कबीर में योग और भक्ति का सफल समन्वय
कबीर की वाणी वह लता है जो योग के क्षेत्र में भक्ति के बीज पड़ने से अंकुरित हुई थी।
कबीरदास जिस समय पैदा हुए ये उस समय उत्तर भारत में योग और दक्षिण भारत में भक्ति की धारा जोरों पर थी। कबीर शुरू में योगमार्ग की ओर झुके हुए थे। योग चित्तवृत्ति का निरोध करता है। मन को बस में करने का यह साधन है। योग के द्वारा ब्रह्म का साक्षात्कार किया जा सकता है। कबीर ने भी खुद समाधि लगाकर उस अक्षर ब्रह्म का साक्षत्कार का किया था। कुंडलिनी जागृत कर उसे ब्रह्मरंध्र में ले जा चुके थे, गगन मंडल के अनहदनाद एवं अमृत वर्षा का उन्हें अनुभव प्राप्त थाः
गगन गरजै तहाँ सदा पावस झरै
होत झनकार, नित बजत तूरा
वेद-कत्तेब की गम्म नाहीं तहाँ
कहै कबीर कोई रमै सूरा।
कबीर पर योगियों का भरपूर असर था, पर वे शुद्ध रूप से योगमार्गी नहीं थे। इसका एक कारण तो यह था कि किसी भी साधना मार्ग के तर्कहीन, अन्ध-अनुसरण में उनकी आस्था नहीं थी। किसी राह पर थोड़ी दूर चल लेने के बाद भी कोई बात खटक गई तो उस राह को छोड़ने में उन्हें क्षण मात्र की भी देर नहीं होती थी। जब समाधि भंग हुई, जब उनमनि से तारतम्य टूटा, तब। तब तो फिर तुम उसी संसार में लौट आए। अब तुम्हारी क्या गति होगी ? तुम्हारे योग के पास इसका क्या उत्तर है:
गगना-पवना दोनों बिनसै, कहँ गया जोग तुम्हारा?
कबीरदास योगियों के द्वारा प्रभावित तो बहुत है पर वे स्वयं वही नहीं है जो योगी है। कबीर ने योग साधना की थी, पर कबीर उसका हद जानते थे। वे यह मानते थे कि सिर्फ शारीरिक और मानसिक अनुशासन से ब्रह्म को प्राप्त नहीं किया जा सकता, उसके लिए तो आत्मा का सम्पूर्ण उन्नयन आवश्यक है। वे योग के रास्ते से होकर भक्ति के क्षेत्र में आए थे। उनकी अद्वैत भावना के साथ निर्गुन प्रेम इसी कारण है।
कबीर को भक्ति की शिक्षा गुरू रामनन्द से प्राप्त हुई थी। हजारी प्रसाद द्विवेदी जी लिखते हैं, ‘‘जिस दिन से महागुरू रामानन्द ने कबीर को भक्ति रूपी रसायन दी, उस दिन से उन्होंने सहज समाधि की दीक्षा ली, आँख मूँदने और कान सूँधने के टण्टे को नमस्कार कर लिया, मुद्रा और आसन की गुलामी को सलामी दे दी।’’ जाहिर है कि कबीर नाथपंथ के योगमार्ग से आगे बढ़े और रामानन्द ‘अनन्य भक्ति‘ को अपनाकर, उन्होंने क्रान्तिकारी निर्गुण भक्ति की प्रस्तावना की। इसलिए उनकी रचनाओं में योग के भी तत्व है और भक्ति के भी। वेदान्त में जिसे ‘ब्रह्म जिज्ञासा‘ कहा गया है वह वस्तुतः भक्ति ही है। कठोपनिषद् में कहा गया है, ‘‘परमात्मा में जिसकी भक्ति श्रद्धा है, उसी से परमात्मा प्रसन्न रहते हैं।" भक्ति सूत्रकार ने कहा है, ‘अथतो ब्रह्म जिज्ञासा सा परानुरक्तिरीश्वरे!’ अर्थात् ब्रह्म जिज्ञासा और कुछ नहीं ईश्वर विषयक परम अनुरक्ति ही है।
कबीर ने अपनी साधना-पद्धति के लिए भक्ति से भी तत्व लिया और योग से भी। यदि दोनो को बिल्कुल शास्त्रीय अर्थ में न ले तो कबीर की साधना को ‘‘भक्ति योग‘‘ का नाम दिया जा सकता है। उन्होंने नाथपंथी योग से निर्गुण प्रेम पर आधारित भक्ति का स्वरूप गढा। स्पष्ट है कि कबीर ने अपनी रूचि और विवेक से तत्कालीन मार्ग एवं पद्धतियों से गुण ग्रहण किये, अंधानुकरण नहीं किया
ना हरि रीझै जप तप कीन्हें, ना काया के जारे।
ना हरि रीझै धोती छाँड़े, ना पाँचों के मारे।
दया राखि धरम को पालै, जग सो रहे उदासी
अपना सा जिव सबको जानै, ताहि मिलै अविनासी।
कबीर ने देखा था कि योगी और भक्त के स्वभाव परस्पर विरोधी हैं। एक में निर्ममता है तो दूसरे में कोमलता। योगी समाज की ऊँच-नीच भावना का मजाक उड़ाता था, जाति भेद पर व्यंग करता था, पर स्वयं को समाज के अन्य निकृष्ट जीवों से श्रेष्ठ समझता था, जबकि भक्त वर्णाश्रम व्यवस्था को मानता हुआ भी अपने को तृण से भी गया गुजरा समझता था। योग ज्ञान पर आधारित था जबकि भक्ति विश्वास पर, आस्था पर, प्रेम पर। उस समय योग से साधारण जनता आक्रांत थी। भक्ति अपने सहज स्वरूप को लेकर जनता के सामने आयी और प्रचारित किया कि ‘हरि से बड़ा हरि का नाम। साथ ही इस नाम जप से ही भव सागर के पार जाया जा सकता है।
योग को थोड़ा सहज तथा भक्ति को थोड़ा कठिन बनाकर कबीर ने अपनी रचनाओं की विचार भूमि तैयार की। ‘तेरा साई तुझमें‘ कहकर उन्होंने घट-घट में निवास करनेवाले ब्रह्म की सत्ता को स्वीकार किया है। उनकी भक्ति प्रेममूला है। उनके अनुसार कुंडलिनी को ब्रह्मरंध्र में ले जाने के लिए ‘‘लौ‘‘ लगाने की जरूरत है। कबीर उन मतों का भी विरोध करते हैं, जिनके अनुसार परम पुरूष केवल बाहरी दुनिया में रम रहा है और भीतर उसमें शुन्य है।
भीतर कहूँ तो जगमय लाजै,
बाहर कहूँ तो झूठा लो।
बाहर-भीतरः सकल निरन्तर,
गुरू परतापै दीठा लो।
कबीर दास जी जिस ब्रह्म की साधना करते थे, उसे प्रेम से ही प्राप्त किया जा सकता है। उनकी प्रेमाभक्ति में आत्मसमर्पण भी है और अकड़ भी। इसमें हार में भी जीत हैं और जीत तो जीत है ही-
हारौं तो हरि नाम है, जो जीतूँ तो दाव‘
इस सरलता और विश्वास के कारण ही जहाँ वे एक स्थान पर भगवान के निकट अतिशय विनम्र दिखते है, वहाँ दूसरे स्थान पर चुनौती देते दिख जाते हैं। ‘‘कबीर कुत्ता राम का, मुतिया मेरा नाउॅ। गलै राम की जेबड़ी, जित खैंचे तित जाऊँ।’’ में उनकी विनम्रता, प्रेम और भक्ति के आधिक्य के कारण ही है।
भक्ति के अतिरेक में उन्होंने अपने को कभी भी नीच नहीं समझा। उनके दैन्य में भी एक आत्म विश्वास है। उनका मन जिस प्रेम रूपी मदिरा से मतवाला बना हुआ था, वह ज्ञान के गुड़ से तैयार की गई थी। इसलिए कबीर में योग और भक्ति का मनोहारी तालमेल दिखाई पड़ता है। कबीरदास जनता को न ही योग की तांत्रिक साधना से डराना चाहते थे न ही भक्ति की सरलता से फुसलाना चाहते थे। इसलिए वे कहते है
मैं कहता सुरझावन हारी,
तू राख्यो अरूझाई रे।
कुछ लोग की आपत्ति है कि निर्गुण ब्रह्म के साथ भक्ति कैसे चल सकती है। इसका उत्तर है कि भक्ति भागवत विषयक प्रेम को ही कहते है। नारद पंचरात्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि निर्गुण ब्रह्म को अनन्य भाव से समस्त इन्द्रियों और मन के द्वारा सेवन करना ही भक्ति है। अद्वैत भावना भक्ति के मार्ग में बाधक नहीं है। इसलिए कबीर ने कहा है-
संतो, भक्ति सतो गुरू आनी।
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