड़ा वर्ग आयोग तथा अल्प संख्यक आयोग की नियुक्ति करता है।
राष्ट्रपति को संघ सरकार की गतिविधियों के बारे में जानकारी प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त है। यदि राष्ट्रपति चाहे तो वह किसी ऐसे विषय को मंत्रिपरिषद् के सम्मुख रखवा सकता है जिसके बारे में किसी मंत्री ने निर्णय लिया हो किंतु जो मंत्रिपरिषद् के सम्मुख विचारार्थ नहीं रखा गया हो।
विधायी शक्तियाँ
चूँकि राष्ट्रपति संसद का एक अभिन्न अंग है, अतः उसे कुछ विधायी शक्तियाँ प्राप्त हैं। वह संसद के दोनों सदनों के सत्रों का आह्वान करता, उसे सत्रावसान करता, लोकसभा को विघटित करता, दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन को संबोधित करता, दोनों सदनों अथवा एक सदन को संदेश भेजता, दोनों सदनों द्वारा पारित विधेयक पर अपनी सहमति देता, किसी गैर धन विधेयक पर दोनों सदनों में मतभेद होने की स्थिति में दोनों का संयुक्त अधिवेशन बुलाता तथा अध्यादेश जारी करता है। उसे राज्य सभा में 12 सदस्यों को मनोनीत करने तथा लोकसभा में यदि आम चुनाव के बाद वह यह अनुभव करता है कि आंग्ल भारतीय समुदाय को लोकसभा में पर्याप्त प्रतिनिधित्व प्राप्त नहीं है तो लोकसभा में आंग्ल भारतीय समुदाय के दो सदस्य मनोनीत कर सकता है।
विधायिका की किसी कार्यवाही को विधि बनने से रोकने की शक्ति वीटो शक्ति कहलाती है संविधान राष्ट्रपति को तीन प्रकार के वीटो देता है।
न्यायिक शक्तियाँ
उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के अतिरिक्त राष्ट्रपति को किसी अपराध के लिए सिद्ध दोष ठहराए गए किसी व्यक्ति के दंड को क्षमा, उसका प्रविलंबन ( reprieve), विराम ( respite ) या परिहार (remission) करने की अथवा दंडादेश के निलंबन (suspend), या लघुकरण (commute) की शक्ति उन सभी मामलों में प्राप्त होगी जिनमें 1, दंड या दंडादेश, सैनिक न्यायालय ने दिया है, 2, दंड या दंडादेश ऐसे विषयः विरुद्ध अपराध के लिए दिया गया है जिस विषय तक संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार है, 3. दंडादेश मृत्यु दंडादेश है।
क्षमा, प्रविलंबन, विराम, परिहार और लघुकरण शब्दों का प्रयोग कुछ विशिष्ट अर्थों के लिए किया गया है। क्षमा-दान एक अनुकम्पा का कार्य है। कोई अधिकार पूर्वक इसकी माँग नहीं कर सकता। जिस व्यक्ति को क्षमा कर दिया जाता है उसकी स्थिति ऐसी हो जाती है जैसे कि उसने कभी उस अपराध को किया ही न हो। क्षमा दान विशुद्ध रूप से एक कार्यपालिका का कार्य है, प्रविलंबन से अभिप्राय विधि द्वारा निर्धारित दंड को अस्थायी रूप से टालना है, विराम से अभिप्राय दंड के क्रियान्वयन को भविष्य के लिए विलंबित करना है, परिहार से अभिप्राय दंड के स्वरूप में परिवर्तन किए बिना उसकी मात्रा में परिवर्तन करना है जैसे आजीवन कारावास को 10 वर्ष के कारावास में परिवर्तित करना, लघुकरण से अभिप्राय दंड के स्वरूप में परिवर्तन कर उसे घटाना है, जैसे मृत्युदंड को आजीवन कारावास के रूप में परिवर्तित कर दिया जाए।
वित्तीय शक्तियाँ
प्रत्येक वित्तीय वर्ष में राष्ट्रपति की ओर से वित्तमंत्री संसद के दोनों सदनों के सम्मुख वार्षिक वित्तीय विवरण प्रस्तुत करता है। राष्ट्रपति की संस्तुति के बिना कोई धन विधेयक लोकसभा में किया जा सकता। ऐसा कोई विधेयक जो भारत की प्रस्तुत नहीं संचित निधि से खर्च करने की व्यवस्था करता हो संसद के दोनों सदनों में से किसी सदन के द्वारा उस समय तक पारित नहीं किया जा सकता जब तक राष्ट्रपति ने ऐसा करने की संस्तुति न की हो। राष्ट्रपति की संस्तुति के बिना किसी अनुदान की माँग सदन में नहीं रखी जा सकती।
सेना संबंधी शक्तियाँ
सैन्य बलों की सर्वोच्च शक्ति राष्ट्रपति में सन्निहित है, किंतु इसका प्रयोग विधि द्वारा नियमित होता है। संसद जल, थल तथा नभ, तीनों सैन्य बलों तथा संघ राज्य के अन्य सशस्त्र बलों के संबंध में कोई भी विधि बना सकती है। संसद युद्ध और शांति के संबंध में विधि बना सकती है। राष्ट्रपति संसद की सहमति के बिना अथवा संसद की सहमति की संभावना के आधार पर न तो किसी देश के विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर सकता है और न ही कहीं सैन्य बलों को तैनात कर सकता है।
वैदेशिक संबंधों से संबंधित शक्तियाँ
देश का समूचा राजनयिक कार्य राष्ट्रपति के नाम से संचालित किया जाता है। वह विदेशों में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाले राजदूतों तथा अन्य राजनयिक प्रतिनिधियों को नियुक्त करता है। विदेशों के जो राजनयिक प्रतिनिधि भारत में भेजे जाते हैं वे अपना परिचयपत्र राष्ट्रपति के सम्मुख प्रस्तुत करते हैं। समस्त अंतर्राष्ट्रीय संधियों और समझौते राष्ट्रपति के नाम पर किए जाते हैं किंतु बाद में संसद द्वारा उनकी पुष्टि आवश्यक है।
आपातकालीन शक्तियाँ
भारतीय संविधान तीन प्रकार की स्थितियों में राष्ट्रपति को आपातकाल की घोषणा करने का अधिकार देता है|
संसद के प्रत्येक सदन की स्वीकृति से संबद्ध प्रस्ताव का उस दिन की कुल संख्या के पूर्ण बहुमत तथा उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों के दो तिहाई बहुमत से पारित होना आवश्यक है। छह महीनों की अवधि समाप्त होने के उपरांत भी यदि ऐसे आपातकाल को आगे जारी रखना हो संसद के दोनों सदनों द्वारा इस संबंध में प्रस्ताव पारित करना आवश्यक है। जब- जब संसद के दोनों सदन इस प्रकार के प्रस्ताव पारित करेंगे तब तब आपातकाल की अवधि 6-6 महीने तक बढ़ती रहेगी। आपातकाल की उद्घोषणा के प्रभाव - जब कभी संविधान के अनुच्छेद 352 के अंतर्गत आपातकाल की उद्घोषणा होती है तो इसके ये प्रभाव होते हैं:
ऐसी किसी भी घोषणा को दो महीनों के भीतर संसद के दोनों सदनों के सम्मुख रखना और उनकी स्वीकृति प्राप्त करना आवश्यक है। यदि ऐसी घोषणा उस समय की जाती है जब लोकसभा विघटित हो तो राज्य सभा की सहमति प्राप्त हो जाने पर वह दो महीनों से आगे भी लागू रहेगी। किंतु नवनिर्वाचित लोकसभा द्वारा उसकी प्रथम बैठक के आरंभ से 30 दिन के भीतर ऐसी घोषणा की स्वीकृति आवश्यक है। जिस दिन लोकसभा उक्त घोषणा पर अपनी स्वीकृति देती है उस दिन से अगले 6 महीनों तक वह लागू रहेगी। संसद के दोनों सदन प्रस्ताव पास कर इस अवधि को 6 महीने और आगे बढ़ा सकते हैं। ऐसा वे बार-बार कर सकते हैं किंतु किसी स्थिति में अर्थात जब संविधान के अनुच्छेद 352 के अंतर्गत घोषित आपातकाल प्रभावी है तथा निर्वाचन आयोग यह प्रमाणित कर दे कि उस राज्य में निर्वाचन करने में कठिनाइयाँ होने का कारण ऐसी (संवैधानिक तंत्र की विफलता के कारण) घोषणा का जारी रहना आवश्यक है तो यह अवधि एक वर्ष से आगे भी बढ़ाई जा सकती है।
वित्तीय आपात की उद्घोषणा के प्रभाव : जब संविधान अनुच्छेद 360 के अंतर्गत घोषित उद्घोषणा लागू रहती है तो संघीय कार्यपालिका को यह अधिकार मिल जाता है कि वह राज्य सरकार को यह निर्देश दे कि वह अपनी वित्तीय व्यवस्था का संचालन कैसे करें। ऐसे निर्देश में यह भी व्यवस्था हो सकती है कि विधान मंडल द्वारा पारित धन विधेयक को राष्ट्रपति के विचारार्थ सुरक्षित रखा जाए। राष्ट्रपति संघ राज्य की सेवा में कार्यरत कर्मचारियों के किसी वर्ग अथवा समस्त कर्मचारियों के जिनमें उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालयों के न्यायाधीश भी सम्मिलित हैं, वेतन, भत्ते आदि में कटौती का निर्देश भी दे सकता है।
राष्ट्रपति की स्थिति
उपराष्ट्रपति
भारतीय संविधान में एक उपराष्ट्रपति की व्यवस्था है। संविधान उपराष्ट्रपति द्वारा किए जाने वाले कार्यों को दो वर्गों में विभक्त करता है। जब कभी राष्ट्रपति के निधन, त्यागपत्र अथवा अपदस्थता के कारण उसका पद रिक्त हो जाता है तो उपराष्ट्रपति, कार्यवाहक राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है। जब कभी अनुपस्थिति, अस्वस्थता अथवा किसी अन्य कारण से राष्ट्रपति अपने कर्तव्यों का निर्वाह करने में असमर्थ हो तो उपराष्ट्रपति स्थानापन्न राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है।
उपराष्ट्रपति का निर्वाचन संसद के दोनों सदनों के संयुक्त अधिवेशन में करते हैं। निर्वाचन आनुपातिक प्रतिनिधित्व की एकल संक्रमणीय मत पद्धति द्वारा किया जाता है। निर्वाचन से संबंधित सभी आशंकाओं तथा विवादों का निपटारा उच्चतम न्यायालय द्वारा किया जाता है।
कोई व्यक्ति जो, भारत का नागरिक हो 35 वर्ष की आयु प्राप्त कर चुका हो, राज्य सभा का सदस्य निर्वाचित होने की योग्यता रखता हो तथा जो भारत सरकार, राज्य सरकार या स्थानीय शासन के आधीन किसी लाभ के पद को धारण न करता हो, उपराष्ट्रपति पद पर निर्वाचित हो सकता है।
पद को ग्रहण करने से पूर्व उपराष्ट्रपति को राष्ट्रपति अथवा उसके द्वारा नियुक्त किसी व्यक्ति के सम्मुख पद की शपथ दिलाई जाती है। उपराष्ट्रपति पद-ग्रहण की तारीख से पाँच वर्ष तक अपने पद पर रहता है। राष्ट्रपति को संबोधित कर वह अपने पद से त्यागपत्र दे सकता है। राज्यसभा के सदस्यों के बहुमत से पारित प्रस्ताव तथा उसकी लोकसभा द्वारा पुष्टि हो जाने पर वह अपने पद से अपदस्थ हो जाता है। किंतु ऐसे किसी प्रस्ताव को लाने के लिए 14 दिनों की पूर्व सूचना आवश्यक है। एक रोचक तथा अनुपम घटना उस समय घटित हुई जब वी.वी. गिरि भारत के उपराष्ट्रपति थे तथा राष्ट्रपति जाकिर हुसैन के निधन के कारण रिक्त स्थान पर कार्यकारी राष्ट्रपति के रूप में कार्य कर रहे थे। जब राष्ट्रपति के निर्वाचन की अधिसूचना घोषित हुई तो वी.वी. गिरि ने चुनाव लड़ने का निश्चय किया। किंतु नामांकन से पूर्व वे अपने पद से त्यागपत्र देना चाहते थे। उन्होंने अपना त्यागपत्र राष्ट्रपति को संबोधित किया तथा उसे राष्ट्रपति की टेबल पर रखा और चल दिए।
उपराष्ट्रपति को संसद द्वारा राज्य सभा के सभापति के रूप में कार्य करने के लिए निर्धारित वेतन, भत्ते आदि प्राप्त होते हैं। जब कभी वह कार्यकारी अथवा स्थानापन्न राष्ट्रपति के रूप में कार्य करता है तो उस समय वह राज्यसभा के सभापति के रूप में कार्य नहीं कर सकता और उस समय उसे वे सब शक्तियाँ, भत्ते तथा विशेषाधिकार उपलब्ध होते हैं जो राष्ट्रपति को प्राप्त हैं।
उपराष्ट्रपति पदेन राज्यसभा का सभापति होता है। वह राज्यसभा की बैठकों की अध्यक्षता करता तथा उसकी समस्त कार्यवाही का संचालन करता है। किंतु जब कभी उसे अपदस्थ करने से संबंधित प्रस्ताव विचाराधीन हो तो वह उक्त कार्यों से विरत रहता है। वह उच्च सदन में आचरण के नियमों का पालन करवाता है। जब कभी किसी प्रश्न पर सदन में मत विभाजन होता है तो वह मतों की गिनती करता तथा परिणाम की घोषणा करता है। किसी भी प्रस्ताव अथवा प्रश्न पर यदि कोई विवाद उठ जाए कि उसे विचारार्थ स्वीकार किया जाए अथवा नहीं तो इसका निपटारा वह अपने निर्णय से करता है। साधारणतया वह सदन के किसी प्रस्ताव या विधेयक पर मतदान नहीं करता किंतु जब सदन में मतदान दोनों पक्षों में एक समान जाए तो वह निर्णायक मत देता है। जब कभी कोई सदस्य कार्य स्थगन प्रस्ताव रखता है तो वह निर्णय देता है कि उसे विचारार्थ स्वीकार किया जाए अथवा नहीं। कभी-कभी कुछ केंद्रीय विश्वविद्यालयों का वह चांसलर भी होता है।
केंद्रीय मंत्रिपरिषद्
संविधान एक मंत्रिपरिषद् की व्यवस्था करता है जिसका प्रमुख प्रधानमंत्री होता हैं। मंत्रिपरिषद् राष्ट्रपति की सहायता करती एवं उसको परामर्श देती है। राष्ट्रपति को उस परामर्श के अनुसार कार्य करना होता है। राष्ट्रपति पहले प्रधानमंत्री को नियुक्त करता है तथा तत्पश्चात उसके परामर्श से अन्य मंत्रियों को नियुक्त करता है। राष्ट्रपति किसी ऐसे व्यक्ति को प्रधानमंत्री नियुक्त करता है जिसके बारे में उसकी यह धारणा हो कि वह लोकसभा के सदस्यों के बहुमत का समर्थन प्राप्त कर सकेगा। यदि लोकसभा में किसी एक दल को पूर्ण बहुमत प्राप्त है तथा वह अपना नेता निर्वाचित कर लेता है तो राष्ट्रपति को उस नेता को ही प्रधानमंत्री नियुक्त करना पड़ता है। यदि लोकसभा में किसी एक दल को पूर्ण बहुमत प्राप्त नहीं है तथा दो या दो से अधिक दल मिलकर समान कार्यक्रम के आधार पर एक संयुक्त दल बना लेते हैं तथा अपना एक नेता भी चुन लेते हैं तो राष्ट्रपति उस नेता को प्रधानमंत्री पद के लिए आमंत्रित करता है।
तत्पश्चात् राष्ट्रपति प्रधानमंत्री से उन व्यक्तियों के नामों की सूची माँगता है जिन्हें वह मंत्री पद पर नियुक्त करना चाहता है। राष्ट्रपति को ऐसे व्यक्तियों को जिनकी संस्तुति प्रधानमंत्री ने की है, मंत्री पद पर नियुक्त करना पड़ता है।
मंत्री तीन प्रकार के होते हैं: 1. केबिनेट मंत्री 2. राज्य मंत्री तथा 3. उप मंत्री।
केबिनेट मंत्रियों की एक छोटी समिति होती है जिसमें वे मंत्री नियुक्त किए जाते हैं जिनका दल में महत्त्वपूर्ण स्थान है तथा जो महत्त्वपूर्ण विभागों के मंत्री होते हैं। इसकी बैठकें प्रायः होती रहती है तथा शासन के महत्त्वपूर्ण निर्णय इसी के द्वारा लिए जाते हैं। कैबिनेट मंत्री एक अथवा अधिक विभागों का अध्यक्ष होता है। राज्य मंत्री दो प्रकार के होते हैं। कुछ राज्य मंत्रियों को अपने मंत्रालय का स्वतंत्र कार्यभार दिया जाता है तथा कुछ राज्य मंत्री किसी केबिनेट मंत्री के अधीन कार्य करते हैं। जब कभी उनके मंत्रालय से संबद्ध किसी विषय पर केबिनेट में मंत्रणा होती है तो संबद्ध राज्य मंत्री को केबिनेट की उक्त बैठक में बुलाया जा सकता है। उपमंत्री या तो किसी केबिनेट मंत्री अथवा किसी राज्य मंत्री की देखरेख में कार्य करते हैं। उनका प्रमुख कार्य केबिनेट मंत्री अथवा राज्य मंत्री को, जैसी भी स्थिति हो, उनके कार्यों को निष्पादित करने में सहायता देनी होती है।
मंत्रिपरिषद का आकार - 91वें संशोधन अधिनियम (2003) से पहले, मंत्रिपरिषद का आकार समय की आवश्यकताओं और स्थिति की आवश्यकताओं के अनुसार निर्धारित किया जाता था। लेकिन इससे मंत्रिपरिषद का आकार बहुत बड़ा हो गया। इसके अलावा, जब किसी भी दल के पास स्पष्ट बहुमत नहीं था, तो संसद के सदस्यों को मंत्री पद देकर उनका समर्थन हासिल करने का प्रलोभन था क्योंकि मंत्रिपरिषद के सदस्यों की संख्या पर कोई प्रतिबंध नहीं था। ऐसा कई राज्यों में भी हो रहा था। इसलिए, एक संशोधन किया गया था कि मंत्रिपरिषद लोक सभा (या राज्यों के मामले में विधानसभा) के सदस्यों की कुल संख्या के 15 प्रतिशत से अधिक नहीं होगी।
प्रधानमंत्री की स्थिति
मंत्रिपरिषद् में प्रधानमंत्री को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। वही अन्य मंत्रियों का चयन करता है। जब कभी प्रधानमंत्री तथा अन्य मंत्री में किसी विषय पर मतभेद उत्पन्न हो जाए तो उस मंत्री को प्रधानमंत्री की बात माननी पड़ती है। प्रधानमंत्री किसी भी मंत्री से त्यागपत्र माँग सकता है। यदि वह त्यागपत्र नहीं देता है तो प्रधानमंत्री के परामर्श पर राष्ट्रपति उसे मंत्रिपरिषद् से हटा सकता है।
प्रधानमंत्री मंत्रिपरिषदों की बैठकों की अध्यक्षता करता है। मंत्रिपरिषद् के निर्णयों को वही राष्ट्रपति तक पहुँचाता है। जब कभी राष्ट्रपति कोई बात मंत्रिपरिषद् तक पहुँचाना चाहता है तो वह प्रधानमंत्री द्वारा ही यह कार्य करता है। प्रधानमंत्री शासन का प्रमुख प्रवक्ता होता है।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि अन्य मंत्रियों की तुलना में प्रधानमंत्री अत्यधिक शक्तिशाली है। किंतु प्रधानमंत्री सर्वशक्तिमान नहीं है। अपनी मंत्रिपरिषद् का निर्माण करते समय उसे कई बातों का ध्यान रखना पड़ता है। जैसे समाज के विभिन्न वर्गों, विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों तथा दल के विभिन्न विचार समूहों का प्रतिनिधित्व।
इन सब बातों के परिणाम स्वरूप मंत्रियों के चयन में प्रधानमंत्री की पसंद अत्यंत सीमित हो जाती है। मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि मंत्रिपरिषद् में लगभग आधे सदस्य ऐसे होते हैं जिन्हें प्रधानमंत्री चाहता है तथा लगभग आधे ऐसे होते है जिन्हें प्रधानमंत्री को लेना पड़ता है क्योंकि उसके पास कोई और विकल्प नहीं होता। यही कारण है कि प्रधानमंत्री को समकक्षों में प्रथम कहा जाता है। इसका अर्थ यह हुआ कि सभी मंत्री बराबर हैं किंतु प्रधानमंत्री को उनमें प्रथम स्थान प्राप्त है।
समूची मंत्रिपरिषद् की बैठक यदाकदा ही होती है। केबिनेट की बैठके प्रायः होती रहती हैं। सभी महत्त्वपूर्ण निर्णय केबिनेट की बैठकों में लिए जाते हैं। परंतु उन सब निर्णयों का उत्तरदायित्व मंत्रिपरिषद् ले लेती है। ऐसा हो सकता है कि कोई एक मंत्री केबिनेट के निर्णय से सहमत न हो। किंतु वह इसे सार्वजनिक रूप से प्रकट नहीं कर सकता जब तक कि वह मंत्रिपरिषद् से त्यागपत्र नहीं दे दे।
मंत्रिपरिषद् सामूहिक रूप से लोकसभा के प्रति उत्तरदायी है। इसका अभिप्राय यह हुआ कि यदि किसी एक मंत्री के विरुद्ध अविश्वास व्यक्त किया जाए तो वह समूची मंत्रिपरिषद् के विरुद्ध अविश्वास माना जाएगा। ऐसी स्थिति में प्रधानमंत्री सहित सभी मंत्रियों को अपदस्थ होना पड़ता है। संसद के दोनों सदनों के सदस्य मंत्रिपरिषद् पर प्रश्न पूछ कर, पूरक प्रश्न पूछ कर, कार्य स्थगन प्रस्ताव ला कर, ध्यान आकर्षण की सूचना देकर तथा विभिन्न संसदीय समितियों, जैसे लोक लेखा समिति, प्राक्कलन समिति, शासकीय आश्वासन समिति, लोक उद्यम समिति, विशेषाधिकार समिति, प्रदत्त विधान समिति इत्यादि के द्वारा नियंत्रण रखते हैं।
प्रशासन से संबंधित सभी नीतिगत निर्णय मंत्रिपरिषद् लेती है। यह सभी नीतिगत निर्णयों के कार्यान्वयन की देख-रेख भी करती है। यह विधेयकों को तैयार करती तथा संसद के दोनों सदनों में उन्हें पारित करवाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है ताकि वे अधिनियम बन सकें। यह बजट तैयार करती तथा संघीय शासन की आय और व्यय का नियमन करती है। यह विदेश नीति का निर्माण करती तथा अन्य देशों से संबंध संचालन करती है।
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