स्कंदगुप्त नाटक के आधार पर प्रसाद की राष्ट्रीय-सांस्कृतिक चेतना
स्कन्दगुप्त नाटक में भी प्रसाद अन्य नाटकों की तरह इतिहास का सर्जनात्मक प्रयोग करते हैं। उन्होंने इतिहास का आश्रय लेकर वर्तमान की समस्याओं का समाधान निकालने की कोशिश तो की हीं है, इतिहास से संस्कृति का समन्वय भी किया है। प्रसाद इतिहास, राजनीति और संस्कृति को जोड़कर युगधर्म निर्मित करते हैं और फिर उसकी सहायता से राष्ट्र के विकास के दिशा निर्देशक सिद्धान्त ढ़ूढ़ते हैं। उन्होंने अपने नाटको में यह अनुभव कराया है कि इतिहास के उत्थान काल में संस्कृति का भी उत्थान होता है तथा ऐतिहासिक ह्रास के युग में संस्कृति भी अद्यः पतित होती हैं। वे इतिहास को मथकर अपना युगिन चिंतन निर्मित करते हैं। गुलाम देश की जनता का एक राष्ट्रीय-सांस्कृतिक मानस निर्मित करने हेतु उन्होंने अपने प्रत्येक नाटक में नायक को राजनीतिक एवं सांस्कृतिक चुनौतियों से जुझते हुए चित्रित किया है।
प्रसादकालिन भारत में औपनिवेशिक मनोवृत्ति हमारी राष्ट्रीय चिंताधारा में प्रवेश कर चुकी थी। प्रसाद इस तथ्य से परिचित थे। इसीलिए उन्होंने अपने नाटकों में पात्रों का चरित्रांकन राष्ट्रीय आवश्यकता के अनुरूप किया है। उनके पात्र दो तरह के हैं एक वे जो त्याग, बलिदान और शौर्य की प्रतिमूर्ति हैं और हँसते-हँसते देश की रक्षा के लिए प्राण गंवा देते हैं। दूसरे प्रकार के पात्र सत्ता लोलुप, स्वार्थ केन्द्रित एवं विघटनकारी मानसिकता से ग्रस्त हैं। ये अपने व्यक्तिक स्वार्थ सिद्धि के लिए देश की स्वतंत्रता को गिरवी रखने में भी नहीं हिचकते। स्कंदगुप्त, पर्णदत्त, देवसेना जैसे चरित्र राष्ट्र प्रेम, शौर्य, त्याग जैसे मूल्यों से भरे हुए हैं। इसके विपरित अनन्तदेवी, भटार्क, पुरंगुप्त चरित्र स्वामी एवं सत्ता लोलुप है। इनके लिए राष्ट्रीय स्वतंत्रता से अधिक महत्वपूर्ण है राजसत्ता की प्राप्ति।
प्रसाद जी के नाटक अतीत के आइने में अपने समय को प्रतिबिम्बित करने के लिए लिखे गए। इसलिए उनके नाटकों के अतीत में उनके समय का वर्तमान झांकता मिल जाता है। स्कंदगुप्त में ही वर्णित शौर्य, बलिदान, प्रेम, राष्ट्रीयता एवं एकता जैसे उद्दात आदर्शों के पीछे तत्युगीन राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन की चेतना अर्न्तनिहित है। स्कन्दगुप्त का राष्ट्रीय छायावादी व्यक्तित्व, बन्धुवर्म्मा का अद्वितीय त्याग, जयमाला की 'युद्ध क्या जान नहीं है' की प्रेरक अनुभूति मातृगुप्त का गौरव गान- कुछ ऐसी प्रवृतियाँ हैं, जिनके पीछे छायावादी युग की राष्ट्रीय चेतना मुखर हुयी हैं। इस समन्वय का सुफल यह है कि छायावादी व्यक्तिक चेतना एवं तत्कालीन राष्ट्रीय चेतना के स्वर नाटक में एक साथ उभरे हैं। इसके कारण राजनीति समन्वित ऐतिहासिक तथ्यों में प्राणमय काव्यधारा स्पंदित हुयी। ऐतिहासिक कथा क्रम में अपने व्यक्तित्व एवं युगीन चेतना को प्रसाद ने इस तरह समाहित किया है कि पाठक को सर्वत्र सरसता का एहसास होता है। स्थूल वाह्य क्रिया व्यापारों एवं आंतरिक उथल-पुथल को एकान्वित करने के कारण द्वन्द्व एवं अर्न्तद्वन्द्व से ग्रस्त चरित्र अपने आप उभरने लगते हैं।
प्रसाद का प्रत्येक नाटक स्वतंत्रता, राष्ट्रवाद, सामाजिक-सांस्कृतिक समस्याओं को लेकर उपस्थित होता है। प्रसाद अपने नाटकों में आधुनिक युग की समस्याओं से टकराते हैं, उनसे लोहो लेते हैं, और पलायन नहीं करते। आध्यात्मिक रूझान के बावजूद वे अपने समय को नहीं भूलते। उनके नाटक स्कंदगुप्त में भी स्वाधीन चेतना और राष्ट्रवाद का स्वर प्रमुख है, तो इसलिए कि प्रसाद की युगीन दृष्टि ही उसके मूल में क्रियाशील रही है। प्रसाद स्वाधीनता और राष्ट्रवाद को प्रतिष्ठित करने के लिए उन परिस्थितियों और प्रवृतियों की रूपरेखा खिंचते हैं, जो राष्ट्रवाद के विकास में खतरा बनकर आती हैं। स्कंदगुप्त में राष्ट्रवाद के अवरोधक तत्वों की पहचान साफ और स्पष्ट है। खतरे हैं हुणों और शकों के विदेशी आक्रमण, गृह कलह, धर्म संघों का परस्पर टकराव और राजाओं का विलास। बन्धुवर्म्मा राष्ट्रभक्त है वह भारत पर मंडरा रही विपत्तियों की ओर संकेत करता है, ''आर्यावर्त्त पर विपत्ति की प्रलय मेघमाला घिर रही है। आर्य समाज के अंर्तविरोध और दुर्बलता को आक्रमणकारी भली-भाँति जान गए हैं।" कोई भी विजेता पहले पराजित देश के चरित्र का अध्ययन करता है और फिर शुरू करता है अपना युद्ध। वह युद्ध जीतने के लिए हर नीति दुर्निति अपनाता है। शकों और हुणों ने भी भारत पर आक्रमण किये। इसके कुछ इलाके जीते और फिर इन इलाकों पर अपना दबदबा बनाये रखने के लिए वहाँ तरह-तरह के अत्याचार किये, जैसे आर्य कन्याओं का अपहर्ण, गर्म लोहे से स्त्रियों को दागना, पुरूषों पर कोड़े बरसाना। हर आक्रान्ता आतंक के बल पर ही अपने साम्राज्य को स्थिर करता है और फिर अपनी संस्कृति की जड़े वहाँ रोपकर एक ठोस राजनीतिक आधार प्राप्त करता है। पीड़ित की जा रही या नीच जनता की दुर्दशा का चित्र खिंचते हुए कहता है, "विदेशी आक्रमणकारी अपनी धाक जमाने के लिए भाँति-भाँति के अत्याचार करके आतंक फैला रहे थे ...................... निरीह भारतीयों की घोर दुर्दशा, सत्ता की दायित्वहीनता और विलासिता से ही पराधीनता की कोयले निकलती हैं"। गुप्त काल के साम्राज्य की सीमाएँ विस्तृत हो गयी थी उसी अनुरूप शासकों का दायित्व भी बढ़ गया था पर शासक विलाश और प्रमाद में मग्न थे। सत्ता को वे गले मे पड़ी वस्तु समझते थे। कुसुमपुर में सम्राट की ओर से ही आपानकों का समारोह आयोजित होता था। सैनिक तक विलासी बन गए थे। जनता में, सैनिकों में राष्ट्रीय मानापमान का बोध खत्म हो गया था। वे मांसिक दासता से घिर रहे थे। वे साम्राज्यवादी संस्कृति के सामने अपनी संस्कृति को हेय समझते थे। विदेशी सभ्यता से मोहाविष्ट जनता पर व्यंग करता हुआ एक सैनिक कहता है, "यवनों से उधार ली हुयी सभ्यता नाम की विलासिता के पीछे आर्य जाति उसी तरह पड़ी है जैसे कुल बधु को छोड़कर कोई नागरिक वेश्या के चरणों में देश पर बर्बर हूणों की चढ़ाई और तिसपर भी यह निर्लज आमोद"।
प्रसाद जी राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम की प्रकृति और उसमें पनप रही विघटनकारी शक्तियों को पहचान रहे थे। नवजागरण के साथ-साथ पुर्नोत्थानवादी और साम्राज्यवादी शक्तियाँ सिर उठा रही थी। स्कंदगुप्त में उन्होंने इन प्रवृत्तियों को यथास्थान रखा है। बौद्धों और ब्राह्मण का संघर्ष वीभत्स रूप धारण कर चुका था। दोनों एक दूसरे को नीचा दिखाने में लगे रहते थें धर्म का मानवीय सरोकार खत्म हो चुका था। दोनों कर्मकांड को ही धर्म समझते थे। वे अपनी स्वार्थ साधना के लिए कोई भी कुकर्म करने में हिचकते नहीं थे। प्रपञ्चबुद्धि अनन्त देवी को अपने कुचक्र में शामिल करता है। वही देव सेना की बलि चढ़ाने का षडयंत्र करता है। बौद्ध धर्म संघों को भी देशद्रोह से परहेज नहीं था। हुण सेनापति के कथन से भी यह प्रमाणित होता हैः ''समस्त सद् धर्म के अनुयायी और संत स्कंदगुप्त के विरूद्ध हैं। याज्ञिक क्रियाओं की प्रचुरता से हीं उनका हृदय धर्मनाश के भय से घबरा उठा है। सब विद्रोह करने के उत्सुक हैं।'' धातुसेन सिंघल का राजकुमार है। वह गुप्त साम्राज्य का वैभव देखने आया है। लेकिन उसे देखने को मिलता है पारिवारिक कलह, धर्मसंघों का टकराव, ब्राह्मणों का अत्याचार। वह ब्राह्मणों के पाखंड से भी बहुत खिन्न है। वह ब्राह्मणों से कहता है कि ''लोभ ने तुम्हारे धर्म का व्यवसाय चला दिया दक्षिणाओं की योग्यताओं से स्वर्ग पुत्र, धर्म, यश, बल और मोक्ष तुम बेचने लगे।'' धर्म व्यभिचार का भी आवरण बन गया था। धार्मिक रूढ़ियाँ इतनी प्रमुख हो गयी थीं कि इनकी रक्षा के लिए ब्राह्मण दूसरों की जान लेने में भी संकोच नहीं करते थें। प्रसाद ने प्रख्यातकीति द्वारा सच्ची धार्मिक शिक्षा देकर बौद्धों एवं ब्राह्मणों के संघर्ष को खत्म करने का प्रयास किया है। धर्म के अन्ध भक्तों, सभी धर्म समय और देश की स्थिति के अनुसार विकृत हो रहे हैं और होंगे। ....................... हमलोग एक ही मूल धर्म की दो शाखाएँ हैं, आओ हम विचार के पूलों से दुःख-दर्द मानवों का कठोर पथ कोमल करें।" प्रख्यात कृर्ति ब्राह्मण के आगे यज्ञ बलि के लिए जैसे ही अपना सिर झुका देता है ब्राह्मण लज्जित हो जाता है। प्रसाद ने नाटक में दिखाया कि पुर्नरूत्थानवादी और साम्प्रदायिक शक्ति की काट है धर्म निर्पेक्षता एवं मानवतावाद।
प्रसाद जी सुन्दर भविष्य के लिए वर्तमान के प्रति क्षोभ एवं ग्लानि का भाव पैदा करना चाहते थें ताकि आवश्यक परिवर्तन की परिस्थितियाँ तैयार की जा सके। वे देश की पराधीनता, रूढ़िवादिता, संकीर्णता से आहत थे। वे जानते थे कि इनके प्रति जितनी तीव्र घृणा पैदा होगी उतनी ही तीव्र राष्ट्रीय भावना विकसित होगी। इसलिए उन्होंने अपने प्रायः नाटकों की तरह स्कंदगुप्त मे भी भारतीय जनता के आत्म मूल्यांकन के लिए एवं आत्मशोधन के लिए परिस्थितियाँ निर्मित की। शर्वनाग रहता है,"देश के हरेक काणन चिता बन रहे हैं। धधकती हुयी नाश की प्रचंड ज्वाला दिकदाह कर रही है, अपनी ज्वालामुखियों को बर्फ की मोटी चादर से छिपाए हिमालय मौन है पिघल कर नदी समुद्र से जा मिलता है।"
प्रसाद पारिवारिक कलह, विदेशी आक्रमण एवं बौद्ध ब्राह्मण संघर्ष के भयंकर परिस्थितियाँ के बीच स्कंदगुप्त का व्यक्तित्व खड़ा करते हैं। शुरू में स्कंदगुपत अवसाद मग्न है। राजसत्ता के प्रति उसमें तटस्थता और उदासीनता है। युवराज अपने अधिकारों के प्रति उदासीन हैं। स्कंद कहता है, अधिकार किसलिए? लेकिन जैसे हीं वह अपने देश पर खतरे अनुभव करता है वह अपनी सारी तटस्थता त्याग कर युद्ध में कुद पड़ता है। स्कंद गुप्त में रोमैंटिकता का रंग बहुत गाढ़ा है। उसकी एकला चलो वाली प्रवृति रोमैंटिक प्रवृति का ही असर है। वह भट्टार्क से कहता है कि भट्टार्क यदि कोई साथी नहीं मिला तो मैं साम्राज्य के लिए नहीं जन्म भूमि की रक्षा के लिए अकेला युद्ध करूँगा। यह स्कंदगुप्त सही समय पर देश का नेतृत्व लेकर शकों और हुणों के खिलाफ एक वातावरण बनाता है। वह भारतीय युवा वर्ग में वीरता का भाव जगाने के लिए कहता है कि, " सिंहों की विहार स्थली में श्रृगाल बृंद सड़ी लोथ नोच रहे हैं। यह स्कंद कुंभा के बांध काटे जाने पर सेना के साथ बाढ में बह जाता है लेकिन हिम्मत नहीं हारता। वह फिर से सेना संगठित कर हुणों को पराजित करता है।
प्रसाद जी परतंत्र देश को निर्भिक बनाने का संकल्प लिए हुए थें। वे चाहते थें कि गुलाम भारत में स्कंदगुप्त, बंधुवर्मा, देव सेना जैसे चरित्र पैदा हों। वे इन प्रेरणा पुरूषों के माध्यम से देश के युवा वर्ग को कर्म पथ पर अग्रसर करना चाहते थें ताकि उनके प्रयत्न से भारत अपने खोये हुए गौरव को प्राप्त कर सके। प्रसाद अंत तक अंधराष्ट्रवाद के विरोधी थें। उनकी राष्ट्रीय चेतना मानवतावाद के मजबूत आधार पर आधारित थी। उनकी राष्ट्रीय चेतना मानवतावाद के मजबूत आधार पर आधारित थी। उनकी राष्ट्रीय चेतना विश्व भावना से विलग नहीं थी। मातृगुप्त के संवादों में उन्होंने उदार मानवतावादी, सांस्कृतिक, राष्ट्रीय चेतना का परिचय दिया है। प्रसाद जी राष्ट्रवाद का जड़ मजबूत करने के लिए उत्सर्ग भावना को आवश्यक मानते हैं। वे तत्कालिन जनता में वलिदान भाव की प्रेरणा भरते हुए कहते हैं, "जिए तो सदा इसी के लिए यही अभिमान रहे या हर्ष, निछावर करते हम सर्वस्व हमारा प्यारा भारतवर्ष"।
स्कन्दगुप्त नाटक में भी प्रसाद अन्य नाटकों की तरह इतिहास का सर्जनात्मक प्रयोग करते हैं। उन्होंने इतिहास का आश्रय लेकर वर्तमान की समस्याओं का समाधान निकालने की कोशिश तो की हीं है, इतिहास से संस्कृति का समन्वय भी किया है। प्रसाद इतिहास, राजनीति और संस्कृति को जोड़कर युगधर्म निर्मित करते हैं और फिर उसकी सहायता से राष्ट्र के विकास के दिशा निर्देशक सिद्धान्त ढ़ूढ़ते हैं। उन्होंने अपने नाटको में यह अनुभव कराया है कि इतिहास के उत्थान काल में संस्कृति का भी उत्थान होता है तथा ऐतिहासिक ह्रास के युग में संस्कृति भी अद्यः पतित होती हैं। वे इतिहास को मथकर अपना युगिन चिंतन निर्मित करते हैं। गुलाम देश की जनता का एक राष्ट्रीय-सांस्कृतिक मानस निर्मित करने हेतु उन्होंने अपने प्रत्येक नाटक में नायक को राजनीतिक एवं सांस्कृतिक चुनौतियों से जुझते हुए चित्रित किया है।
प्रसादकालिन भारत में औपनिवेशिक मनोवृत्ति हमारी राष्ट्रीय चिंताधारा में प्रवेश कर चुकी थी। प्रसाद इस तथ्य से परिचित थे। इसीलिए उन्होंने अपने नाटकों में पात्रों का चरित्रांकन राष्ट्रीय आवश्यकता के अनुरूप किया है। उनके पात्र दो तरह के हैं एक वे जो त्याग, बलिदान और शौर्य की प्रतिमूर्ति हैं और हँसते-हँसते देश की रक्षा के लिए प्राण गंवा देते हैं। दूसरे प्रकार के पात्र सत्ता लोलुप, स्वार्थ केन्द्रित एवं विघटनकारी मानसिकता से ग्रस्त हैं। ये अपने व्यक्तिक स्वार्थ सिद्धि के लिए देश की स्वतंत्रता को गिरवी रखने में भी नहीं हिचकते। स्कंदगुप्त, पर्णदत्त, देवसेना जैसे चरित्र राष्ट्र प्रेम, शौर्य, त्याग जैसे मूल्यों से भरे हुए हैं। इसके विपरित अनन्तदेवी, भटार्क, पुरंगुप्त चरित्र स्वामी एवं सत्ता लोलुप है। इनके लिए राष्ट्रीय स्वतंत्रता से अधिक महत्वपूर्ण है राजसत्ता की प्राप्ति।
प्रसाद जी के नाटक अतीत के आइने में अपने समय को प्रतिबिम्बित करने के लिए लिखे गए। इसलिए उनके नाटकों के अतीत में उनके समय का वर्तमान झांकता मिल जाता है। स्कंदगुप्त में ही वर्णित शौर्य, बलिदान, प्रेम, राष्ट्रीयता एवं एकता जैसे उद्दात आदर्शों के पीछे तत्युगीन राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन की चेतना अर्न्तनिहित है। स्कन्दगुप्त का राष्ट्रीय छायावादी व्यक्तित्व, बन्धुवर्म्मा का अद्वितीय त्याग, जयमाला की 'युद्ध क्या जान नहीं है' की प्रेरक अनुभूति मातृगुप्त का गौरव गान- कुछ ऐसी प्रवृतियाँ हैं, जिनके पीछे छायावादी युग की राष्ट्रीय चेतना मुखर हुयी हैं। इस समन्वय का सुफल यह है कि छायावादी व्यक्तिक चेतना एवं तत्कालीन राष्ट्रीय चेतना के स्वर नाटक में एक साथ उभरे हैं। इसके कारण राजनीति समन्वित ऐतिहासिक तथ्यों में प्राणमय काव्यधारा स्पंदित हुयी। ऐतिहासिक कथा क्रम में अपने व्यक्तित्व एवं युगीन चेतना को प्रसाद ने इस तरह समाहित किया है कि पाठक को सर्वत्र सरसता का एहसास होता है। स्थूल वाह्य क्रिया व्यापारों एवं आंतरिक उथल-पुथल को एकान्वित करने के कारण द्वन्द्व एवं अर्न्तद्वन्द्व से ग्रस्त चरित्र अपने आप उभरने लगते हैं।
प्रसाद का प्रत्येक नाटक स्वतंत्रता, राष्ट्रवाद, सामाजिक-सांस्कृतिक समस्याओं को लेकर उपस्थित होता है। प्रसाद अपने नाटकों में आधुनिक युग की समस्याओं से टकराते हैं, उनसे लोहो लेते हैं, और पलायन नहीं करते। आध्यात्मिक रूझान के बावजूद वे अपने समय को नहीं भूलते। उनके नाटक स्कंदगुप्त में भी स्वाधीन चेतना और राष्ट्रवाद का स्वर प्रमुख है, तो इसलिए कि प्रसाद की युगीन दृष्टि ही उसके मूल में क्रि
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