मैला आँचल की आंचलिकता
अंचल विशेष का गुण धर्म आंचलिकता है। आंचलिक रचनाएँ अंचल विशेष के रीतिरिवाज, रहन-सहन वेश-भुशा, सपने एवं अभिलाषाओं का जीवन्त दस्तावेज होती है लेकिन इससे यह ध्वनि नहीं निकलती की अंचल के सभी प्राणियों का जीवन एक रस एक रूप होता है। यहाँ भी एक की अभिलाषाएँ दूसरे की अभिलाषाओं से टकराती है। एक का प्रेम दूसरे की घृणा का विषय बनता है। इंसानियत, हैवानियत, दया, प्रेम घृणा को लेकर यहाँ भी घात-प्रतिघात चलता रहता है। स्थानीय रंगत, रीति-रिवाज, रहन-सहन को किसी रचना पर आच्छादित कर देने मात्र से आंचलिक उपन्यास पुरा नहीं हो जाता। आंचलिकता सिर्फ वाह्य रंगों में नहीं है और न हीं अंचल विशेष की चौहदी के सर्वेक्षण में, आंचलिकता अंचल विशेष के चिरत्रों के यथार्थ अंकन में है।
आंचलिकता राष्ट्रीयता का विलोम नहीं है। अंचल राष्ट्र से निर्पेक्ष नहीं होता। अंचल या जनपद भी राष्ट्र का ही अंग होता है। जिस तरह अंचल का नाम लेने से राष्ट्र खंडित नहीं होता उसी तरह आंचलिकता से राष्ट्रीयता के टुकड़े नहीं होते।
रेणु जी शुष्क जीवन में भी रस तलाशने वाले, लोक संस्कृति के महागायक हैं। उनका कथाकार व्यक्तित्व लोक कला, लोक कथा लोक संस्कृति और लोक गीतों के तत्वों से बुना हुआ है। लोक जीवन के स्वभाव और संस्कार से वे परिचित हैं। वे स्थानीय लोक जीवन में ही डुबकर अपने चरित्रों को गढ़ते चलते हैं। लोक जीवन से जुड़ाव और अपने क्षेत्र से गहरी आत्मीयता हीं उनकी ताकत है। इसी आधार पर वे आंचलिक जीवन और समस्याओं का साक्षात्कार करते हैं। अपनी लोक कथा और लोक चेतना के बल पर हीं वे ढ़ाई-तीन वर्षों के काल को उपन्यास में जिस तरह बांधा है वह शताब्दियों को अपने कथा फलक पर उतारने वाले रचनाकारों के लिए ईर्ष्या का विषय है।
आंचलिकता सामान्यता में नहीं विशिष्टता में है। जो सामान्य, टाइप से भिन्न है वही विशिष्ट है। रेणु जी के मैला आंचल का मेरीगंज गाँव सामंती व्यवस्था में जकड़ा हुआ, गरीबी और जहालत में सांस लेता हुआ, अंधविश्वासों में दम तोड़ता हुआ सामान्य गाँव हीं है अन्य गाँवों की तरह , लेकिन रेणु जी पुर्णिया की बोली-वाणी, वहाँ के रीति-रिवाज, मिथक और लोक संस्कृति का प्रयोग कर इस गाँव को अन्य गाँवों से भिन्न और विशिष्ट बना देते हैं। इसकी आंचलिकता अन्य गाँवों से इसकी भिन्नता में ही निहित है। दूसरी बात यह कि रेणु जी ने हिन्दी उपन्यास को परम्परागत नायक से मुक्ति दिलायी। आंचलिक उपन्यास में व्यक्ति नायक नहीं होता, पूरा अंचल हीं नायक होता है। मैला आंचल में भी मेरीगंज हीं अपनी विशेषताओं के साथ नायक है। रेणु ने इसकी भूमिका में लिखा, ‘‘कथानक है पूर्णिया .......... मैंने इसके एक हिस्से के एक ही गाँव को पीछड़े गाँव का प्रतीक बनाकर इस उपन्यास कथा का क्षेत्र बनाया है।’’ रेणु जी इस अंचल के सरल जटिल संश्लिष्ट जीवन का अनेकानेक चित्र देकर पीछड़े गाँव, पीछड़े वर्ग और जिंदगी की दौर में पिछड़ गए लोगों को कथा के केन्द्र में ले आते हैं। उन्होंने अंचल से जुड़े हुए जीवन को इस तरह चित्रांकित किया है कि पूरा अंचल मोहक कलाकृतियों से अटा एक बड़ा कैनवास दिखाई पड़ने लगता है। इस कैनवास पर उभरे चित्र हृदयग्राही भी हैं और हृदयविदारक भी।
आंचलिक उपन्यास आंदोलन की शुरूआत मैला आंचल से होती है। लेकिन यही उपन्यास उस आंदोलन- की चरम उपलब्धि भी है। यह आंचलिक आंदोलन गाँवों के उपेक्षित सामुहिक जीवन को साहित्यिक चिंता के केन्द्र में लाने के कारण क्रान्तिकारी आंदोलन था। रघुवीर सहाय हिन्दी के आंचलिक आंदोलन से पैदा हुयी आंचलिक रचनाओं की लोकप्रियता की तुलना रूसी साहित्य की पोवेस्त्र (उपन्यास) की प्रसिद्धि से करते हैं। उन्होंने बताया की दोनों आंदोलन गाँव जाकर मानवीय अनुभव न्याय और नैतिकता की खोज करते हैं। उनके अनुसार यह आंदोलन भद्र लोग (अभिजात्य वर्ग) के राजनीतिक चरित्र के विरूद्ध प्रतिक्रिया रूप में जनमानस में उपजी वितृष्णा की अभिव्यक्ति था। रूस में सन् 60 के आसपास सामुहिक खेती के बाद वाले दौर में आंचलिक आंदोलन का उदय हुआ। रूसी हिन्दी आंचलिक उपन्यासों में समान बात यह है कि दोनों सामाजिक राजनीतिक हृदयहीनता के विरूद्ध घृणा व्यक्त करते हैं। दोनों ने नयी नैतिकता की उम्मीद जगायी। रघुवीर सहाय ने रेणु के मैला आंचल और परती परीकथा की तुलना वलेनतीन रसपुतीन के उपन्यास ‘मयोरा से विदायी और अंतिमघड़ी’ से करते हुए कहाः ‘‘कि दोनों लेखक परिवार और समाज के प्रति कर्मठ लगाव और निष्ठा दिखाते हैं। दोनों गाँव की ओर विश्राम या मनोरंजन के लिए नहीं जाते, लोकतंत्र के जड़ों की खोज में जाते हैं। दोनों में आंचलिक होना ग्रामीण होकर रह जाना नहीं है, अधिक सार्थक जीवन जीना है। दोनों स्थानीय बोली का रचनात्मक प्रयोग करते हैं।’
मैला आंचल में स्थानीय रंगत का ऐसा उभार और ग्रामीण चरित्रों का ऐसा कलात्मक रचाव है कि उसके सामने नगर और नागरीय जीवन फीके लगते है। यहाँ आंचलिकता शहरी चाक-चिक्य का विलोम है। शहरी आकर्षण को तोड़ने के लिए इसे आंचलिकता का प्रयोग किया गया। साहित्य में इसका मोह शहर एवं गाँव की गैर बराबरी से पैदा हुए वैसम्य बोध की उपज है। डा0 नित्यानन्द तिवारी आंचलिकता को स्वाधीनता आंदोलन की देन मानते हैं। वे कहते हैं कि ‘मैला आंचल की आंचलिकता स्वाधीनता आंदोलन की संतान है। स्वाधीनता आंदोलन मुख्य रूप से राजनीतिक होते हुए भी सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक, साहित्यिक - सभी क्षेत्रों में अलग-अलग तरह के लोगों द्वारा अपनी-अपनी तरह लड़ा जा रहा था। मेरीगंज के लोग भी पूरी लड़ाई लड़ रहे हैं - सभी क्षेत्र में अपनी तरह से। आंचलिकता नयी सामाजिक राजनीतिक चेतना की एक उर्वर भूमि के रुप में है। रेणु ने उपन्यास में मध्युगीन धार्मिक अंधविश्वासों को विस्तार से दिखाने के बाद भी यह दिखाना नहीं छोड़ा कि अब अंधविश्वासों की काई सुखकर पपड़ी हो रही है। नयी चेतना के उदय को उन्होंने पहचाना। यह बताया कि वास्तविक जीवन की ऊष्मा दलगत ऊष्मा से कहीं ज्यादा है। तभी तो गाँव में अनेक पार्टियाँ सक्रिय हैं, फिर भी लोगों के मानवीय संबंध दलगत राजनीति से प्रभावित नहीं होते। बावन दास, बालदेव आदि रक्त मांस के जीते जागते चरित्र हैं, इन्हें किसी खास मतवाद का प्रतीक समझने की भूल नहीं की जा सकती।
मैला आंचल की आंचलिक विशिष्टिता उसमें प्रयुक्त किंवदंतियों के भी कारण हैं। ततमा टोली के नन्दलाल के मौत से जुड़ी हुयी किंवदंती औपन्यासिक युग की दहसत में ले जाती है। यह दहशत मन के भीतर उतर कर मन को किसी संभावित अनिष्ट की आशंका से त्रस्त कर देती है। नन्दलाल मार्टिन के बंगले के खंडहर से ईंट चुराने जाता है।’’ जंगल से एक प्रेतनी निकली और नन्द लाल को कोड़े से पीटने लगी - साँप के कोड़े से। नन्दलाल वहीं ढ़ेर हो गया। बगुले की तरह उजली प्रेतनी’’ यह दृष्य हमें नीलयुग़ीन त्रासदी की याद दिलाता है। मन से युग की दहसत को उतरने में अभी समय लगेगा। नन्दलाल मरता तो है सर्प दंश से लेकिन उजली प्रेतनी और साँप के कोड़े का प्रयोग कर लेखक इस घटना को मिथकीय रूप दे देता है। मेम के नाम पर रखे गए गाँव का पुराना नाम लेने पर मार्टिन साहब सौ कोड़े की सजा देता था। कोड़े की मार सर्प दंश से कम भयावह नहीं होगी। निर्दोषों को सताने वाले मार्टिन का हश्र भी बहुत बुरा हुआ। उसकी मेम मेरी मलेरिया से पीड़ित हो उसकी अनुपस्थिति में ट्युबवेल के पास वाले गड्ढ़े में अपने घुंघराले रेशमी बालों पर कीचड़ थोपते-थोपते मरी। उसके वियोग में मार्टिन भी पागल हो गया। उसकी मौत पागलखाने में हुयी। रेणु जी निर्दोषों को सताने वाले मार्टिन का यह हश्र सिर्फ सताए हुए दिलों को सांत्वना देने के लिए चित्रित नहीं करते बल्कि पाप के बूरे फल को विश्वास करते हैं। निर्दोषों को सताना यदि बूरा है तो व्यभिचार भी बूरा हीं है। लक्ष्मी दासिन के साथ व्यभिचार करने वाले महंत सेवादास अंधा हो जाता है और महंत रामदास को मिर्गी आने लगती है।
ग्रामीण संस्कृति के नियामक तत्वों में एक है तथ्यों का फैंटेसीकरण। रेणु जी गाँव में प्रचलित वर्जनाओं निषिधियों (टोटेम) के बीच से फैंटेसी की पहचान करते चलते हैं। मैला आंचल में सतयुगी धारणा का मिथक और कुछ नहीं नैतिकता को बनाये रखने वाली फैंटेसी है। समाज में प्रचलित वर्जनाएँ नैतिकता को सुरक्षित ही नहीं रखती निर्मित भी करती हैं। पहले के लोग पूरे विश्वास के साथ यज्ञादि में नदी को आमंत्रित करते थें। नदी उन्हें भोज के लिए चांदी की बरतन देती थी। उपयोग के बाद बर्तन नहीं लौटाने पर बिगड़े नियत वाले पर नदी का न्याय क्रोध बनकर बरसता था। रेणु लिखते हैं ‘बिगड़े नियत वाले का तो बेटा ही खत्म हो गया। पाप का बुरा फल।’ बिगड़ी नियत के लिए टोले में बंटे हुए गाँव के लोग बिगड़ी नियत का लांक्षण एक दूसरे टोले पर लगाते हैं। इसका अर्थ है कि यह वास्तविक घटना नहीं है फैंटेसी है। अंधविश्वासों को सभ्य मानने के पीछे लोगों की मिथक प्रियता ही काम करती है। तहसीलदार साहब के लगुए भगुए प्रचारित करते हैं कि तीन-तीन बार कमली की शादी ठीक हुयी और कट गयी। कमली कमला मइयाँ का ही वरदान मानी जाती है। लगुए, भगुए प्रचारित करते हैं कि कमला मइया नहीं चाहती की कमली का विवाह हो जबकि हकीकत है कि तहसीलदार साहब धन लोभ के कारण यह समझते हैं कि कमली के जाते हीं उनका धन भी चला जाएगा, इसलिए वे जानबुझकर कमली का विवाह नहीं करते हैं। ग्रामीण जनता तिल सी वास्तविकता को भी मिथक के पहाड़ में तबदील कर देते हैं।
रेणु ने अंधविश्वासों का सकारात्मक और नकरात्मक दोनों तरह का उपयोग किया है। सकारात्मक उपयोग के जरिए सामाजिक नैतिकता के प्रति लोगों की आस्था दृढ़ करते हैं तो नकारात्मक उपयोग के जरिए मानवता विरोधी शक्तियों को बेपर्दा करते हैं। गाँव में विधवा असहाय स्त्रियाँ डाइन घोषित कर पीड़ित की जाती हैं। पार्वती की माँ का सुन्दर आकर्षक व्यक्तित्व भी लोगों की शंका का विषय बन जाता है। उसके सम्बन्ध में गाँव में यह विश्वास है कि वह बच्चों को मारकर खा जाती है। कभी-कभी लोग पारस्परिक राग द्वेष बस इन अंधविश्वासों का उपयोग अपने पक्ष में करते हैं। जोतखी जी होलिया टोली के धीरू को बताते हैं कि तुम्हारे बेटे को पार्वती की माँ ने ही मारा है। तुम्हारा बेटा निश्चित समय में एक निष्चित योजना के तहत् मिल सकता है। इस योजना के दुर्योग से पार्वती की माँ की हत्या हो जाती है। ओझाई की दृष्टि से खलासी जी का व्यक्तित्व बड़ा दिलचस्प है। भूत-प्रेत, जादू-टोना, लोकगीत जड़ीबुटी आदि के वे विशेषज्ञ हैं। अवसर के अनुरूप उन्हें हर महारथ वाली विद्या आती है। वे भूतों की नई किस्म -वन भूतवा की जानकारी देते हैं। यह उस बानर का भूत है जो डा0 प्रशांत के प्रयोगों के कारण मारा गया। अंधविश्वासों की चर्चा करते हुए रेणु यह बताना नहीं भूलते कि गाँव के लोग (इसलिए) अपने भोले भालेपन के कारण ही अंधविश्वासी नहीं हैं बल्कि सच से अवगत होते हुए भी यदि अंधविश्वासों में आस्था दिखाते हैं तो इसलिए कि उनकी भलाई इसी में है। मतलब यह कि वे सबकुछ जानकर भी भोले बने रहते हैं।
लोक गीत रेणु की आंचलिकता के असाधारण आयाम है। ये कथा और चरित्र में स्थानीय रंगत भरते हैं। उनके श्रोत और उद्देष्य को लेकर कुछ दिलचस्प सवाल खड़े होते हैं। रेणु के द्वारा प्रयुक्त लोकगीत प्रायः मिथला के लोगों की मौखिक बाचिक परम्परा के अंग हैं। वे एक मुँह से दूसरे मुँह तक जमाने से चले आ रहे हैं। रेणु ने मैला आंचल में राजनैतिक सामाजिक संर्दभ में विद्यापति और कबीर के लोग प्रचलित गीतों, लोक गीतों और फिल्मी गीतों उपयोग किया है। सिर्फ मैला अंचल में ही 20 मैथली गीत रखे गये हैं। जैसे सोहर (जन्मगीत), नचाई (विवाह गीत), समदाऊन (मृत्यु गीत), कजरी (वर्षा गीत) बरगमनी आदि। उन्होंने होली गीत और जोगीरा का प्रयोग विशेष प्रयोजन से किया है। होली सामाजिक भेद मिटाने वाला पर्व है। उसमें बड़े छोटे का भेद कुछ दिनों के लिए मिट जाता है। लोग निर्भय होकर एक दूसरे से हास्य विनोद का मजा लेते हैं। होली में रंग, अबीर कीचड़, गोबर, पानी सबका प्रयोग करते हैं। होली के गीतों का क्रम देखते हुए यह लगता है कि रेणु ने वियोग से संयोग की दिशा चुनी है। दुखात्मक वियोग के बाद ही संयोगात्मक सुख के दिन आते है। होली का पहला गीत विरहनी के शास्त्रीय मुद्रा के साथ शुरू होता है। ‘अब न जियब रे सईया’ और यह खत्म होता है संयोग और उल्लास से ‘ऐसे नचाए होली रे’।
आंचलिकता का सबसे अधिक रंग उभारने वाला उपकरण है भाषा। रेणु खड़ी बोली और मैथली को मिलाकर अपनी जनपदीय भाषा गठते हैं। यह भाषा खड़ी बोली के व्यवहारिक ढांचे में मैथली के व्याघात से तैयार हुयी है। रेणु इसे कचराही बोली कहते हैं। बालदेव के भाषण से इसका नमुना उद्धृत हैः पियारे भाईयों। कोठारिन साहेब जितना बोली सब ठीक है लेकिन सबसे बड़ा दोखी हम है ....................... हम कोई विदमान नहीं हैं शास्त्र पुरान नहीं पढ़े हैं, गरीब आदमी है मुरख है मगर महात्मा जी के परताप से भारत माता के परताप से मन में सेा भाव जन्म हुआ और हम सेवक का बाना ले लिया। रेणु की भाषा संगीतात्मक संकेतों व्यंजनाओं से भरी हुयी है। उसमें ध्वनि बिम्बों का बड़ा सधा हुआ प्रयोग किया गया है : गड़ गड़ाय ............ गड़ गड़ ......... बादल घुमड़ा .................. विचली चमकी और हरहरा, कर वर्षा होने लगी। घहर घहर छररर ..... छरर।
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