कविता अनुभव में गुंथे यथार्थ को रचती है। सरोज-स्मृति का क्रूर यथार्थ है - सरोज की मृत्यु। यही कविता का नाभिकीय बिन्दु है। इसी बिन्दु से फिसल फिसल कर कवि की दृष्टि सरोज की मृत्यु के कारणों की टोह लेती है। सबसे पहले वह कवि के कर्मों की ही छानबीन करती है और फिर उससे निकले निष्कर्षो को जानकर सम्पादन, स्थापित साहित्यिक वर्ग एवं कवि के जीवन की पारिस्थितियों के दोहरे तनाव को सृष्ट करती है। यह मृत्यु कविता का केवल वर्ण्य विषय भर नहीं है, क्योंकि जिसकी मृत्यु हुई है वह कवि की पुत्री भी है। कवि स्वयं दुःख का भोक्ता भी है और रचयिता भी। भोक्ता का दुःख असह्य है। इस दुःख को सहन एवं सर्जनात्मक बनाने के लिए वह शुरू में ही इसे अध्यात्मिक गरिमा देता है। सरोज के अठारह वर्षो को गीता के अठारह अध्यायों की तरह बताना, उन्हें पूरा करने वाली को अमर शाश्वत विराम का मिलना, इसे मरण न कहकर पूर्ण आलोक वरण या ज्योति शरण कहना मर्माहत करने वाली त्रासदीय घटना को उदात्त बनाने की कोशिशहै। कवि यहाँ प्रारम्भ में दुख से सीधे उलझता नहीं है बल्कि दर्शन का सहारा देकर एक उँचाई पर ले जाता है। ऐसा करना रचना की तटस्थता के लिए आवश्यक था।
जो सरोज पिता निराला के लिए ‘तनये’ है, वही कवि निराला के लिए जीवित कविते’। सरोज-स्मृति में ये दोनों भाव घुले-मिले हैं - लगभग एक दूसरे को खींचते, सम्भालते एवं स्वरूप देते हुए हैं।
जीवित-कविते, शत-शत-जर्जर
छोड़ कर पिता को पृथ्वी पर
तू गई स्वर्ग, क्या यह विचार-
जब पिता करेंगे मार्ग पार
यह, अक्षम अति, तब मैं सक्षम,
तारूँगी कर गह दुस्तर तम
इसी दुस्तर तम से जुड़ा है - निराला का आत्म चरित्र। मृत्यु भी एक तम है, जिसे कवि आरोह के साथ महाकाव्यात्मक औदात्य देता हुआ आलोक तक ले गया है। आलोक की इस उँचाई से कवि अपने दुस्तर तम को निजि संदर्भ नहीं दे सकता था। इसलिए वह ठोस यथार्थ की जमीन पर नीचे उतरता है और सरोज को साक्षी रखकर दुःख की तफसीस करता है।
धन्ये, मैं पिता निरर्थक था,
कुछ भी तेरे हित न कर सका!
जाना तो अर्थागमोपाय,
पर रहा सदा संकुचित-काय
लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर
हारता रहा मैं स्वार्थ-समर।
यहीं सरोज-स्मृति, सरोज की स्मृति को कुरेदने के क्रम में निराला के अपने ही जीवन की आर्थिक साहित्यिक विफलता का आख्याण बन जाती है। कविता में कवि की आत्म-पराजय की स्वीकृति सरोज के प्रति समुचित दायित्व निर्वाह न किए जाने का शोकाकुल प्रायश्चित है। कवि व्यक्तिक स्तर पर अपमान, पराजय और संघर्ष से जुझता रहा है। जिंदगी के युद्ध में घिरे योद्धा की तरह लड़ते हुए जीना कवि की नियति है। उसने शायद इस नियति को स्वेच्छा से अपनाया है। सरोज की मृत्यु के बाद वह महसूस करता है कि उसकी जिंदगी तन्हा नहीं है। उसकी सख्सीयत कवि की अस्मिता में ही नहीं, एक पिता की उदात्त एवं पराम्परागत पहचान में भी निहित है। कवि का यही बोध इस लम्बी कविता की मौलिक सम्पत्ति है। पुत्री एवं कविता या कवि एवं पिता के नाजुक रिश्ते का द्वन्द्व एवं तनाव रचना का सूत्र है।
निराला स्वार्थ समर हारते हैं। हारना यदि काम्य नहीं था तो जीतना भी उनका लक्ष्य नहीं है। आर्थिक पथ पर अनर्थ ही इस जीत की कुंजी है पर इस हार ने निराला के क्षत-विक्षत व्यक्तित्व को सामने लाकर आर्थिक व्यवस्था की कलई खोल दी है। पराजय की यह स्वीकृति सिर्फ निराला की ही नहीं मौजूदा व्यवस्था में घिसट रहे उन सारे संघर्षरत इंसानों की भी है जो ईमानदारी एवं स्वाभिमान के साथ जीना चाहते हैं किन्तु जी नही पाते। गुस्से में आकर निराला रूढ़ियों को बेरहमी से तोड़ते हैं। धूर्त सामाजिक मर्यादाओं पर धौंस जमाते हैं और अपनी मजबूरी को व्यवस्थागत मजबूरी का प्रतीक बना देने में सफल हो जाते हैं।
सच कहा जाये तो सरोज की मृत्यु की कारूणिक पृष्ठभूमि में यह लम्बी कथात्मक कविता हारे-थके कवि की अपनी जुबानी है। मृत्यु की अमिट रेखाओं पर वास्तविकता के कटु तथ्यों की आड़ी-तिरछी रेखाएं खींचकर निराला जीवन के प्रति अपनी गहरी आस्था के प्रमाण देते हैं। वे सरोज की मृत्यु के अंधकार में अतीत हो गए जीवन को टटोलते हैं। वे जानते हैं कि यदि जीवन एक सच्चाई है तो मृत्यु उससे भी बड़ी सच्चाई है। इसलिए वे मृत्यु को कोसने के बदले खुद को कोसते हैं और इस कोसने के दौरान ही ईमानदारी, उदारता, सहानुभूति, दया आदि मानवीय मूल्य अपनी पहचान खोने लगते हैं। आज के युग में ईमानदारी एवं उदारता साथ-साथ खोखले लगते हैं। आज के युग में ईमानदारी एवं उदारता साथ-साथ नहीं चल सकती। निराला की परेशानी है कि वे ईमानदार भी हैं और उदार भी। वे अर्थ के अनुसंधान की तरकीब जानते हुए भी अनर्थ नहीं कर पाने के कारण स्वार्थ समर हारते हैं। दूसरी तरफ निर्धनों के आँसू नहीं सह पाने की भावुकता से भी आलोकित होते हैं। मानवीय मूल्य जो वस्तुतः निराला की विपन्नता के बुनियादी कारण थे, उनकी दृष्टि में अब तक बेजान नहीं हुए थे।
क्षीण केा न छीना कभी अन्न
मैं लख न सका वे दृग विपन्न
अपने आँसुओं अतः बिम्बित
देखे हैं अपने ही मुख-चित्त
सोचा है नत हो बार-बार
’’यह हिन्दी का स्नेहोपहार
यह नहीं हार मेरी, भास्वर
यह रत्नहार-लोकोत्तर वर’’
निराला दूसरों की हाय पर अपनी सुविधा का सामान बटोरने वालों में नहीं थे। वे उस वर्ग के विरोध में खड़े हैं जो क्षीण का भी अन्न छीन लेते हैं। इसलिए तो वे अवसर मिलने पर भी घुसपैठिये की तरह इस वर्ग में शामिल होने के बजाये अपनी पराजय को संतोष से भुनाते हैं -‘हार को हिन्दी का स्नेहोपहार मानकार दुगुने आत्म विश्वास से साहित्यिक समृद्धि की धुरी को अपनी दिशा में मोड़ने का संकल्प लिये व्यवस्था को अपने खून से सींचनेवालों के वर्ग में शामिल हो जाते हैं।
स्वार्थ-संग्राम के बाद दूसरा संग्राम साहित्यिक है। कवि राष्ट्रीय उन्नति के लिए राष्ट्रभाषा के उन्नयन में व्यक्तिगत और पारिवारिक चिंताओं को होम कर देता है, पर बदले में मिलता है- साहित्यिक महंतों का तिरस्कार। त्याग और अपमान, निष्काम कर्म की अनिवार्यताओं के लिहाज से रास्ते और मंजिल की तरह हैं। यहाँ निराला चौतरफा विरोध से घिरे है। प्रहार पर प्रहार होते है, पर वे उत्तर नहीं देते। यदि विरोध साहित्यिक है तो उसका उत्तर भी साहित्य के स्तर पर ही दिया जा सकता है, इसलिए वे विरोधियों के शरक्षेप एवं रण कौशल को देखते भर है,
देखता रहा मैं खड़ा अपल
वह शर क्षेप, वह रण-कौशल
साहित्य में जोर आजमाइश ही असली संग्राम है और यही उनके सारे दुःख-दैन्य का सर्जक थी। इसी कारण कवि सरोज के लिए उपार्जन को अक्षम’ रहा। इसी में जुड़ा है सवा साल की मातृहीन सरोज का ननिहाल की ओर प्रस्थान। वहाँ उसे छोटी-छोटी ख्वाहिशों के लिए भी कितना पराश्रित रहना पड़ा होगा - यह सहज ही कल्पनीय है। यहाँ अर्थाभाव और सरोज को साथ न रख पाने का भाव परस्परावलम्बी हैं। किन्तु, एक बात द्रष्टव्य है कि जहाँ कवि साहित्यिक प्रतिष्ठा के लिए संघर्ष, तिरस्कार एवं अपमान की बात करता है, वहीं उसके संघर्ष को और तीव्र करने के दृढ़ निश्चय तथा हार को स्वीकार न करने की स्वस्थ ज़िद का परिचय मिलता है। लेकिन, जब स्मृतियाँ उसे घेरती हैं तब वह पिघलते हुए लावे की तरह गर्म और तरल हो जाता है। उन स्मृतियों से लगे हुए भाव आत्मदया की अनुभूति जगाते हैं, कवि का पदाक्रांत अहं रिरियाने लगता हैः
ले चला साथ मैं तुझे कनक
ज्यों भिक्षुक लेकर, स्वर्ण-झनक
ऊँगली पकड़कर गंगा-तर-सैकत-बिहार’ के लिए चलनेवाली, क्षण में दृग छल-छल’ रोने एवं क्षण में मुस्कुराने वाली चपला के साथ की जिन सुखद अनुभूतियों को निराला जीते हैं, वे ही अनुभूतियाँ दधिमुख’ न रख पाने के कारण टीसने लगती हैं। यहीं उन्हें अपनी साहित्यिक विफलता याद आती है, तब निरानन्द सम्पादकों के ‘गुण’ गिन-गिनकर वे न केवल अपना समय काटते हैं, बल्कि उनपर घासों की पूजा चढ़ाकर उपेक्षा का उत्तर उपेक्षा से देते हैं। लौटी रचना लेकर उदास/ताकता हुआ मैं दिशाकाश’ में लाचारी भी है एवं आशा की किरण का इंतजार भी। उसी तरहसम्पादक के गुण यथाभ्यास / पास की नोंचता हुआ घास / अज्ञात फेंकता इधर-उधर / भाव की चढ़ी पूजा उन पर/ में ढलती धूप की उदासी है जिसमें व्यंग्य का रंग मिलकर उसे निखारता है।
आत्म विकास की प्रक्रिया में आए हुए गतिरोधों से निराला हताश नहीं होते, आगे बढ़ने की प्रेरणा पाते हैं। उनकी विपन्नता के मूल में यदि साहित्य-प्रेम है तो मौलिक, नवीन एवं साहसिक कार्यों के मूल में सरोज है। प्रिया पत्नी की मृत्यु के बाद सरोज की बाल सुलभ चपलता और निर्द्वन्द्व आह्लाद को लखकर ही निराला शादी के अच्छे प्रस्तावों को ठुकरा देते हैं। उसी के हाथ में कुंडली सौंपकर कवि अपने पुनर्विवाह की योजना को छिन्न-भिन्न करता हुआ भाग्यवाद को चुनौती देता हैः
खंडित करने को भाग्य-अंक,
देखा भविष्य के प्रति अशंक।
X X X
संकेत किया मैंने अखिन्न
जिस ओर कुंडली छिन्न-भिन्न।
परिवार, जाति और समाज के टुच्चेपन के विरूद्ध तैश में आकर निराला केवल मुक्का नहीं तानते, सुघड़ - साहसपूर्ण प्रयोगों को जीवन में उतारकर व्यावहारिक परिणति देते हैं। सामाजिक - धार्मिक रूढ़ियों को तोड़ते हुए निराला की भंगिमा मूर्तिभंजक की है। निराला पुरानेपन को तोड़ते हैं - निराषा के दौरों से झुंझलाकर नहीं, बल्कि नया कुछ रचने के उत्साह से। उनकी इस प्रवृत्ति को भी सरोज ही प्रोद्दीप्त करती है। इसी के नाते-रिश्ते की खोज के क्रम में कान्यकुब्ज उन्हें कुलांगार लगते हैं, जिन पर प्रहार करके वे व्यथा के भार को हल्का करना चाहते हैं। व्यंग्य की चोट सामाजिक समस्याओं, रूढ़ियों और आर्थिक विसंगतियों पर त्रासदीय सोच को जन्म देता हैः
ये कान्यकुब्ज -कुल कुलांगार
खाकर पत्तल में करें छेद,
इनके कर कन्या, अर्थ खेद,
यह दग्ध मरूस्थल - नहीं सुजल।
अपनी सम्पूर्ण मौलिकता और नवीनता के बावजूद निराला हारते हैं। यह हार साहित्य की दुनिया में हुई - ऐसा नहीं। हार अर्थ की दुनिया में हुई है जिसकी परिणति है - दवा - दारू के अभाव में सरोज की मृत्यु। सरोज कवि का ही आत्मप्रक्षेप है। उसी में उसने अपने ‘वसन्त की प्रथम गीति’ को भास्वर होते हुए देखा था, उसी के कण्ठ में ‘पिता -कण्ठ की दृप्त धार’ फूटी थी, वही कवि ने ‘स्वर की रागिनी थी और उसी में माँ की मधुरिमा का उद्भव हुआ था। सरोज कवि के लिए अपनी प्रिया को याद करने का बहाना थी और वहीं थी कवि के जीवन को सार्थक एवं सक्रिय करने वाला केन्द्रीय कारण। उसे खोकर कवि-पिता सारी महत्वाकांक्षाओं कामनाओं एवं उपार्जित कर्मो से हाथ खींच लेता हैः
हो इसी कर्म पर वज्रपात
यदि धर्म रहे नत सदा माथ
इस पथ पर, मेरे कार्य सकल
हों भ्रष्ट शीत के-से शतदल।
निराला यहाँ टुटे हुए दिखाई देते हैं। इसलिए नहीं कि वे असाधारण स्वार्थ समर की एकमात्र टुच्ची उपलब्धि अति सामान्य सुख-सुविधाओं से हमेशा-हमेशा वंचित रहे बल्कि इसलिए कि उनका अर्थाभाव उनकी सन्तान के जी का जंजाल हो गया।
कविता अनुभव में गुंथे यथार्थ को रचती है। सरोज-स्मृति का क्रूर यथार्थ है - सरोज की मृत्यु। यही कविता का नाभिकीय बिन्दु है। इसी बिन्दु से फिसल फिसल कर कवि की दृष्टि सरोज की मृत्यु के कारणों की टोह लेती है। सबसे पहले वह कवि के कर्मों की ही छानबीन करती है और फिर उससे निकले निष्कर्षो को जानकर सम्पादन, स्थापित साहित्यिक वर्ग एवं कवि के जीवन की पारिस्थितियों के दोहरे तनाव को सृष्ट करती है। यह मृत्यु कविता का केवल वर्ण्य विषय भर नहीं है, क्योंकि जिसकी मृत्यु हुई है वह कवि की पुत्री भी है। कवि स्वयं दुःख का भोक्ता भी है और रचयिता भी। भोक्ता का दुःख असह्य है। इस दुःख को सहन एवं सर्जनात्मक बनाने के लिए वह शुरू में ही इसे अध्यात्मिक गरिमा देता है। सरोज के अठारह वर्षो को गीता के अठारह अध्यायों की तरह बताना, उन्हें पूरा करने वाली को अमर शाश्वत विराम का मिलना, इसे मरण न कहकर पूर्ण आलोक वरण या ज्योति शरण कहना मर्माहत करने वाली त्रासदीय घटना को उदात्त बनाने की कोशिशहै। कवि यहाँ प्रारम्भ में दुख से सीधे उलझता नहीं है बल्कि दर्शन का सहारा देकर एक उँचाई पर ले जाता है। ऐसा करना रचना की तटस्थता के लिए आवश्यक था।
जो सरोज पिता निराला के लिए ‘तनये’ है, वही कवि निराला के लिए जीवित कविते’। सरोज-स्मृति में ये दोनों भाव घुले-मिले हैं - लगभग एक दूसरे को खींचते, सम्भालते एवं स्वरूप देते हुए हैं।
जीवित-कविते, शत-शत-जर्जर
छोड़ कर पिता को पृथ्वी पर
तू गई स्वर्ग, क्या यह विचार-
जब पिता करेंगे मार्ग पार
यह, अक्षम अति, तब मैं सक्षम,
तारूँगी कर गह दुस्तर तम
इसी दुस्तर तम से जुड़ा है - निराला का आत्म चरित्र। मृत्यु भी एक तम है, जिसे कवि आरोह के साथ महाकाव्यात्मक औदात्य देता हुआ आलोक तक ले गया है। आलोक की इस उँचाई से कवि अपने दुस्तर तम को निजि संदर्भ नहीं दे सकता था। इसलिए वह ठोस यथार्थ की जमीन पर नीचे उतरता है और सरोज को साक्षी रखकर दुःख की तफसीस करता है।
धन्ये, मैं पिता निरर्थक था,
कुछ भी तेरे हित न कर सका!
जाना तो अर्थागमोपाय,
पर रहा सदा संकुचित-काय
लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर
हारता रहा मैं स्वार्थ-समर।
यहीं सरोज-स्मृति, सरोज की स्मृति को कुरेदने के क्रम में निराला के अपने ही जीवन की आर्थिक साहित्यिक विफलता का आख्याण बन जाती है। कविता में कवि की आत्म-पराजय की स्वीकृति सरोज के प्रति समुचित दायित्व निर्वाह न किए जाने का शोकाकुल प्रायश्चित है। कवि व्यक्तिक स्तर पर अपमान, पराजय और संघर्ष से जुझता रहा है। जिंदगी के युद्ध में घिरे योद्धा की तरह लड़ते हुए जीना कवि की नियति है। उसने शायद इस नियति को स्वेच्छा से अपनाया है। सरोज की मृत्यु के बाद वह महसूस करता है कि उसकी जिंदगी तन्हा नहीं है। उसकी सख्सीयत कवि की अस्मिता में ही नहीं, एक पिता की उदात्त एवं पराम्परागत पहचान में भी निहित है। कवि का यही बोध इस लम्बी कविता की मौलिक सम्पत्ति है। पुत्री एवं कविता या कवि एवं पिता के नाजुक रिश्ते का द्वन्द्व एवं तनाव रचना का सूत्र है।
निराला स्वार्थ समर हारते हैं। हारना यदि काम्य नहीं था तो जीतना भी उनका लक्ष्य नहीं है। आर्थिक पथ पर अनर्थ ही इस जीत की कुंजी है पर इस हार ने निराला के क्षत-विक्षत व्यक्तित्व को सामने लाकर आर्थिक व्यवस्था की कलई खोल दी है। पराजय की यह स्वीकृति सिर्फ निराला की ही नहीं मौजूदा व्यवस्था में घिसट रहे उन सारे संघर्षरत इंसानों की भी है जो ईमानदारी एवं स्वाभिमान के साथ जीना चाहते हैं किन्तु जी नही पाते। गुस्से में आकर निराला रूढ़ियों को बेरहमी से तोड़ते हैं। धूर्त सामाजिक मर्यादाओं पर धौंस जमाते हैं और अपनी मजबूरी को व्यवस्थागत मजबूरी का प्रतीक बना देने में सफल हो जाते हैं।
सच कहा जाये तो सरोज की मृत्यु की कारूणिक पृष्ठभूमि में यह लम्बी कथात्मक कविता हारे-थके कवि की अपनी जुबानी है। मृत्यु की अमिट रेखाओं पर वास्तविकता के कटु तथ्यों की आड़ी-तिरछी रेखाएं खींचकर निराला जीवन के प्रति अपनी गहरी आस्था के प्रमाण देते हैं। वे सरोज की मृत्यु के अंधकार में अतीत हो गए जीवन को टटोलते हैं। वे जानते हैं कि यदि जीवन एक सच्चाई है तो मृत्यु उससे भी बड़ी सच्चाई है। इसलिए वे मृत्यु को कोसने के बदले खुद को कोसते हैं और इस कोसने के दौरान ही ईमानदारी, उदारता, सहानुभूति, दया आदि मानवीय मूल्य अपनी पहचान खोने लगते हैं। आज के युग में ईमानदारी एवं उदारता साथ-साथ खोखले लगते हैं। आज के युग में ईमानदारी एवं उदारता साथ-साथ नहीं चल सकती। निराला की परेशानी है कि वे ईमानदार भी हैं और उदार भी। वे अर्थ के अनुसंधान की तरकीब जानते हुए भी अनर्थ नहीं कर पाने के कारण स्वार्थ समर हारते हैं। दूसरी तरफ निर्धनों के आँसू नहीं सह पाने की भावुकता से भी आलोकित होते हैं। मानवीय मूल्य जो वस्तुतः निराला की विपन्नता के बुनियादी कारण थे, उनकी दृष्टि में अब तक बेजान नहीं हुए थे।
क्षीण केा न छीना कभी अन्न
मैं लख न सका वे दृग विपन्न
अपने आँसुओं अतः बिम्बित
देखे हैं अपने ही मुख-चित्त
सोचा है नत हो बार-बार
’’यह हिन्दी का स्नेहोपहार
यह नहीं हार मेरी, भास्वर
यह रत्नहार-लोकोत्तर वर’’
निराला दूसरों की हाय पर अपनी सुविधा का सामान बटोरने वालों में नहीं थे। वे उस वर्ग के विरोध में खड़े हैं जो क्षीण का भी अन्न छीन लेते हैं। इसलिए तो वे अवसर मिलने पर भी घुसपैठिये की तरह इस वर्ग में शामिल होने के बजाये अपनी पराजय को संतोष से भुनाते हैं -‘हार को हिन्दी का स्नेहोपहार मानकार दुगुने आत्म विश्वास से साहित्यिक समृद्धि की धुरी को अपनी दिशा में मोड़ने का संकल्प लिये व्यवस्था को अपने खून से सींचनेवालों के वर्ग में शामिल हो जाते हैं।
स्वार्थ-संग्राम के बाद दूसरा संग्राम साहित्यिक है। कवि राष्ट्रीय उन्नति के लिए राष्ट्रभाषा के उन्नयन में व्यक्तिगत और पारिवारिक चिंताओं को होम कर देता है, पर बदले में मिलता है- साहित्यिक महंतों का तिरस्कार। त्याग और अपमान, निष्काम कर्म की अनिवार्यताओं के लिहाज से रास्ते और मंजिल की तरह हैं। यहाँ निराला चौतरफा विरोध से घिरे है। प्रहार पर प्रहार होते है, पर वे उत्तर नहीं देते। यदि विरोध साहित्यिक है तो उसका उत्तर भी साहित्य के स्तर पर ही दिया जा सकता है, इसलिए वे विरोधियों के शरक्षेप एवं रण कौशल को देखते भर है,
देखता रहा मैं खड़ा अपल
वह शर क्षेप, वह रण-कौशल
साहित्य में जोर आजमाइश ही असली संग्राम है और यही उनके सारे दुःख-दैन्य का सर्जक थी। इसी कारण कवि सरोज के लिए उपार्जन को अक्षम’ रहा। इसी में जुड़ा है सवा साल की मातृहीन सरोज का ननिहाल की ओर प्रस्थान। वहाँ उसे छोटी-छोटी ख्वाहिशों के लिए भी कितना पराश्रित रहना पड़ा होगा - यह सहज ही कल्पनीय है। यहाँ अर्थाभाव और सरोज को साथ न रख पाने का भाव परस्परावलम्बी हैं। किन्तु, एक बात द्रष्टव्य है कि जहाँ कवि साहित्यिक प्रतिष्ठा के लिए संघर्ष, तिरस्कार एवं अपमान की बात करता है, वहीं उसके संघर्ष को और तीव्र करने के दृढ़ निश्चय तथा हार को स्वीकार न करने की स्वस्थ ज़िद का परिचय मिलता है। लेकिन, जब स्मृतियाँ उसे घेरती हैं तब वह पिघलते हुए लावे की तरह गर्म और तरल हो जाता है। उन स्मृतियों से लगे हुए भाव आत्मदया की अनुभूति जगाते हैं, कवि का पदाक्रांत अहं रिरियाने लगता हैः
ले चला साथ मैं तुझे कनक
ज्यों भिक्षुक लेकर, स्वर्ण-झनक
ऊँगली पकड़कर गंगा-तर-सैकत-बिहार’ के लिए चलनेवाली, क्षण में दृग छल-छल’ रोने एवं क्षण में मुस्कुराने वाली चपला के साथ की जिन सुखद अनुभूतियों को निराला जीते हैं, वे ही अनुभूतियाँ दधिमुख’ न रख पाने के कारण टीसने लगती हैं। यहीं उन्हें अपनी साहित्यिक विफलता याद आती है, तब निरानन्द सम्पादकों के ‘गुण’ गिन-गिनकर वे न केवल अपना समय काटते हैं, बल्कि उनपर घासों की पूजा चढ़ाकर उपेक्षा का उत्तर उपेक्षा से देते हैं। लौटी रचना लेकर उदास/ताकता हुआ मैं दिशाकाश’ में लाचारी भी है एवं आशा की किरण का इंतजार भी। उसी तरहसम्पादक के गुण यथाभ्यास / पास की नोंचता हुआ घास / अज्ञात फेंकता इधर-उधर / भाव की चढ़ी पूजा उन पर/ में ढलती धूप की उदासी है जिसमें व्यंग्य का रंग मिलकर उसे निखारता है।
आत्म विकास की प्रक्रिया में आए हुए गतिरोधों से निराला हताश नहीं होते, आगे बढ़ने की प्रेरणा पाते हैं। उनकी विपन्नता के मूल में यदि साहित्य-प्रेम है तो मौलिक, नवीन एवं साहसिक कार्यों के मूल में सरोज है। प्रिया पत्नी की मृत्यु के बाद सरोज की बाल सुलभ चपलता और निर्द्वन्द्व आह्लाद को लखकर ही निराला शादी के अच्छे प्रस्तावों को ठुकरा देते हैं। उसी के हाथ में कुंडली सौंपकर कवि अपने पुनर्विवाह की योजना को छिन्न-भिन्न करता हुआ भाग्यवाद को चुनौती देता हैः
खंडित करने को भाग्य-अंक,
देखा भविष्य के प्रति अशंक।
X X X
संकेत किया मैंने अखिन्न
जिस ओर कुंडली छिन्न-भिन्न।
परिवार, जाति और समाज के टुच्चेपन के विरूद्ध तैश में आकर निराला केवल मुक्का नहीं तानते, सुघड़ - साहसपूर्ण प्रयोगों को जीवन में उतारकर व्यावहारिक परिणति देते हैं। सामाजिक - धार्मिक रूढ़ियों को तोड़ते हुए निराला की भंगिमा मूर्तिभंजक की है। निराला पुरानेपन को तोड़ते हैं - निराषा के दौरों से झुंझलाकर नहीं, बल्कि नया कुछ रचने के उत्साह से। उनकी इस प्रवृत्ति को भी सरोज ही प्रोद्दीप्त करती है। इसी के नाते-रिश्ते की खोज के क्रम में कान्यकुब्ज उन्हें कुलांगार लगते हैं, जिन पर प्रहार करके वे व्यथा के भार को हल्का करना चाहते हैं। व्यंग्य की चोट सामाजिक समस्याओं, रूढ़ियों और आर्थिक विसंगतियों पर त्रासदीय सोच को जन्म देता हैः
ये कान्यकुब्ज -कुल कुलांगार
खाकर पत्तल में करें छेद,
इनके कर कन्या, अर्थ खेद,
यह दग्ध मरूस्थल - नहीं सुजल।
अपनी सम्पूर्ण मौलिकता और नवीनता के बावजूद निराला हारते हैं। यह हार साहित्य की दुनिया में हुई - ऐसा नहीं। हार अर्थ की दुनिया में हुई है जिसकी परिणति है - दवा - दारू के अभाव में सरोज की मृत्यु। सरोज कवि का ही आत्मप्रक्षेप है। उसी में उसने अपने ‘वसन्त की प्रथम गीति’ को भास्वर होते हुए देखा था, उसी के कण्ठ में ‘पिता -कण्ठ की दृप्त धार’ फूटी थी, वही कवि ने ‘स्वर की रागिनी थी और उसी में माँ की मधुरिमा का उद्भव हुआ था। सरोज कवि के लिए अपनी प्रिया को याद करने का बहाना थी और वहीं थी कवि के जीवन को सार्थक एवं सक्रिय करने वाला केन्द्रीय कारण। उसे खोकर कवि-पिता सारी महत्वाकांक्षाओं कामनाओं एवं उपार्जित कर्मो से हाथ खींच लेता हैः
हो इसी कर्म पर वज्रपात
यदि धर्म रहे नत सदा माथ
इस पथ पर, मेरे कार्य सकल
हों भ्रष्ट शीत के-से शतदल।
निराला यहाँ टुटे हुए दिखाई देते हैं। इसलिए नहीं कि वे असाधारण स्वार्थ समर की एकमात्र टुच्ची उपलब्धि अति सामान्य सुख-सुविधाओं से हमेशा-हमेशा वंचित रहे बल्कि इसलिए कि उनका अर्थाभाव उनकी सन्तान के जी का जंजाल हो गया।
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