हिन्दी परिवार की जिस बोली को हम ब्रजभाषा के नाम से जानते हैं, उसका संबंध ब्रजमंडल या ब्रज प्रदेश से है जिसके अंतर्गत मथुरा, अलीगढ़, आगरा, बदायूँ तथा बरेली सहित आसपास का काफी बड़ा क्षेत्र शामिल हो जाता है। ब्रजभाषा शौरसेनी अपभ्रंश से विकसित हुयी है। ब्रजभाषा के विकास को निम्न तीन चरणों में बॉंटा जा सकता है -
1. प्रथम चरण प्रारंभ से लेकर 1525 ई. तक
2. द्वितीय चरण 1526 - 1800 तक तथा
3. तृतीय चरण 1801 से लेकर अब तक।
1. प्रथम चरण प्रारंभ से लेकर 1525 ई. तक
प्रथम चरण की ब्रजभाषा अपभ्रंश से ही रस लेकर अपने स्वरूप निर्माण में लगी हुयी थी। अपभ्रंश के ग्रंथों हेमचन्द्र के व्याकरण के उद्धरित दोहों तथा हेमचन्द्र के कोष देशीनाममाला के संग्रहीत शब्दों में ब्रजभाषा का पूर्व रूप ढूंढा जा सकता है जैसे -
सासानल जाल झलक्कियउ महु खण्डिउ माणु।
अपभ्रंश के झलक्कियउ से ही ब्रजभाषा का झलक्यो और खण्डिउ से ही ‘खण्डयो’ शब्द विकसित हुआ।
‘देशीनाममाला’ में संग्रहित शब्दों में ब्रजभाषा के शब्दों का पूर्वाभास मिलता है।
जैसे - उग्गहिअ > उगाहना
फग्गु > फाग
चोट्टी > चोटी
अच्छ > आछे
प्राकृत पैंगलम, षडावस्थाबालबोध, रणमल्लछंद, पृथ्वीराज रासो आदि में ब्रजभाषा के लक्षण तो मिलते ही हैं उक्तिव्यक्तिप्रकरण, कीर्त्तिलता में भी ब्रजभाषा के कुछ अभिलक्षण दिख जाते हैं जैसे -
नअण झंपिओ - प्राकृत पै॰
उप उप्पर थरहर्यो - रासो
वीर कप्यंतर चुक्यो - रासो
हौं करओं - उक्ति व्यक्ति प्रकरण
ओ परमेसर हर सिर सोहइ - कीर्त्तिलता
उपर्युक्त उद्धरणों में ओकारान्तता की प्रवृत्ति ब्रजभाषा की ही विशेषता है। सिद्धों-नाथों की वाणियों में भी ब्रजभाषा का बीज मौजूद है। गोरखनाथ की उक्ति - ‘गोरखनाथ गोरूड़ी पवन वेगि ल्यावै’ में ऐकारान्तता तथा मत्स्येन्द्रनाथ की उक्ति - ‘पखेरू ऊड़िसी आय लीयो वीसराय’ में ओकारन्तता की प्रवृत्ति ब्रजभाषा के ही गुण है।
ब्रजभाषा का पहला स्वतंत्र प्रयोग करने का श्रेय आदिकालीन कवि अमीर खुसरो को दिया जा सकता है। यद्यपि उनकी भाषा में फारसी, खड़ी बोली और अवधी तीनों भाषिक परम्पराएँ मिलती हैं पर निश्चित रूप से उनकी रचनाओं में ऐसे कई उदाहरण है जो ब्रजभाषा के मधुर रूप का आभास कराते हैं। उदाहरण के लिए खुसरों का निम्नलिखित पद द्रष्टव्य है -
खुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग।
तन मेरो मन पीउ को दोउ भए एक रंग।
प्रथम चरण की ब्रजभाषा में 1350 ई0 तक कोई ग्रंथ नहीं मिलता है। इस समय तक ब्रजभाषा के रूप स्थिर नहीं हुए थे। ब्रजभाषा में लिखी गयी पहली ज्ञात रचना है सुधीर अग्रवाल कवि कृत ‘प्रद्युम्ण चरित’। इसकी भाषा में ब्रजभाषा की सभी महत्वपूर्ण विशेषताएं दिखने लगती है यथा
दीन्हीं दृष्टि मैं रच्यौ पुराण।
दीन बुद्धि हौं कियौं बखाण।
दीन्हीं, रच्यौ, हौं, कियौ ब्रजभाषा के ही भूतकालिक क्रिया रूप हैं। हौं सर्वनाम रूप तो ब्रजभाषा की उल्लेखनीय विशेषता है। विष्णुदास ने ब्रजभाषा में कई ग्रंथ लिखें - स्वर्गारोहन, महाभारत कथा, स्नेह लीला, रूक्मिनी मंगल। विष्णुदास की ब्रजभाषा में लोच एवं मिठास है। इनकी भाषा सरल, सहज एवं बोधगम्य है।
रूक्मिणी चरण सिरावै
पीछे पूजी मन की आस।
इस दौर की अन्य उल्लेखनीय रचनाएँ हैं - माणिक की बेताल पच्चीसी, नारयणदास की छीताई वार्त्ता, मेघनाथ की गीता भाषा आदि।
2. द्वितीय चरण 1526 - 1800 तक
ब्रजभाषा का शुद्ध साहित्यिक निखार 16वीं शताब्दी में दृष्टिगत होता है। ब्रज प्रदेश स्थापित होते ही ब्रजभाषा आदर्श साहित्यिक भाषा बन गयी। द्वितीय चरण की ब्रजभाषा का सही साहित्यिक निखार सूरदास के काव्य में हुआ है। सूरदास जी ने सामान्य बोलचाल की ब्रजभाषा को सौंदर्य कल्पना से लैस किया। उन्होंने विनय के पद, वात्सल्य के पद, श्रृंगार के पद एवं इतिवृतात्मक शैली के पद लिख कर ब्रजभाषा की बहुमुखी अभिव्यंजना क्षमता का परिचय दिया। सूरदास जी जहाँ सौंदर्य या शोभा का वर्णन करते हैं, वहाँ उनकी भाषा तत्सम शब्दों की ओर झूक जाती है यथा
सोभा कहत कहै नहिं आवै
सजल मेघ धनस्याम सुभग वपु तड़ित वसन बनमाल।
अलंकार विधान के पारंपरिक रूप का निर्वाह करते हुए सूर शोभा वर्णन में तत्सम शब्दों पर निर्भर करते हैं। लेकिन जहाँ वे कृष्ण के बाल एवं युवा रूप का वर्णन करते हैं, उनकी छेड़छाड़ का चित्रण करते हैं, वहाँ तद्भव शब्दों पर उनकी निर्भरता बढ़ जाती है। जैसे
जसोदा हरि पालनैं झुलावै।
हलरावै, दुलराइ मल्हावै, जोइ-जोइ कछु गावै॥
मेरे लाल कौं आउ निंदरिया, काहैं न आनि सुवावै।
सूरदास की भाषा का ही अनुसरण परवर्ती कवियों ने किया। अष्टछाप के परमानन्द दास, कुंभन दास, नन्द दास आदि ने ब्रजभाषा में वाक-चातुर्य एवं वाग्विदग्धता पैदा की। कृपाराम की हीत तरंगिनी भी ब्रजभाषा में है। मीरा की भाषा में ब्रजभाषा का राजस्थानी मिश्रित रूप दिखाई पड़ता है। रहीम और रसखान की भाषा अपनी सहजता के कारण ही हृदयग्राही है यथा
जा दिनतें निरख्यौ नँद नंदन
कानि तजी घर बंधन छूट्यौ। रसखान
रीतिकाल के केशवदास, मतिदास, पद्माकर, चिंतामणी आदि ने ब्रजभाषा को काव्यांग विवेचन की भाषा के रूप में ढाला। बिहारी, घनानन्द की भाषा मितकथन में दक्ष है। उन्होंने भावों में विलक्षणता पैदा की। बिहारी की भाषा ब्रजभाषा के तमाम मानक व्याकरणिक वैशिष्ट्य से युक्त है।
देखत बनै न देखिवौ अनदेखै अकुलाहिं।
इन दुखिया अँखियान को सुख सिरज्योहि नाहिं।।
घनानंद की भाषा स्वच्छंद प्रेम की भाषा है, उसमें वाकपण या कृत्रिमता नहीं है, स्वभाविकता है।
तुम कौन धौ पाटी पढ़े हो लला।
मन लेहु पे देहु छटँक नहीं।
3. तृतीय चरण 1801 से लेकर अब तक
भारतेन्दु युग में प्रायः सभी कवियों ने ब्रजभाषा में ही काव्य रचना की। भारतेन्दु खड़ी बोली को काव्य भाषा के योग्य नहीं मानते थें। उन्होनें अपनी सभी कविताएँ ब्रजभाषा में ही लिखी। भारतेन्दु और उनके मंडल के कवियों द्वारा ब्रजभाषा में ही समस्या पूर्त्तियों का खेल शुरू किया गया। भारतेन्दु ‘अंखिया दुखिया नहीं मानती है’ जैसी समस्या की पूर्त्ति इस प्रकार करते हैं:
यह संग में लागिए डोले सदा बिन देखे न धीरज आनती है
पिय प्यारे तिहारे निहारे बिना अंखिया दुखिया नही मानती है।
उनकी मृत्यु के बाद अयोध्या प्रसाद खत्री और श्रीधर पाठक ने खड़ी बोली को गद्य -पद्य दोनों की भाषा बनाये जाने का आंदोलन छेड़ा। इस युग में खड़ी बोली की जो कविताएँ लिखी भी गयी उनमें ब्रजभाषापन है, जैसे-
सब तजि गहो स्वतंत्रता मत चुप लाते खाओ
राजा करे सो न्याब है पाशा पड़े तो दाव।
लेकिन यह महसूस किया गया कि इस जड़ हो गयी काव्य भाषा में आधुनिक संचेतना की अभिव्यक्ति संभव नहीं है। आधुनिक जीवन की जटिलताओं और पेचिदें भावों की अभिव्यक्ति के लिए गद्य रचनाओं में खड़ी बोली का प्रवेश हो चुका था। भारतेन्दु युग में यर्थाथवाद गद्य के रास्ते ही आया। खड़ी बोली नवजागरण, राष्ट्रीय चेतना और समाज सुधार की वाहिका भी बनती है। द्विवेदी युग की काव्य भाषा खड़ी बोली है, वैसे जगन्नाथ दास रत्नाकर और सत्यनारायण कवि रत्न जैसे लोगों ने ब्रज भाषा में कविता लिखी लेकिन ब्रज भाषा काव्य भाषा के रूप में देर तक टीक नहीं पाई। खड़ी बोली को लेकर द्विवेदी जी ने जो कड़ा रूख अपनाया उसके कारण ब्रजभाषा में कविता करने वाले भी खड़ी बोली में कविता करने लगे।
लिहाजा कह सकते हैं कि खड़ी बोली के दबाव के आगे यह ब्रजभाषा टिक नहीं पायी
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