कबीर का दर्शन
कबीर का दर्शन उपर से जितना उलझा हुआ है भीतर से उतना ही सुलझा हुआ। कबीर ब्रह्म से शुरू होकर जीव तक जाते हैं या जीव से शुरू होकर ब्रह्म तक यह कहना कठिन है। लेकिन उनके काव्य में ब्रह्म, जीव और जगत के बीच पारस्परिक दौड़ बहुत अधिक है। कबीर का जीव माया रहित होकर ही ब्रह्म हो जाता है। जगत भी जीव और ब्रह्म से पृथक सत्ता नहीं है। एक ओर जहॉं जगत ब्रह्म की अभिव्यक्ति है वहीं दूसरी ओर वह पंचभौतिक रूपों में जीव के अस्तित्व का नियामक है। इस तरह एक बिन्दु पर ब्रह्म, जीव और जगत एक-दूसरे से अभिन्न हो जाते हैं। इसी आधार पर कबीर का अद्वैत दर्शन प्रमाणित होता है।
ब्रह्म संबंधी विचार:-
कबीर का ब्रह्म अरूपात्मक सत, रज, तम आदि गुण रूप निर्मित करते हैं। कबीर सत्-रज-तम को ही माया मानते हैं। कबीर कहते हैं कि जो इन तीनों पदा से उपर उठकर चौथे पद की पहचान करेगा वही ब्रह्म को पा सकता है।
रज गुण, तम गुण, सत गुण कहिबे, य सव तेरी माया।
चौथे पद को जो जन चिन्हे तिनहि परमु पद पाया।।
तीनों पद को चाहने वाले तो बहुत मिलते हैं लेकिन चौथे पद के चाहने वाले नहीं| जबकि चौथा पद ही परम ब्रह्म है|
तिन सनेहि बहू मिले चौथे मिले न कोई
कबीर का ब्रह्म निर्गुण, अलख, अरूप होकर भी निषेधात्मक नहीं है, क्योंकि निर्गुण में ही गुण और गुण में ही निर्गुण समाया हुआ है। परस्पराबलम्बन के कारण ब्रह्म की सत्ता रूपात्मक जगत से पृथक नहीं रह पाती इसलिए वह निर्गुण होकर भी इस सृष्टि के कण-कण में समाया हुआ है।‘
नाति सरूप वरण नहीं जाके धटि-धटि रहया समायो’
कबीर का ब्रह्म शूण्य होने के कारण ही विशेषणों, लक्षणों से विभूषित नहीं किया जा सकता। कबीर का ब्रह्म न तो अद्वैतवादियों का अद्वैत ब्रह्म है और न ही भक्तों का सगुण ब्रह्म। वह अद्वैत होकर भी प्रेम का अविषय नहीं है। वह दया, माया से रहित नहीं है। जीव उससे पिता-पुत्र, पति-पत्नी, मालिक नौकर का संबंध जोड़ सकता है। वह कीरी से लेकर कुँजर तक में समाया हुआ है। वही प्रेम का दुःख देता भी है और हरता भी है| चुँकि वह ब्रह्म निर्गुण और अद्वैत होकर भी भक्ति का विषय बनता है इसलिए वह अद्वैत ब्रह्म और सगुण के बीच का ब्रह्म है। पक्षों में बाँटकर देखने से ब्रह्म का एक पक्षीय ज्ञान ही होता है। पूर्ण ब्रह्म को जानने के लिए पूर्ण की पूर्ण दृष्टि आवश्यक है।
कबीर का ब्रह्म कर्त्ता है कर्मा नहीं। ‘कहे कबीर करता न होयी जो करमा हाथ बिकाई’। कबीर राम और कृष्ण को कर्त्ता नहीं मानते क्योंकि ये कर्म के हाथ बिके हुए ‘माया केरे’ जीव हैं। ब्रह्म हर बंधन से मुक्त है| उसका न आदि है न अंत है| उसका न रंग है न रूप है| लेकिन वह हर घट में समाया हुआ है। कोई भी सेज उससे खाली नहीं है, ‘हर घट मेरा साईयां सूनी सेज न कोए’। कबीर ने ईश्वर को बन बन ढुंढ़ा है लेकिन वह मिला नहीं, कबीर को मिल गया राम सरीखा जन और उसने उसका सारा काम बना दिया फिर राम की क्या जरूरत
कबीरा बन बन मै फिरा कारण अपने राम।
राम सरीखा जन मिले, तिन सारे सब काम।।
कबीर निर्गुन राम की खोज शुरू करते हैं और पहुँच जाते हैं राम सरीखा जन तक। राम सरीखा जन में राम के दर्शन अरूप पर रूप का आरोप नहीं है| यह रूप में अरूप का दर्शन है। कबीर का शूण्य ब्रह्म अंततः जीव में ही मूर्तिमान होता है, जिससे उसकी अभिन्नता प्रतिपादित होती है। चूकि ब्रह्म सव में अपने को प्रकट करता है इसलिए वह सब जैसा होकर भी किसी एक जैसा नहीं है। इसी कारण वह अमूर्त्त है, अन्नत है
कहे कबीर हरि ऐसा,
जहाँ जैसा, तहाँ तैसा।
माया संबंधी विचार:-
‘माया’ शब्द को विद्वानों ने मा धातु से व्युत्पन्न बताया है जिसका अर्थ है सीमा, परिधि, माप। कबीर का माया संबंधी दृष्टिकोण या तो अद्वैत दर्शन के अनुरूप है या फिर लौकिक या व्यवहारिक। कबीर आदि संतो ने इस माया को बहुत दुतकारा है। कबीरदास जी मानते हैं कि माया सत-रज-तम का ही सम्मिलित रूप है।
माया महा ठगिनि हम जानि
तिर गुण फांस लिये कर डोले, बोले मधुरी बाणी।
कबीर दास जी नारी के कामिनी रूप को माया का सबसे प्रभावाशाली रूप मानते हैं और उससे बचने की सलाह देते हैं। इस दृष्टिकोण को नारी विरोधी न मानकर नारी के भोगमूलक एकायामी स्वरूप का विरोध समझाना चाहिए। यदि नारी पुरूष के लिए माया है तो नारी के लिए पुरूष भी माया ही है। कोई भी घर ऐसा नहीं है जहाँ इस कामिनी रूपी माया ने अपना पाँव नहीं फैला रखा है ।
केसव के घर कमला भय बैठी, शिव के भयी भवानी।
जोगी के घर जोगिन भय बैठी, राजा के घर रानी।।
इस माया के प्रभाव के कारण ही अच्छे भले अपने जीवन का मूल लक्ष्य नहीं समझ पाते और विषय वासनाओं में आकंठ डूब कर इस संसार में उलझने लगते है। कबीर ने इस कामिनी रूपी माया को त्यागने की सलाह दी है।
कामिनी के बाद माया का दूसरा प्रभावी रूप है कंचन अर्थात् धन सम्पत्ति। कबीर को दुःख है तो इसका कि सारे लोग इस धन संपत्ति के पीछे भाग रहे है
सत नाम कड़वा लगे, मिठो लागे दाम।
कबीर दास जी कहते है कि यह धन सम्पत्ति किसी के साथ नहीं जाती यहीं नष्ट हो जाती है
माया जोरि जोरि करें इकट्ठी, हम खईएं लड़िका व्यवसायी।
सो धन चोरि मुसी ले जावे, रहा सदा ले जाए जमाई।।
कबीर दास जी काम, क्रोध, अहंकार, ईष्या, द्वेष आदि को भी माया हीं धोषित किया है। इससे यह स्पष्ट है कि कबीरदास जी ने माया का प्रायः लौकिक अर्थ हीं लिया है।
जीव संबंधी विचार:-
कबीरदास जी दार्शनिक दृष्टि से अद्वैतवादी और धार्मिक दृष्टि से व्यवहारवादी है। उन्होंने ईश्वर को ही जीव और जीव को ही ईश्वर कहा है। माया से वसीभूत होकर ही ईश्वर जीव हो जाता है और माया से मुक्त होकर जीव ईश्वर हो जाता है। वैसे तो जीव 84 लाख योनियों में फैले हुए हैं लेकिन कबीर की चिंता के केन्द्र में है मनुष्य योनि वाला जीव क्योंकि माया का असर सबसे अधिक इसी जीव पर है।
कबिरदास के यहाँ विभिन्न आधारों पर जीव का वर्गीकरण मिलता है -
क) जन्मविधि के आधार पर जीव-अंडज, पिंडज, उद्विज,
ख) गति के आधार पर-स्थावर एवं जंधम
ग) संचरण क्षेत्र के आधार पर-थलचर, जलचर, नभचर।
कबीर की राय में यह मनुष्य उस बगुले की तरह है जो अपने आस-पास बिखरे हुए मोतियों को छोड़कर एक छोटी सी मछली को पकड़ने के लिए योग मुद्रा साधे बैठा है। माया में एक नहीं बल्कि सब के सब उलझे हैं
‘एक न भूला दोयि न भूला, भूला सब संसार’
माया युक्त ब्रह्म ही जीव है और माया मुक्त जीव ही ब्रह्म है।
जगत संबंधी विचार:-
यह जगत ब्रह्म की अभिव्यक्ति है। वह उस एक अकेले ब्रह्म का ही फैलाव है। कबीर कहते हैं
एके राम देख्या सबहि में, कहे कबीर मनमाना।
माटि एक भेख धरि नाना, तामें ब्रह्म समाना।।
ब्रह्म एक ही है लेकिन माया के कारण हीं वह अनेक रूपों में दिखायी पड़ता है। यदि जल स्थिर है तो उसमें एक हीं चाँद प्रतिबिम्बत होता है लेकिन जल को आंदोलित कर देने पर उसी जल में असंख्य चाँद प्रतिबिम्बत होने लगते हैं। कुछ इसी तरह ब्रह्म एक ही है, लेकिन माया से आंदोलित मन में, वह भिन्न भिन्न रूपों में दिखायी पड़ता है। ब्रह्म बिम्ब है, तो जगत है उसका अनेक रूपात्मक प्रतिबिम्ब। माया का प्रभाव दूर होते ही बिम्ब और प्रतिबिम्ब की एकता सिद्ध हो जाती है।
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